प्रवासी साहित्य : स्मृति दीप...

लावण्या शाह
भग्न उर की कामना के दीप, 
तुम कर में लिए मौन, निमंत्रण, विषम, 
किस साध में हो बांटती?
 
है प्रज्वलित दीप, उद्दीपित करों पे, 
नैन में असुवन झड़ी।
है मौन, ओंठों पर प्रकम्पित, 
नाचती, ज्वाला खड़ी।
 
बहा दो अंतिम निशानी, 
जल के अंधेरे पाट पे।
'स्मृतिदीप' बनकर बहेगी, 
यातना, बिछुड़े स्वजन की।
 
एक दीप गंगा पे बहेगा, 
रोएंगी आंखें तुम्हारी।
घुप अंधकार रात्रि का तमस,
पुकारता प्यार मेरा तुझे, 
मरण के उस पार से।
 
बहा दो, बहा दो दीप को,
जल रही कोमल हथेली।
हां प्रिया़ यह रात्रिवेला औ',
सूना नीरव-सा नदी तट।
 
नाचती लौ में धूल मिलेंगी, 
प्रीत की बातें हमारी।
 
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