एक प्रथा यह भी...!

वसंत में सालाना अनुबंध में बंधते लोग

Webdunia
- राघवेन्द्र मिश्र साथ में मिथिलेश कुमा र
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वसंत में महमह करती आम्रमंजरियों और किसलय-कलिका से जब प्रकृति अभिनव श्रृंगार करती है और जनमानस उत्सवमय हो जाता है तब सीमांचल के हजारों मजदूर बंधन के नए अनुबंध से बंध जाते हैं। दरअसल, सीमांचल से लेकर नेपाल तक में वसंत में ही मजदूरों के सालाना अनुबंध की परंपरा रही है।

इस माह भूस्वामी और ठेकेदार मजदूरों को एकमुश्त राशि देकर साल भर के लिए बुक कर लेते हैं। फिर साल भर मजदूर अपने अनुबंधकर्ता के प्रतिष्ठान या खेतों में मजदूरी के लिए बंध जाता है। युवा मजदूरों के लिए वसंत का वेलेंटाइन पखवारा भी छलावे का उत्सव है।

सीमांचल के पूर्णिया, किशनगंज, अररिया से लेकर नेपाल तक में वसंत में ही मजदूरों की साल भर के लिए खरीद-फरोख्त होती है। नेपाल में इसे 'कमैया प्रथा' कहते हैं। पश्चिमी नेपाल के दाँग, बाँकि बदिया, कैलाली तथा कंचनपुर जिले में आज भी कमैया प्रथा विद्यमान है। यह बंधुआ मजदूरी का ही बदला हुआ रूप है। अनौपचारिक क्षेत्र सेवा केंद्र ने अपनी अध्ययन रिपोर्ट में कहा है कि इन इलाकों में 14 हजार परिवार के 40 हजार कमैया हैं जिनमें 95 फीसदी थारू जाति के ही हैं।

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बिहार में ऐसे मजदूरों की संख्या लगभग 5 लाख है। पुराने समय में जमींदारों ने जिन लोगों को खेतों की देखभाल के लिए रखा वे नेपाल और आसपास के इलाकों में कोठारी नाम से जाने गए। जब जमींदारी का पतन हुआ तो कोठारी ही नए जमींदार बन गए। इन्होंने हजारों एकड़ जंगल को खेती योग्य बनाने के लिए थारू जाति की गरीबी का फायदा उठाया। ये लोग कमैया कहलाए।

धीरे-धीरे अन्य जातियों के गरीब भी कमैया प्रथा से जुड़ने लगे। ठेकेदारों और भूस्वामियों ने भी इस प्रथा को अपने फायदे के लिए बढ़ाया। कमैया से सोलह घंटे तक भी काम लिया जाता है और सरकार द्वारा तय न्यूनतम मजदूरी के भुगतान नियम का तो यहाँ पालन ही नहीं होता है। इन्हें छुट्टी नहीं मिलती और बीमारी या अन्य कारणों से काम नहीं करने की स्थिति में हर्जाना राशि इनकी मजदूरी से काट ली जाती है।

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कमैया को मिलने वाली एकमुश्त राशि एक हजार से बीस हजार रुपए तक होती है। प्रत्येक वर्ष माघ महीने की संक्रांति के दिन कमैया लोगों की खरीद-बिक्री होती है। इस दिन कोई कमैया एक मालिक का ऋण चुकाकर दूसरे मालिक की शरण में जा सकता है। पर मालिक तो बदलते रहते हैं, कमैया की किस्मत नहीं बदलती।

कमैया को साल में आठ बोरी अनाज और एक जोड़ा कपड़ा बतौर पारिश्रमिक दिया जाता है। कमैया को कई श्रेणियों में विभक्त किया गया है। 8 से 12 वर्ष तक के बच्चों को भेड़-बकरी चराने के लिए रखा जाता है और उसे छेग्रहवा के नाम से जाना जाता है। इन सब कमैया को केवल खाना तथा वर्ष में एक जोड़ा कपड़ा दिया जाता है। महिलाओं में कमैया की तीन श्रेणियाँ हैं- कम्लरिया, ओरगनिया तथा बुकराही। इनमें से कम्लरिया को अपने मालिक के घर काम करने के एवज में चार बोरिया अन्न तथा एक जोड़ा कपड़ा वार्षिक रूप से मेहनताना मिलता है।

ओरगनिया तथा बुकराही को मात्र दो-दो कपड़े ही मिलते हैं। कमैया तिलक चौधरी (55 वर्ष) ने कभी पाँच रुपए का कर्ज लिया था और वह अपने मालिक के घर 16 वर्षों से काम कर रहा है। 47 वर्षीय भोलुबा थारू कहता है कि जब कर्ज लिया है तो उसे उतारना ही पड़ेगा। जमींदार के घर बुकराही रूप में काम करनेवाली फूलमती थारू कहती है कि जिस घर में पति काम करेगा वहाँ हमें तो खटना ही पड़ेगा।

हालाँकि पहले की तुलना में अब कमैया प्रथा का जोर घटा है लेकिन समस्या अब भी कायम है। मनरेगा और विभिन्न विकास योजनाओं ने इस प्रथा पर कुठाराघात किया है। फिर भी पूर्णिया, अररिया, सुपौल, कटिहार, सहरसा और किशनगंज जिले में हजारों परिवार आज भी एक मालिक के पास रहकर मजदूरी कर रहे हैं। मनरेगा का इन इलाकों में प्रचार-प्रसार नहीं हो पाया है और ये कमैया अब भी जॉब कार्ड बनवाने में दिलचस्पी नहीं रखते।

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