शरद पूर्णिमा, निधिवन, महारास और भगवान श्री कृष्ण, क्या है इनका संबंध

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- आचार्य गोविन्द बल्लभ जोशी
 
 
भारत वर्ष धर्म संस्कृति की विराटता को अपने में अनादिकाल से संजोए हुए है। यहां देवता पितर, ऋषि, प्रकृति पशु, पेड़-पौधे सभी की किसी न किसी रूप में पूजा एवं आराधना की जाती है। ऋतु प्रधान देश होने से यहां प्रत्येक ऋतु में विशेष उत्सव मनाए जाते हैं।
 
कई उत्सव ऐसे हैं जिसमें उपासना एवं आराधना का संबंध सीधे आत्मा और परमात्मा से जोड़ने वाला होता ऐसा ही पर्व आश्विन शुक्ल पक्ष पूर्णिमा यानी शरद पूर्णिमा को मनाया जाता है। जिस दिन यमुना के तट पर भगवान श्रीकृष्ण ने गोपियों के साथ महारास किया था। कहा जाता है कि आज भी निधिवन में वह रहस्यात्मक लीला शरद पूर्णिमा को संपन्न होती है। किसी न किसी आत्मानंदी साधक को महारास का साक्षात्कार होता है।
 
शास्त्रों में शरद ऋतु को अमृत संयोग ऋतु भी कहा जाता है, क्योंकि शरद की पूर्णिमा को चन्द्रमा की किरणों से अमृत की वर्षा का संयोग उपस्थित होता है। वही सोम चन्द्र किरणें धरती में छिटक कर अन्न-वनस्पति आदि में औषधीय गुणों को सींचती है।

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श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्द में रास पंचाध्यायी में भगवान श्रीकृष्ण द्वारा इसी शरद पूर्णिमा को यमुना पुलिन में गोपिकाओं के साथ महारास के बारे में बताया गया है। मनीषियों का मानना है कि जो श्रद्धालु इस दिन चन्द्रदर्शन कर महारास का स्वाध्याय, पाठ, श्रवण एवं दर्शन करते हैं उन्हें हृदय रोग नहीं होता साथ ही जिन्हें हृदय रोग की संभावना हो गई हो उन्हें रोग से छुटकारा मिल जाता है।
 
रास पंचाध्यायी का आखिरी श्लोक इस बात की पुष्टि भी करता है।
 
विक्रीडितं व्रतवधुशिरिदं च विष्णों:
श्रद्धान्वितोऽनुुणुयादथवर्णयेघः
भक्तिं परां भगवति प्रतिलभ्य कामं
हृद्रोगमाश्वहिनोत्यचिरेण धीरः
 
वस्तुतः समस्त रोग कामनाओं से उत्पन्न होते हैं जिनका मुख्य स्थान हृदय होता है। मानव अच्छी-बुरी अनेक कामनाएं करता है। उनको प्राप्त करने की उत्कृष्ट इच्छा प्रकट होती है। इच्छा पूर्ति न होने पर क्रोध-क्षोभ आदि प्रकट होने लगता है। वह सीधे हृदय पर ही आघात करता है।

वास्तव में मानव खुद अपने लिए समस्या पैदा करता है लेकिन वह चाहे तो समाधान भी उसके पास है। शरद पूर्णिमा इन समस्त बिंदुओं पर चिंतन कर हृदय से सांसारिक रस हटाकर भगवान के महारस से जुड़ने का उत्सव है।
 
यमुना तट पर भगवान श्रीकृष्ण के साथ महारास में उपस्थित गोपियां कोई सामान्य स्त्रियां नहीं थी। कौन थी गोपियां यह जाने लेने पर हम भी शरद पूर्णिमा को गोपी भाव में उतर सकते हैं और कृष्ण प्रीति के कृपा पात्र बन सकते हैं। भगवान श्यामसुंदर श्रीकृष्ण ने अपनी प्राणशक्ति, जीवनीशक्ति का बंसी में समावेश कर क्लीं ध्वनि को प्रतिध्वनित किया। जिन गोपियों को बंसी बजाकर भगवान को बुलाना पड़ा था, उन साधन सिद्धा गोपियों में अनेक वर्ग हैं। इनमें से कुछ गोपियां तो जनकपुर धाम से पधारी हैं जिन्हें भगवती सीता जी की कृपा प्राप्त है।
 
इसी प्रकार श्रुतियों ने जब गोलोक धाम का दर्शन किया तो भगवान की छवि देखकर सम्मोहित हो गईं। उन श्रुतियों ने रस माधुर्य के आस्वादन की कामना से प्रियतम के रूप में भगवान को पाना चाहा। त्रेतायुग में ही इन ऋषियों के अंतःकरण में भगवान के मुरली मनोहर गोपाल वेष में निष्ठा थी। परंतु भगवान को धनुष धारण किए वनवासी रूप में जब इन ऋषियों ने देखा तो वे पुकार उठे- प्रभु! हम तो आपकी रासलीला में प्रवेश पाने की प्रतीक्षा में तप कर रहे हैं। श्रीराम ने कहा तुम सभी ब्रजमंडल में गोपी बनकर प्रकट हो जाना। यथा समय तुम्हें रासलीला में प्रवेश का अधिकार प्राप्त हो जाएगा।
 
ये ऋषि वंग देश में मंगल गोप के यहां पुत्री के रूप में प्रकट होते हैं। श्री यमुना की कृपा से ही इन ऋषि रूपा गोपियों पर श्रीकृष्ण ने कृपा की और बंसी बजाकर रासलीला में पधारने का निमंत्रण दिया।
 
जिस समय भगवान राम ने भृगुकुल नंदन परशुराम को पराजित कर उनको शरणागति प्रदान की, कौशल जनपद की स्त्रियों ने श्रीराम के लोक सम्मोहक रूप का दर्शन किया और वे कामिनी भाव को प्राप्त हो गई। श्रीराम के मानस संकल्प के परिणामस्वरूप वे स्त्रियां ही द्वापर में ब्रजमंडल में नौ उपनंदों की पुत्री बनकर प्रकट हुई।
 
यथा समय ब्रज के गोपी के साथ उनका ब्याह भी हो गया। परंतु पूर्व जन्म की कामना के प्रभाव से श्यामसुंदर श्रीकृष्ण को ही प्रियतम के रूप में पाना चाहा। भगवान ने उन्हें भी बंसी बजाकर रासमंडल में प्रवेश की अनुमति प्रदान कर दी। जनकपुर धाम में सीता को ब्याह कर जब श्रीराम अवध वापस लौटे तो अवधवासिनी स्त्रियां श्रीराम को देखकर सम्मोहित हो गईं। श्रीराम से प्राप्त वर के प्रभाव से वे स्त्रियां ही चंपकापुरी के राज विमल के यहां जन्मी। महाराज विमल ने अपनी पुत्रियां श्रीकृष्ण को समर्पित कर दीं और स्वयं श्रीकृष्ण में प्रवेश कर गए। इन विमल पुत्रियों को भी श्रीकृष्ण ने रासलीला में प्रवेश का अधिकार दिया।
 
वनवासी जीवन यापन करते हुए पंचवटी में श्रीराम की मधुर छवि का दर्शन कर भीलनी स्त्रियां मिलने को आतुर हो उठीं और श्रीराम विरह की ज्वाला में अपने प्राणों का त्याग करने को उद्यत हो गईं तब ब्रह्मचारी वेष दिया। यही भीलनी स्त्रियां कंस के पुलिंद सेवकों के यहां कन्या रूप में जन्म लेती हैं और आज महारास में कृष्ण मिलन का सुख प्राप्त करती हैं।

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इसी प्रकार मालव देश के दिवस्पति नंद की पुत्रियां भी श्रीकृष्ण कृपा से गोपीभाव को प्राप्त कर रासलीला में प्रवेश करती हैं। भगवान सुयज्ञ की कृपा से देवांगनाएं भी गोपी बनती हैं। भगवान धन्वन्तरि के विरह में संतप्त प्राप्त करती हैं। जालंधर नगर की स्त्रियां वृंदापति श्रीहरि भगवान का दर्शन कर कामिनी भाव को प्राप्त हो जाती हैं और श्रीहरि भगवान की कृपा से वृंदावन में गोपी बनने का सौभाग्य प्राप्त करती हैं।

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