प्रवासी कविता : साथ तेरा

- विजय कुमार सिंह

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अब न नभ तक कोई तारक
और ओझल चंद्रमा है
है तो नीरवता ही केवल
कालिमा ही कालिमा है

नींद में हैं सब अभी भी
वृक्षों पर खग कुल बसेरा
यह निशा का घन अंधेरा
शुभ है केवल साथ तेरा

तेरी सांसों की मैं खुशबू
अपनी सांसों आज ले लूं
खोल दो ‍तुम केश अपने
प्यार से जी भर के खेलूं

ले के पलभर को टिका लो
अपने कांधे सर ये मेरा
यह निशा का घन अंधेरा
शुभ है केवल साथ तेरा

आ मिला दो धड़कनों को
आज मेरी धड़कनों से
मुक्त होने दो मुझे फिर
काल के इन बंधनों से

बांध लो कसकर मुझे तुम
डालकर बांहों का घेरा
यह निशा का घन अंधेरा
शुभ है केवल साथ तेरा

आओ मेरे पास आओ
मुंह हथेली आज भर लूं
चूम लूं अधरों को तेरे
होठों को होठों में ले लूं

झांक कर तेरे नयन फिर
खोज लूं एक नव सवेरा
यह निशा का घन अंधेरा
शुभ है केवल साथ तेरा।
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