प्रवासी कविता : परिधि

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- अलका शर्मा

 
आज फिर
एक भ्रम
एक स्वप्न जो
अक्सर दिखाई देता है
तुम्हारा वजूद
अक्सर
महसूस करती हूं
अपने समीप, बहुत समीप
यही तो जीना है
कि, कल्पना उसके
होने की
जो छिपा है
विस्तृत, अक्षेर वातायन में
मोरपंख-सा
भागना उसके पीछे
जो छोड़ जाता है-
एक दीर्घकालिक प्रतीक्षा
उससे कुछ सुन पाने की आशा
जो, बिलकुल पास
होकर भी
मौन की परिधि
में लिप्त रहता है
और
मछुए के जाल की तरह
फैला असीम अंतरिक्ष
हमारे मध्य
स्थापित रहता है
सदैव... सदैव...
 
क्या इसका सदा मौजूद रहना
मिथ्या भ्रम नहीं हो सकता?
क्यूं नहीं समझा पाती हूं
तुम्हें?
मैं तो हरसिंगार का पेड़ हूं
बस, एक बार हिलाकर देखो
झरते हुए सारे फूल तुम्हारे ही हैं
मेरा अस्तित्व भी
पर
यह स्वप्न ही रहा
यह परिधि लांघी नहीं जा सकती
क्यूंकि वो फिर से बांध देगा...
 
शब्दों की एक
सुंदर-सी भूमिका
और
व्याप्त हो जाएगा
पुनश्च:
 
मौन- हमारे मध्य
नहीं
मैं, अपने स्वप्न
बर्फ की तरह
ठोस नहीं बनाना चाहती
बेहतर होगा
मैं प्रतीक्षारत रहूं
तुम्हारा मौन
खतम होने तक।
साभार - गर्भनाल 

 
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