प्रवासी साहित्य : मां तेरा प्यार

- कृष्णा वर्मा

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कभी टूटने दी ना मां
त ूने संबंधों की डोर
आर्तभाव कितने हों गहरे
पकड़ के रखा छोर

तेरे जीवन की खूंटी पर
देखी टंगी उदासी
घना कुहासा चीर के मां तू
बनती रही किरन उजासी

जुड़ा रहे घर बंटे ना अंगना
सब कुछ सह लेती मां आप
दिल पर लिखा दर्द बांटती
दीवारों से वह चुपचाप

अपने नाजुक कांधों पे
रही दुख के शैल उठाती
दृढ़ निश्चय सदा वज्र इरादे
मन मृदु गुलाब की पाती

जाने कैसे भांप लेती थी
मेरे मन का गहन अंधेरा
जितना भी चाहूं मैं छिपाना
पढ़ लेती थी मेरा चेहरा

तू रखती मेरे सर जब हाथ
मिट जाते थे सभी विषाद
कभी ना झिड़का तूने मां
सब क्षमा किए मेरे अपराध

तपश हथेली की मेरी मां
स्नेहसिक्त हाथों का स्पर्श
लाऊं कहां से बनता था जो
कठिनाइयों में मेरा संबल

ग्रह दोष मेरी कुंडली में
व्रत रखती रही तू लगातार
गमगीन होता था दिल मेरा
बहती थी तेरी अश्रुधार

मेरी प्रगति की चिंता में घुली
कतरा-कतरा तू दिन-रात
मुझे सुलाकर तू कब सोई
मेरे कल की चिंता ढोई

अपनी उम्र मुझे देने को
आधी उम्र उपवास में खोई
मुझे निवाला देकर अपना
सदा तृप्त आनंदित होई

मां मैं तो तेरी परछाई
फिर भी तुझको समझ ना पाई
गढ़ा अनोखा शिल्पकार ने
लगता माटी कोई खास लगाई

तेरे कृत्यों के आगे
कर्तव्य गए मेरे हार
किया दूर विधना ने चाहे
फिर भी मां महसूस करूं मैं
प्रतिपल तेरा कोसा प्यार।
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