हिन्दी कविता : अनाहूत

Webdunia
-सुदर्शन प्रियदर्शिनी 

मैं देख रही हूं
दरीचों से


 
तुम्हारे पांव,
तुम मेरे दरवाजे पर
खड़ी दस्तक
दे रही हो...
 
यो देखती आई हूं तुम्हें
धकियाते हमारे द्वार
समय-समय पर
अपनी भयावह
ताड़नायों-प्रताड़नायों
और सुसंस्कृत-मायावी-सम्भ्रांत
रोगों के साथ...
 
संताप-आंधियों
काल के भिन्न-भिन्न
रूपों के थपेड़ों के
रूप में-दस्काती
हमारे द्वार
आती
और लौट जाती...
 
डर की सीमाओं तक
उड़ेलती
अपना भयावह
खौफ...
 
भयभीत हम
तुम्हारे इस
दबदबे के नीचे
उम्रभर
इससे डर 
उससे डर
तुमसे डर
और
सहमी पड़ी रही
मन की उत्ताल तरंगें
जिन्हें
तुमने कभी
उठने न दिया
जीने न दिया...
 
पर अब तुम्हारे
पांवों की बेसुरी
रुनझुन-
तुम्हारे मायावी
डरावों से मैं
डरती नहीं-
 
क्योंकि मैं
जान गई हूं
तुम्हारा समय
निश्चित है
ना आगे
ना पीछे
ना कम
ना ज्यादा
तो आज रहो
दरवाजे की दरीचों से
झांकती-निहत्‍थी-बेबस
क्योंकि
अभी मेरा समय
नहीं आया है...!
 
(लेखिका कई सम्मानों से सम्मानित सम्प्रति अमेरिका की ओहायो नगरी में स्वतंत्र लेखन में रत हैं।)
साभार- विभोम स्वर
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