एनआरआई कविता : चट्‍टान जो मोम हो गया

- सुप्रभा गुप्ता

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वक्त की थपेड़ों ने
उसे इतना कठोर बना दिया था
कि मैं उसकी तुलना
चट्टान से करने लगी थी
कोई आए कोई जाए
कोई मिले कोई बिछुड़े
कोई जन्मे कोई मरे
उसके चेहरे पर
एक से ही भाव रहते थे
उसे जब भी देखा
अपने आप में मस्त पाया
कभी मन स्वयं से पूछता
कौन होगा इसका समाया?

कभी नजदीक जाने का प्रयास करती
तो उसकी उदासी पीछे धकेल देती
कौन जानता था कि वह
अंदर से खोखला हो रहा है
एक दीमक खाए वृक्ष की तरह
यकीन नहीं आया जब
अचानक
एक दिन सुना वह नहीं रहा
जाकर देखा उसे पास से
उसकी शून्य की ओर
निहारतीं हुई आंखों को
जिसकी कोर पर कुछ बूंद
आंसुओं की
शायद
अंदर का चट्टान
समय की थपेड़ों के
साथ धीरे-धीरे
द्रवित होता रहा
और अंत में
नम कर गया
उस शिला को
जिसे सब
कठोर समझते थे
वह अंत में
मोम हो गया।

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