डोल ग्यारस : एक सामाजिक और सांस्कृतिक त्योहार

सुशील कुमार शर्मा
विश्वभर में भारत सर्वाधिक धार्मिक विभिन्नताओं वाला देश है। भारतीय संस्कृति सभी धर्मों की  स्थापना, उपादेयता, सहिष्णुता एवं विशिष्टता संधारित करती है। यहां पर जीवनशैली को  निर्धारित करने में धर्म, देवी, देवता एवं त्योहारों की प्रमुख भूमिका हमेशा से रही है। यहां पर  त्योहार राष्ट्रीयता, प्रादेशिकता एवं आंचलिकता को परिभाषित करते हैं। धार्मिक विविधता के  कारण त्योहारों की विभिन्नताएं, भारतीय संस्कृति को सतरंगी इन्द्रधनुष के रूप में चित्रित करती  हैं।
 

 
गाडरवारा नगरी, जो धर्म की तथ्यात्मक व्याख्या के लिए प्रसिद्ध ओशो के साथ-साथ साधु-संतों  एवं मंदिरों की नगरी रही है, यह नगरी भारत के प्रमुख धर्म प्रचारकों की कर्मभूमि रही है।  वर्तमान शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंदजी के गुरु स्वामी करपात्रीजी यहां पर अपना चौमासा  व्यतीत करते थे। परमहंस स्वामी धूनीवाले दादाजी की कृपा भी इस पावन भूमि पर रही है।  आचार्य चैतन्य महाप्रभु स्वामी, महर्षि महेश योगी, स्वामी षण्मुखानंद एवं अन्यान्य संतों का  सान्निध्य इस नगरी को मिलता रहा है।
 
त्योहार किसी अंचल या शहर की पहचान होते हैं। गाडरवारा नगर की संस्कृति की पहचान यहां  का डोल ग्यारस का उत्सव है। एक समय था, जब गाडरवारा की डोल ग्यारस पूरे महाकोशल में  प्रसिद्ध थी। जबलपुर से लेकर इटारसी के बीच इस त्योहार को देखने वालों का तांता गाडरवारा  में लगता था।
 
भाद्रपद शुक्ल पक्ष की एकादशी को डोल ग्यारस का उत्सव मनाया जाता है। पुराणोक्त  मान्यताओं के अनुसार इस दिन कृष्ण के जन्म के 18 दिन बाद यशोदाजी ने उनका  जलवा-पूजन किया था। उनके संपूर्ण कपड़ों का प्रक्षालन किया था। उसी के अनुसरण में ये डोल  ग्यारस का त्योहार मनाया जाता है। इसी कारण से इस एकादशी को 'जल झूलनी एकादशी' भी  कहते हैं। इस एकादशी में चन्द्रमा अपनी 11 कलाओं में उदित होता है जिससे मन अति चंचल  होता है अत: इसे वश में करने के लिए इस पद्मा एकादशी का व्रत रखा जाता है। 
 
किंवदंती है कि इस दिन विष्णु भगवान शयन करते हुए करवट बदलते हैं, इस कारण से इस  एकादशी को 'परिवर्तनी एकादशी' भी कहते हैं। ऐसा माना जाता है कि भगवान विष्णु हर  चातुर्मास को अपना बलि को दिया हुआ वचन निभाने के लिए पाताल में निवास करते हैं। इस  पद्मा एकादशी को निम्न श्लोक से उनकी पूजन करनी चाहिए।
 
'देवेश्चराय देवाय देव संभूति कारणे। प्रभवे सर्वदेवानां वामनाये नमो नम:।'
 
इस त्योहार की शुरुआत गणेश चतुर्थी पर गणेश स्थापना के साथ ही हो जाती है। पूरे गाडरवारा  नगर में अनगिनत घरों व चौबारों पर श्री गणेश विराजते हैं। श्री गणेश, जो बुद्धि के देवता हैं,  प्रथम पूज्य हैं। वो अध्यात्म एवं जीवन के गहरे रहस्यों के अधिष्ठाता हैं। जीवन के प्रबंधन के  सूत्रधार श्री गणेश नगर में सर्वत्र व्याप्त हो जाते हैं। नगर का हर बच्चा श्री गणेशमय हो जाता  है। 
 
घर की चादरों से छोटे-छोटे पंडाल बनाकर बच्चे श्री गणेश की मूर्तियों की स्थापना करते हैं तो  ऐसा लगता है कि जैसे नन्हे-नन्हे पौधे बड़े वृक्ष बनने की तैयारी कर रहे हों। हर बच्चे के  आराध्य श्री गणेश हैं, जो उन्हें अपने गुणों से आकर्षित करते हैं। उनके सूप जैसे कान, जो  कचरे को बाहर फेंककर सिर्फ सार ही ग्रहण करते हैं। सूक्ष्म आंखें, जो आपके अंतरमन को पढ़  लेती हैं। उनकी सूंड दूरदर्शिता की परिचायक है। श्री गणेश का उदर विशाल हृदय का प्रतीक है,  जो सारी अच्छी-बुरी बातें पचा जाता है। सभी बच्चे इन गुणों को अपने में संजोने के लिए ही  शायद श्री गणेश की स्थापना करते हैं।
 
 

 


गाडरवारा की डोल ग्यारस की पुरानी स्मृतियां आज भी मानस पटल पर ज्यों की त्यों अंकित  हैं। 80 के दशक में जब हम किशोर हुआ करते थे। गणपति विराजने के दिन से ही डोल  ग्यारस की तैयारी होने लगती थी। डोल ग्यारस के दिन प्रात:काल से ही गाडरवारा के आसपास  ग्रामीण क्षेत्रों एवं पूरे महाकोशल क्षेत्र से लोगों का आना शुरू हो जाता था। गाडरवारा के प्रत्येक  परिवार में मेहमानों का जमघट होता था। 
 
सभी मित्र-मंडली गणेश पंडाल में ही डोल ग्यारस देखने की योजनाएं बनाने लगते थे। पैसा  एकत्रित होने लगता था लोगों से गणपति का चंदा लेते थे। कुछ आरती में चढ़ावा आता था।  कुछ पैसों का जुगाड़ माताजी से करके डोल ग्यारस वाले दिन हम सभी मित्र शाम 7 बजे  गाडरवारा की गलियों में निकल जाते थे। मस्ती करते हुए चिल्लाते हुए 'गणपति बप्पा मोरिया'  के नारे लगाते हुए एक जगह एकत्रित होकर हम अपनी डोल ग्यारस मनाने की योजनाओं को  मूर्तरूप देते थे। उन दिनों कठल पेट्रोल पंप गाडरवारा का अंतिम छोर हुआ करता था।
 
सबसे पहले दिप्पू बनिये की दुकान पर समोसा खाते थे। आधे रुपए का एक समोसा मिलता  था, उसमें इमली की चटनी का स्वाद आज भी जीभ में पानी ला देता है। फिर गणपति की  मूर्तियों के दर्शन के लिए निकल जाते थे। पूरे शहर में उस दिन ऐसी गहमा-गहमी रहती थी,  जैसे कि इस शहर की ही शादी हो रही हो। बाजार एवं सड़क पर लगी दुकानें तोरण,  फूलमालाओं व बिजली की लड़ियों से सजी दमकती थीं। 
 
झंडा चौक पहुंचकर शिखरचंद जैन के पेड़े खाकर हम लोग थाने में कव्वाली सुनने निकल जाते  थे। कव्वाली में उर्दू शब्दों के मायने भले ही समझ में नहीं आते थे लेकिन लोगों का उत्साह  देखकर मन प्रसन्न हो जाता था। इस नगर में हिन्दू एवं मुस्लिम एकता का अटूट संगम देखने  को मिलता है। लोग एक-दूसरे के त्योहारों में न सिर्फ भाग लेते हैं बल्कि समर्पित भाव से  सहयोग भी करते हैं। 
 
वहां से हम सभी बच्चे स्टेशन पर ऑर्केस्ट्रा सुनने के लिए जाते थे। उन दिनों ऑर्केस्ट्रा बहुत ही  प्रचलित था एवं लोगों का पसंदीदा कार्यक्रम होता था। मधुर गीतों का आनंद लेकर हम लोग  उच्छव महाराज की चाट खाकर श्याम टॉकीज में 12 बजे का फिल्म शो देखने के लिए घुस  जाते थे। 3 बजे शो से निकलने के बाद बाजार में श्री सेठ की कचौरियों का आनंद लेते हुए हम  लोग भगवान के विमानों के पीछे-पीछे पूरे शहर में घूमते थे। 
 
उतनी रात को भी पूरा शहर जागता रहता था। बड़े, बूढ़े, बच्चों व महिलाओं का उत्साह देखते ही  बनता था। लोग चौराहों, चौबारों, टिपटियों एवं छतों पर चढ़कर विमानों के दर्शनों के लिए  उत्साहित रहते थे। ग्रामीण क्षेत्रों से बैलगाड़ियों से, घोड़ा तांगों (जो अब इतिहास बन चुके हैं) से  पैदल चलकर लोग हजारों की संख्या में गाडरवारा आते थे। सभी विमान अटल बिहारी मंदिर एवं  चौकी पर इकट्टे होकर छिड़ाव घाट जाते थे। हम लोग घंटा बजाते हुए उन विमानों के साथ  चलते हुए शक्कर नदी में भगवान का जल विहार करके सुबह अपने-अपने घर लौट आते थे।
 
आज सब बदल गया है। रिश्तों में मानवीय संवेदनाओं के कारण त्योहार भी यंत्रवत और  औपचारिक-से हो गए हैं। पहले त्योहारों के साथ आस्था व परंपराएं जुड़ी रहती थीं। आज त्योहारों  में विशुद्ध आस्था न रहकर व्यावसायिक समीकरणों का बोलबाला है। दिखावे की भावनाओं ने  परंपरागत विश्वासों को पीछे धकेल दिया है। टेलीविजन व मोबाइल ने लोगों को एकांगी कर  दिया है। न उन्हें किसी से मिलने की इच्छा होती है, न मिलकर उत्सव मनाने का उत्साह है।  सारा उत्साह इंटरनेट ने शोषित कर लिया है।
 
नई पीढ़ी यथार्थ में विश्वास करती है। वह प्रजातां‍त्रिक मूल्यों में विश्वास रखती है। व्यावहारिक  होने के कारण संवेदनाओं की कमी इस पीढ़ी की सबसे बड़ी कमजोरी है। आज हमारी जिम्मेवारी  है कि इस पीढ़ी में हम वो संस्कार डालें ताकि वो समझ सके कि बदलाव वक्त की जरूरत है,  लेकिन ऐसा बदलाव, जो संस्कृति एवं पहचान को विलुप्त कर दे, वह कदापि स्वीकार्य नहीं होना  चाहिए। त्योहार हमारी सांस्कृतिक विरासत के साथ आंचलिक पहचान भी हैं। इनका रिश्ता  समाज से है। हम इन्हें बदले स्वरूप में और उत्साह से मनाएं।
 
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