ग़ज़ल- ये जमीं है न आसमां अपना

Webdunia
शनिवार, 4 जुलाई 2015 (17:15 IST)
- कुलवंत परमार 'नदीम' 


 
 
ये जमीं है न आसमां अपना
यूं तो तो कहने को है जहां अपना
 
सांस रुकते ही टूट जाता है
रिश्ता-ए-दर्द जिस्मों जां अपना
 
वक्त लाता है एक दिन ऐसा
जो मिटाता है हर निशां अपना
 
कल हमारा था अब तुम्हारा है
चंद तिनकों का आशियां अपना
 
ये सजाओ जजा को छोड़ बता
कौन लेता है इम्तिहां अपना
 
थक के रुक जाएगा कहीं इक दिन
बूढ़ी सांसों का कारवां अपना
 
हम रहें न रहें मगर ऐ नदीम
पीछे रहता है बस बयां अपना। 
 
साभार- गर्भनाल 

 
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