ओशो रजनीश की आलोचना जरूरी?

अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'
- निर्वाण दिवस (19 जनवरी) पर विशेष
ओशो को हम क्या कहें धर्मगुरु, संत, आचार्य, अवतारी, भगवान, मसीहा, प्रवचनकार, धर्मविरोधी या फिर सेक्स गुरु। जो ओशो को नहीं जानते हैं और या जो ओशो को थोड़ा बहुत ही जानते हैं उनके लिए ओशो उपरोक्त में से कुछ भी हो सकते हैं।
osho
लेकिन जो पूरी तरह से जानते हैं, वे जानते हैं कि ओशो हैं सिर्फ एक 'न्यू मैन' या कहें कि सिर्फ ओशो। 'न्यू मैन' अर्थात एक ऐसा आदमी जिसके लिए स्वर्ग, नरक, आत्मा, परमात्मा, समाज, राष्ट्र और वह सभी अव्याकृत प्रश्न तीसरे दर्जे के हैं, जिसके पीछे दुनिया में पागलपन की हद हो चली है। ओशो अपना धर्म खुद हैं, वे फकत आदमी है।
 
नीत्से ने जिस 'न्यू मैन' की कल्पना की थी वह नहीं और महर्षि अरविंद ने जिस 'अतिमानव' की कल्पना की थी वह भी नहीं। ओशो बुद्धि और भाव के परे उस जगत की बात करते हैं जहां का मानव ईश्वर को छूने की ताकत रखता है।
 
निश्चित ही ओशो ईश्वर होने की बात नहीं करते, लेकिन कहते हैं कि मानव में वह ताकत है कि वह एक ऐसा मानव बन जाए जो इस धरती की सारी बचकानी बातों से निजात पा स्वयं को स्वयं में स्थित कर हो ले, वह जो होना चाहे। ईश्वर ने मानव को वह ताकत दी है कि वह उसके समान हो जाए।
 
ओशो कहते हैं कि दुनिया अनुयायियों की वजह से बेहाल है इसलिए तुम मेरी बातों से प्रभावित होकर मेरा अनुयायी मत बनना अन्यथा एक नए तरीके की बेवकूफी शुरू हो जाएगी। मैं जो कह रहा हूं उसका अनुसरण करने मत लग जाना। खुद जानना की सत्य क्या है और जब जान लो कि सत्य यह है तो इतना कर सको तो करना कि मेरे गवाह बन जाना। इसके लिए भी कोई आग्रह नहीं है।
 
यदि आज भी सूली देना प्रचलन में होता तो निश्‍चित ही ओशो को सूली पर लटका दिया जाता, लेकिन अमेरिका ऐसा नहीं कर सकता था इसलिए उसने ओशो को थेलिसियम का एक इंजेक्शन लगाया जिसकी वजह से 19 जनवरी, 1990 में ओशो ने देह छोड़ दी।
 
निश्‍चित ही ओशो बुद्ध जैसी ऊंचाइयां छूने वाले ईसा मसीह के पश्चात सर्वाधिक विवादास्पद व्यक्ति रहे हैं। 70 के दशक में ओशो और ओशो के संन्यासियों को दुनियाभर में प्रताड़ित किया गया, यह बात सर्वविदित है, लेकिन इससे भी ज्यादा दुखदायी बात यह है कि ओशो प्रेमियों को आज भी इस संदेह से देखा जाता है कि मानो वह कोई अनैतिक या समाज विरोधी हैं खासकर वामपंथी तो उन्हें देखकर बुरी तरह चिढ़ जाते हैं।
 
ओशो के निर्वाण दिवस पर इस बात की आशा करना कि ओशो को अब धीरे-धीरे लोग समझने लगे हैं, यह बात उतनी ही धूमिल और अस्पष्ट है, जितनी कि मार्क्स को आज भी लोग समझने में लगे हैं। आज किसी से यह कहना कि मैं ओशो प्रेमी हूं उतना ही खतरनाक है जितना की मार्क्स के शुरुआती दौर में खुद को मार्क्सवादी कहना।
 
जीवनपर्यन्त ओशो हर तरह के 'वाद' का इसलिए विरोध करते रहे कि आज जिस वाद के पीछे दुनिया पागल है दरअसल वह अब शुद्ध रहा कहां। इसलिए ओशो ने जब पहली बार धर्मग्रंथों पर सदियों से जमी धूल को झाड़ने का काम किया तो तलवारें तन गईं। यह तलवारें आज भी तनी हुई हैं, जबकि दबी जबान से वही तलवारबाज कहते हैं कि कुछ तो बात है ओशो में। लेकिन हम खुलेआम इस बात को कह नहीं सकते। चोरी से पढ़ते हैं ओशो को और फिर....
 
इन सब के लिए ओशो की आलोचना होनी चाहिए?
1.ऐसा आरोप है कि वे फ्री सेक्स का समर्थन करते थे और उनके आश्रम में हर संन्यासी एक महीने में करीब 90 लोगों के साथ सेक्स करता था।
2.ओशो ने धर्म को व्यापार बनाकर रख दिया था और वे सबसे बड़े व्यापारी थे।
3.वे सिर्फ अमीरों के संन्यासी थे। उन्होंने पूंजीवाद को बढ़ावा दिया। उनके पास लगभग सौ रॉल्स रॉयस कारें थीं। 
4.ओशो रजनीश धर्म, राष्ट्रवाद, गांधीवाद और कम्युनिज्म के खिलाफ थे। 
5.भगवान रजनीश तर्क से सही को गलत और गलत को सही करना अच्छे से जानते थे।
6.वे परिवार और विवाह की धारणा के भी खिलाफ थे।
7.सबसे अंत में वे ईश्वर की सत्ता को नहीं मानते हैं और वे लोगों को विश्वास की जगह संदेश सिखाते हैं।
 
उपरोक्त सभी आरोप जो ओशो पर लगते आएं हैं क्या आप इससे सहमत हैं कि ओशो की आलोचना होना चाहिए?

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