निर्जला एकादशी पर क्यों करें शीतल जल का वितरण, क्या मिलता है इसका फल, जानिए...

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* निर्जला एकादशी पर क्यों करें निर्जला व्रत, जानिए पौराणिक महत्व...

निर्जला एकादशी के दिन भगवान विष्णु की आराधना की जाती है। आर्थिक रूप से समर्थवान लोग प्राकृतिक वस्तुओं के साथ, धन, द्रव्य आदि का भी दान कर समाज को आत्मबल प्रदान करते हैं। लोग ग्रीष्म ऋतु में पैदा होने वाले फल, सब्जियां, पानी की सुराही, हाथ का पंखा आदि का दान करते हैं।

एक ओर ज्येष्ठ मास की भीषण गर्मी जिसमें सूर्यदेव अपनी किरणों की प्रखर ऊष्मा से मानो अग्निवर्षा कर रहे हों, दूसरी ओर श्रद्धालुओं द्वारा दिनभर निराहार एवं निर्जल उपवास रखना। सूर्योदय से सूर्यास्त तक ही नहीं, अपितु दूसरे दिन द्वादशी प्रारंभ होने के बाद ही व्रत का पारायण किया जाता है। अत: पूरे 1 दिन 1 रात तक बिना पानी के रहना वह भी इतनी भीषण गर्मी में, यही तो है भारतीय उपासना पद्धति में कष्ट सहिष्णुता की पराकाष्ठा। 
 
हमारे धर्मग्रंथों में निर्जला एकादशी को आत्मसंयम की साधना का अनूठा पर्व माना गया है। ज्येष्ठ माह में आने वाली शुक्ल पक्ष की एकादशी को निर्जला एकादशी कहा जाता है। इस वर्ष यह एकादशी रविवार, 24 जून 2018 को मनाई जाएगी। धार्मिक एवं सांस्कृतिक पर्व निर्जला एकादशी बड़े भक्तिभाव से मनाया जाता है। इस उपासना का सीधा संबंध एक ओर जहां पानी न पीने के व्रत की कठिन साधना है, वहीं आम जनता को पानी पिलाकर परोपकार की प्राचीन भारतीय परंपरा भी। मठ, मंदिर एवं गुरुद्वारों में कथा प्रवचन, धार्मिक अनुष्ठान एवं शबद कीर्तन आदि के कार्यक्रम जहां दिनभर चलते हैं वहीं शीतल जल के छबीले लगाकर राहगीरों को बुला-बुलाकर बड़ी आस्था के साथ पानी पिलाया जाता है। बस स्टैंडों के आसपास पानी के छबील लगाकर अनेक धार्मिक संगठन दिनभर शीतल जल का वितरण करना बड़े पुण्य का कारण मानते हैं।

 
निर्जला एकादशी को पानी का वितरण देखकर आपके मन में एक प्रश्न अवश्य आता होगा कि जहां इस दिन के उपवास में पानी न पीने का व्रत होता है तो यह पानी वितरण करने वाले कहीं लोगों का धर्मभ्रष्ट तो नहीं कर रहे हैं? लेकिन इसका मूल आशय यह है कि व्रतधारी लोगों के लिए यह एक कठिन परीक्षा की ओर संकेत करता है कि चारों ओर आत्मतुष्टि के साधन रूप जल का वितरण देखते हुए भी उसकी ओर आपका मन न चला जाए। 

 
साधना में यही होता है कि साधक के सम्मुख सारे भोग पदार्थ स्वयमेव उपस्थित हो जाते हैं। वस्तु पदार्थ उपलब्ध होते हुए उनका त्याग करना ही त्याग है अन्यथा उनके न होने पर तो अभाव कहा जाएगा, अत: अभाव को त्याग नहीं कहा जा सकता। दूसरी ओर जो लोग व्रत नहीं करते लेकिन गर्मी के कारण आकुल हो जाते हैं और उनको ऐसी स्थिति में एक गिलास शीतल पानी मिल जाता है तो उनकी आत्मा प्रसन्न हो जाती है। अत: इस उपासना का सीधा संबंध एक ओर जहां पानी न पीने के व्रत की कठिन साधना है वहीं आम जनता को पानी पिलाकर परोपकार की प्राचीन भारतीय परंपरा भी। 

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निर्जला एकादशी के बारे में योग दर्शन के मनीषी आचार्य चन्द्रहास शर्मा कहते हैं कि पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायु इन 5 तत्वों से ही मानव देह निर्मित होती है अत: पांचों तत्वों को अपने अनुकूल बनाने की साधना अति प्राचीनकाल से हमारे देश में चली आ रही है। अत: निर्जला एकादशी अन्नमय कोश की साधना से आगे जलमय कोश की साधना का पर्व है। पंचतत्वों की साधना को योग दर्शन में गंभीरता से बताया गया है। अत: साधक जब पांचों तत्वों को अपने अनुकूल कर लेता है तो उसे न तो शारीरिक कष्ट होते हैं और न ही मानसिक पीड़ा, साथ ही साधना द्वारा कष्टों को सहन करने का अभ्यास हो जाने पर समाज में एक-दूसरे के प्रति सहयोग की भावना जागती है। 
 
निर्जला एकादशी व्रत के बारे में महाभारत में महर्षि वेदव्यास के वचन हैं कि पूरे वर्ष में होने वाली एकादशी जिनमें अधिकमास भी सम्मिलित है, यदि कोई न कर सके तो भी वह निर्जला एकादशी का व्रत करता है तो उसे सभी एकादशियों के व्रत का पुण्य फल प्राप्त होता है। इसीलिए व्यासजी ने भीमसेन को निर्जला एकादशी व्रत करने की प्रेरणा दी, क्योंकि जठराग्नि तीव्र होने के कारण भीमसेन बिना खाए रह ही नहीं सकते थे अत: भीमसेन ने वेदव्यासजी की प्रेरणा से इस व्रत को किया।

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प्राचीनकाल में धर्मज्ञ राजा एवं सामर्थ्यवान लोग निर्जला एकादशी को जल एवं गौदान करना सौभाग्य की बात मानते थे इसीलिए जल में वास करने वाले भगवान श्रीमन्नारायण विष्णु की पूजा के उपरांत दान-पुण्य के कार्य कर समाजसेवा की जाती रही। आज भी अधिक नहीं तो थोड़ा ही सही, श्रद्धालु लोग इस परंपरा का अपनी सामर्थ्य के अनुसार निर्वाह करते हैं।
 
इस उपासना में कौटिल्य अर्थशास्त्र के वस्तु-विनिमय के भी दर्शन होते हैं, क्योंकि धन की अपेक्षा साधन या वस्तुओं को उपलब्ध कराकर समाज तुरंत लाभान्वित होता है इसलिए इस व्रत के दिन प्राकृतिक वस्तुओं के दान का बड़ा महत्व बताया गया है।

-डॉ. गोविंद बल्लभ जोशी

 

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