आ रही है कविता फिर दबे-दबे पांव

रेखा भाटिया
आ रही है कविता फिर दबे-दबे पांव
आ चुपके से वो बैठी है सिरहाने मुझे कुछ बताने,

 
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नींद में सोया हूं मैं सपनों में खोया हूं मैं,
बैचैन होती हैं मेरी रातें सुन तेरी बातें,
आ घेरती है मुझे निद्रा में अर्धचेत अवस्था में,
बोली कविता सुलझा एक पहेली,
भौर होते ही तेरे जीवन से चली जाऊंगी,
तुम जब जाग जाओगे मैं खो जाऊंगी,
एक पंछी छोड़ घोंसला उड़ा घर से दूर,
डाली-डाली जंगल भटका दूसरा घर तलाशने,
कहीं रम गया कहीं बस गया कुछ समय बिताने,
बसा न सका वह घर कहीं भी मां की याद सताए,
राम नाम न वाचे कोई नींद से कौन जगाए,
हर दिशा एक नया रंग है मन उसका बेरंग है,
सूरज चमकता है जिस दिशा टुकूर-टुकूर देखे वहां,
खोया बचपन बीती जवानी श्याम है घिर आई,
वर्ष बित गए कई आंधी तूफान गुजर गए,
टूटा घौंसला बाट है जोहे,
आ अब लौट कर घर को ओह श्यामल पंछी,
उजड़ी बगिया में शोर मचाने,
चहकने-फुदकने दोहरा वही गीत पुराने,
दाना तेरा यह माटी भी उगले है,
वर्षा देती है इसे भी कुछ बूंदें,
इन्द्रधनुषी रंग है आसमान में,
बेरंग मन को जरा भिगो ले,
आ लौट आ बुद्धू टूटा घोंसला संवारने,
कौन है पंछी, कहां है उसका घोंसला,
जाग उठा मैं नींद से,
पहेली का हल सुलझाने,
नदारत थी कविता वचन अपना निभाने,
मैं ही हूं पंछी तेरी पहेली का नायक,
तू गीत मेरा ही गाए है,
नींद में मुझे मेरे घोंसले की याद दिलाए है,
अब जागा हूं लौट जाऊंगा,
टूटा घौंसला संवारने,
टूटा घौंसला ही तो घर है मेरा।

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