प्रवासी कविता : आषाढ़ की रात...

लावण्या शाह
मध्यरात्रि ही लगेगी, 
आज पूरी रातभर में,
आह! ये, आषाढ़ की बरसाती रात है।
 
ऊपर गगन से जल, 
नीचे धरा पर टूटता
जोड़ देता, पृथ्वी और आकाश को, 
जो अचानक।
 
तड़ित, विस्मित देह, कंपित, 
ओझलाझल है, नजर से।
बस, चमकीला नीर, 
गिरता जो व्यवस्थित।
अंधड़ हवा से उछलता या हल्की, 
टपा... टप...।
 
पर है घुप्प अंधेरा जहां में, हर तरफ,
काली अमावसी रात, 
मानो करेला, नीम चढ़ा।
मैं असहाय, सहमी, 
है जी, उचाट मेरा।
 
देख रही पानी को, 
काली भयानक रात को, 
तोड़कर, काट, 
फेंक देती जो विश्व को, 
मुझसे, बिलकुल अलग-थलग, 
अलहदा... और, मैं, रौंद देती हूं, 
मेरी उंगलियों के बीच में, 
मेरी वेणी के फूल।
 
मेरा व्याकुल मन चाहे,
आएं स्वजन, इस आषाढ़ी रात में,
मन पुकारता है, उन बहारों को, 
लौट गईं जो उलटे पांव।
 
आगत आया ही नहीं, इस बार,
पानी नहीं, मुझे आग चाहिए।
 
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