रनुबाई चली सासरे...

गणगौर-गाथा

Webdunia
- डॉ. श्रीराम परिहा र
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जब दिशा-दिशा में कोयल वसंत के आगमन की सूचना देने लगती है। आम्र वृक्ष बौरों के गुच्छों की पगड़ी बाँध लेते हैं। संपूर्ण वनस्थली पुष्पों से श्रंगारिक हो उठती है। खेतों में गेहूँ पकने लगता है। दक्षिण पवन चंदन की गंध लिए आँचल में किलोल करने लगता है। होली के रंग की ललाई घुलने लगती है, तब वसंत के उल्लासित मौसम के बीच रनुदेवी को पावणी लाया जाता है। गाँव की स्त्रियाँ समूह में होली दहन-स्थल पर जाकर थोड़ी-सी राख टोकनी में लेकर जिस घट देवी की स्थापना होती है, वहाँ आती हैं।

घर आकर पवित्र जगह में देवी की स्थापना की जाती है। स्थापना में कोई मूर्ति नहीं होती, बल्कि छोटी-छोटी 9 कुरकई (टोकनियों) में आलोना कंडे का चूरा, गेहूँ के खेत की मिट्टी मिलाकर भर देते हैं। उसमें थोड़ी-सी कस्तूरी डालकर टोकनियों में गेहूँ बो देते हैं। इस तरह देवी की स्थापना हो जाती है। इसे जवारा बोना भी कहते हैं। घर की स्त्री एक महीन आकांक्षा से अन्य स्त्रियों का आह्वान पूजा के लिए करती है।

दूध केरी दवणी मजधर हो रनादेवी।
पूत केरो पालणो पटसाल हो रनादेवी।
स्वामी सुत सुख लड़ी सेज हो रनादेवी।
असी पत टूट्यो गरबो भान हो रनादेवी।
  दक्षिण पवन चंदन की गंध लिए आँचल में किलोल करने लगता है। होली के रंग की ललाई घुलने लगती है, तब वसंत के उल्लासित मौसम के बीच रनुदेवी को पावणी लाया जाता है।      
गणगौर उत्सव में स्थापना से लेकर पाट बैठने तक यानी चैत्र दशमी से लेकर दूज तक स्त्रियाँ पाती खेलने जाती हैं। पाती से तात्पर्य है फूल-पाती का खेल। भाव यह कि रनुदेवी या गौर देवी बड़ी हो गई हैं और वे गाँव के बाहर अमराई में अन्य समवयस्क बालिकाओं के साथ खेलने जाती हैं।

इसी भाव का निर्वाह करने के लिए गाँव की स्त्रियाँ अमराई में पाती खेलने जाती हैं। गाँव की स्त्रियाँ प्रतीक स्वरूप एक लोटे में गेहूँ भरकर उसको कपड़ा ओढ़ाकर उसकी आकृति देवी की मुखाकृति के समरूप बनाती हैं। फिर उसे एक-दो आभूषण पहनाती हैं और सिर पर रखकर आम्रकुंज में जाती हैं। वहाँ उस आकृति को नीचे रखकर सभी स्त्रियाँ समूह में गोल घेरा बनाकर नाचती हैं और रनादेवी के अंग-अंग के सौंदर्य का बखान करती हैं।

गणगौर के त्योहार में कन्या के रूप में रनुबाई और जँवाई के रूप में धनियर राजा को माना गया है। यह त्योहार अपनी परंपरा में एक बेटी का विवाह है। माँ अपनी बेटी को पाल-पोसकर बड़ा करती है। उसे कच्चा दूध पिलाती है। उसमें नारी का एक संपन्न और सुखी भविष्य देखती है। उसी तरह जवारों को भी नौ दिन तक पाला-पोसा जाता है, सींचा जाता है। धूप और हवा की तिक्तता से उनकी रक्षा की जाती है और एक दिन बेटी का ब्याह रचा दिया जाता है।

चैत सुदी दूज के दिन माता को पाट बैठाया जाता है। पाट बिठाने से तात्पर्य है कि आँगन में दो चौकोर लकड़ी के पाटों पर धनियर राजा और रनुबाई की बाँस की चीपों से आकृति बनाई जाती है और उन पर मिट्टी के बने मुखड़े लगा दिए जाते हैं। उल्लेखनीय है कि गणगौर उत्सव में पुरुष भी नृत्य और गायन में उतनी ही हिस्सेदारी करते हैं, जितनी स्त्रियाँ। कभी दिन में और कभी रात में झालरिया देते समय स्त्रियाँ अलग और पुरुष अलग समूह में घेरा बनाकर नाचते हैं और कभी स्त्री-पुरुष एक साथ भी समूह में नृत्य करते हुए गाते हैं। इसी दिन रात को रनुबाई को मेहँदी लगाई जाती है और सभी स्त्रियाँ भी मेहँदी लगाती हैं।

उत्सव के आखिरी दिन विदा की तैयारी से पूर्व रनुदेवी-धनियर राजा का श्रंगार किया जाता है। धनियर राजा को धोती, कमीज, कोट और पगड़ी बाँधी जाती है। रनुदेवी को पूरे वस्त्रों के साथ आभूषण भी पहनाए जाते हैं। रनुदेवी की सजी-धजी प्रतिमा साक्षात नारी जनित सौंदर्य की आकृति लगती है। फिर देवी को लाल चूड़ियाँ पहनाई जाती हैं।

रनुबाई समझ जाती हैं कि उन्हें ससुराल भेजने के लिए तैयार किया जा रहा है। वे लाल चूड़ियाँ पहनने के लिए मना करती हैं और ससुराल के व्यक्तियों के व्यवहार और दुःखों का हवाला देती हैं। इस पर दादाजी उन्हें समझाते हैं। इस संवादमय गीत में नारी जीवन के संवेदनात्मक पक्ष उजागर हुए हैं-
लाल चूड़िलो नहीं पेरो रे दादाजी म्हारा,
सासरियो नहीं जावाँ
सासरियो दुःख भारी रे पिताजी म्हारा,
सासरियो नहीं जावाँ।
सासु का बोल म्हारा कलेजा म लगऽ,
नणद का अवघड़ बोल।
सासु का बोल बेटी खोला म झेलजे,
नणद छै धरम की ढेल।

चैत सुदी तीज की शाम को विदा की तैयारी होने लगती है। उस समय का दृश्य और बेटी की विदा का दृश्य एक-सा होता है। पूरा गाँव नम आँखों से विदा के लिए आ जुटता है। आज रनुबाई सासरा जा रही हैं।

पाटों पर जो धनियर राजा और रनुबाई की प्रतिमा सजाई जाती है, उन प्रतिमाओं के अंदर खाली जगह में नौ दिन पहले यानी उत्सव के प्रारंभ में बोए जवारों को पूजा-आरती करके रख देते हैं। पूरे गाँव की स्त्रियाँ और पुरुष उन प्रतिमाओं को बीच में रखकर घेराकार रूप में झालरिया देते हैं। पूरा जनसमुदाय उत्साह, हर्ष और विदा के क्षणों की नमी में डूब जाता है।

(21 मार्च, 2007 की नईदुनिया से)
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