प्रवासी कविता : उलझन

- शकुंतला बहादुर

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उलझनें उलझाती हैं
मन को भटकाती हैं।
कभी इधर, कभी उधर
मार्ग खोजने को तत्पर
भंवर में फंसी नाव-सा
लहरों में उलझा-सा
बेचैन डगमगाता-सा
मन बहक-बहक जाता है।
मंजिल से दूर...
बहुत दूर चला जाता है।

कभी लगता है कि रेशम के धागे
जब उलझ-उलझ जाते हैं
चाहने पर भी सुलझ नहीं पाते हैं
टूट जाने पर से गांठें पड़ जाती हैं
जो हमें रास नहीं आती हैं
किंतु, धैर्य से उन्हें सुलझाते हैं
तो सचमुच सुलझ जाते हैं

सोचती हूं, उलझना तो
चंचल मन की एक प्रक्रिया है
जो विचार शक्ति को कुंद करती है
मन को चिंतामग्न
और शिथिल करती है।

इस पार या फिर उस पार
जिसका निर्णय सुदृढ़ है
जो स्थिर-बुद्धि से बढ़ता है
उलझनों से वह बचता है
वही सफल होता है
और मंजिल पर पहुंचता है।

जीवन अगर सचमुच जीना है
तो उलझनों से क्या डरना है?
पथ के हैं जंजाल सभी ये
रोक सकेंगे नहीं कभी ये।

उलझन पानी का बुलबला है
चाहें उसे फूंक से उड़ा दो
या फिर उसके चक्रव्यूह में
अपना मन फंसा दो।

तभी तो ज्ञान कहता है
जिसने मन जीता
वही जग जीता है।
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