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अमृत वाधवा
दोस्तों के साथ मिल कहकहे लगाना
वो हंसना वो ठहाके लगाना
भूला हुआ हो जैसे एक फसाना!
थिरकते हुए पैरों पर रातों की जवानी
कभी मस्ती, कभी शोखियों की रवानी
बन गई अब एक किताब की कहानी !
हंसते खिलखिलाते सुंदर से चेहरे
चांदी-सी छवि रंग सुनहरे
पड़ गए उन पर नकाबों के पहरे !
वो शादी के मंडप को सजाना
गीत गाना, हंस कर गले लगाना
लगता है अब एक रिवाज़ पुराना !
बाजारों-दुकानों से नए-नए वस्त्र लाना
कभी गली में कभी रेस्टोरेंट में खाना खाना
कहां खो गए वह दिन कोई नहीं जाना !
सिनेमाघर में चलते हुए चल-चित्र
देखते थे हम सब मिलकर मित्र
आजकल सब हो गए कहीं तितर-बितर !
गुरुद्वारे में सजी हुई संगत का साथ
सर पे आशीर्वाद देता बड़े का हाथ
बन गई वो मुश्किल-सी मिलती सौगात !
मेलों-महफिलों का रंग कहीं खो गया
सांसों पर जैसे गहरा कोहरा सा छा गया
जीवन की राह पर जैसे अर्धविराम आ गया !
इस अर्धविराम ने जीवन को नई राह दिखाई
जो पास है उसका मोल करो ये बात सिखाई !
बसंत ऋतू की ठंडी ठंडी हवा
गाते हुए पंछियों के गीत
बारिश का अमृत जैसा पानी
बन गई मेरी हर श्याम सुहानी !
खुले नीले आसमान में अंगड़ाई लेता बादल
खिलती हुई कलियों से जागती आशा
खिले हुए फूलों की सुंदर मुस्कान
अनमोल प्रकृति में बस गई मेरी जान !
उगते सूरज का सुनहरा उजाला
बहते हुए झरने का संगीत
हरे-भरे पेड़ों की मीठी छांव
घर में ही बन गया मेरा सुंदर गांव !
क्या विदेश, क्या देश
क्या शहर, क्या नगर
इस गांव से संभव हर खुशी
इस गांव से बढ़कर अब कोई नहीं खुशी !