जानें प्राणायाम क्या है?

अनिरुद्ध जोशी
योग के आठ अंगों में से चौथा अंग है प्राणायाम। प्राण+आयाम से प्राणायाम शब्द बनता है। प्राण का अर्थ जीवात्मा माना जाता है, लेकिन इसका संबंध शरीरांतर्गत वायु से है जिसका मुख्य स्थान हृदय में है। व्यक्ति जब जन्म लेता है तो गहरी श्वास लेता है और जब मरता है तो पूर्णत: श्वास छोड़ देता है। तब सिद्ध हुआ कि वायु ही प्राण है। आयाम के दो अर्थ है- प्रथम नियंत्रण या रोकना, द्वितीय विस्तार।


'प्राणस्य आयाम: इत प्राणायाम'। ''श्वासप्रश्वासयो गतिविच्छेद: प्राणायाम''-(यो.सू. 2/49)
भावार्थ : अर्थात प्राण की स्वाभाविक गति श्वास-प्रश्वास को रोकना प्राणायाम है।
 
हम जब साँस लेते हैं तो भीतर जा रही हवा या वायु पाँच भागों में विभक्त हो जाती है या कहें कि वह शरीर के भीतर पाँच जगह स्थिर हो जाता हैं। ये पंचक निम्न हैं- (1)व्यान, (2)समान, (3)अपान, (4)उदान और (5)प्राण।
 
उक्त सभी को मिलाकर ही चेतना में जागरण आता है, स्मृतियाँ सुरक्षित रहती है। मन संचालित होता रहता है तथा शरीर का रक्षण व क्षरण होता रहता है। उक्त में से एक भी जगह दिक्कत है तो सभी जगह उससे प्रभावित होती है और इसी से शरीर, मन तथा चेतना भी रोग और शोक से ‍घिर जाते हैं। चरबी-माँस, आँत, गुर्दे, मस्तिष्क, श्वास नलिका, स्नायुतंत्र और खून आदि सभी प्राणायाम से शुद्ध और पुष्ट रहते हैं।
 
(1)व्यान : व्यान का अर्थ जो चरबी तथा माँस का कार्य करती है।
(2)समान : समान नामक संतुलन बनाए रखने वाली वायु का कार्य हड्डी में होता है। हड्डियों से ही संतुलन बनता भी है।
(3)अपान : अपान का अर्थ नीचे जाने वाली वायु। यह शरीर के रस में होती है।
(4)उदान : उदान का अर्थ उपर ले जाने वाली वायु। यह हमारे स्नायुतंत्र में होती है। 
(5)प्राण : प्राण वायु हमारे शरीर का हालचाल बताती है। यह वायु मूलत: खून में होती है।
 
प्राणायाम करते या श्वास लेते समय हम तीन क्रियाएँ करते हैं- 1.पूरक 2.कुम्भक 3.रेचक। इसे ही हठयोगी अभ्यांतर वृत्ति, स्तम्भ वृत्ति और बाह्य वृत्ति कहते हैं। अर्थात श्वास को लेना, रोकना और छोड़ना। अंतर रोकने को आंतरिक कुम्भक और बाहर रोकने को बाह्म कुम्बक कहते हैं।
 
(1)पूरक:- अर्थात नियंत्रित गति से श्वास अंदर लेने की क्रिया को पूरक कहते हैं। श्वास धीरे-धीरे या तेजी से दोनों ही तरीके से जब भीतर खिंचते हैं तो उसमें लय और अनुपात का होना आवश्यक है।
(2)कुम्भक:- अंदर की हुई श्वास को क्षमतानुसार रोककर रखने की क्रिया को कुम्भक कहते हैं। श्वास को अंदर रोकने की क्रिया को आंतरिक कुंभक और श्वास को बाहर छोड़कर पुन: नहीं लेकर कुछ देर रुकने की क्रिया को बाहरी कुंभक कहते हैं। इसमें भी लय और अनुपात का होना आवश्यक है।
(3)रेचक:- अंदर ली हुई श्वास को नियंत्रित गति से छोड़ने की क्रिया को रेचक कहते हैं। श्वास धीरे-धीरे या तेजी से दोनों ही तरीके से जब छोड़ते हैं तो उसमें लय और अनुपात का होना आवश्यक है।
 
 
प्राणायाम के प्रमुख प्रकार : 1.नाड़ीशोधन, 2.भ्रस्त्रिका, 3.उज्जाई, 4.भ्रामरी, 5.कपालभाती, 6.केवली, 7.कुंभक, 8.दीर्घ, 9.शीतकारी, 10.शीतली, 11.मूर्छा, 12.सूर्यभेदन, 13.चंद्रभेदन, 14.प्रणव, 15.अग्निसार, 16.उद्गीथ, 17.नासाग्र, 18.प्लावनी, 19.शितायु (shitau) आदि।
 
इसके अलावा भी योग में अनेक प्रकार के प्राणायामों का वर्णन मिलता है जैसे-
1.अनुलोम-विलोम प्राणायाम
2.अग्नि प्रदीप्त प्राणायाम
3.अग्नि प्रसारण प्राणायाम
4.एकांड स्तम्भ प्राणायाम
5.सीत्कारी प्राणायाम
6.सर्वद्वारबद्व प्राणायाम
7.सर्वांग स्तम्भ प्राणायाम
8.सम्त व्याहृति प्राणायाम
9.चतुर्मुखी प्राणायाम,
10.प्रच्छर्दन प्राणायाम
11.चन्द्रभेदन प्राणायाम
12.यन्त्रगमन प्राणायाम
13.वामरेचन प्राणायाम
14.दक्षिण रेचन प्राणायाम
15.शक्ति प्रयोग प्राणायाम
16.त्रिबन्धरेचक प्राणायाम
17.कपाल भाति प्राणायाम
18.हृदय स्तम्भ प्राणायाम
19.मध्य रेचन प्राणायाम
20.त्रिबन्ध कुम्भक प्राणायाम
21.ऊर्ध्वमुख भस्त्रिका प्राणायाम
22.मुखपूरक कुम्भक प्राणायाम
23.वायुवीय कुम्भक प्राणायाम
24.वक्षस्थल रेचन प्राणायाम
25.दीर्घ श्वास-प्रश्वास प्राणायाम
26.प्राह्याभ्न्वर कुम्भक प्राणायाम
27.षन्मुखी रेचन प्राणायाम
28.कण्ठ वातउदा पूरक प्राणायाम
29.सुख प्रसारण पूरक कुम्भक प्राणायाम
30.नाड़ी शोधन प्राणायाम व नाड़ी अवरोध प्राणायाम

प्राणायाम का रहस्य : कछुए की साँस लेने और छोड़ने की गति इनसानों से कहीं अधिक दीर्घ है। व्हेल मछली की उम्र का राज भी यही है। बड़ और पीपल के वृक्ष की आयु का राज भी यही है। वायु को योग में प्राण कहते हैं।
 
प्राचीन ऋषि वायु के इस रहस्य को समझते थे तभी तो वे कुंभक लगाकर हिमालय की गुफा में वर्षों तक बैठे रहते थे। श्वास को लेने और छोड़ने के दरमियान घंटों का समय प्राणायाम के अभ्यास से ही संभव हो पाता है।
 
शरीर में दूषित वायु के होने की स्थिति में भी उम्र क्षीण होती है और रोगों की उत्पत्ति होती है। पेट में पड़ा भोजन दूषित हो जाता है, जल भी दूषित हो जाता है तो फिर वायु क्यों नहीं। यदि आप लगातार दूषित वायु ही ग्रहण कर रहे हैं तो समझो कि समय से पहले ही रोग और मौत के निकट जा रहे हैं।
 
बाल्यावस्था से ही व्यक्ति असावधानीपूर्ण और अराजक श्वास लेने और छोड़ने की आदत के कारण ही अनेक मनोभावों से ग्रसित हो जाता है। जब श्वास चंचल और अराजक होगी तो चित्त के भी अराजक होने से आयु का भी क्षय शीघ्रता से होता रहता है।
 
फिर व्यक्ति जैसे-जैसे बड़ा होता है काम, क्रोध, मद, लोभ, व्यसन, चिंता, व्यग्रता, नकारात्मता और भावुकता के रोग से ग्रस्त होता जाता है। उक्त रोग व्यक्ति की श्वास को पूरी तरह तोड़कर शरीर स्थित वायु को दूषित करते जाते हैं जिसके कारण शरीर का शीघ्रता से क्षय होने लगता है।
 
हठयोगियों ने विचार किया कि यदि सावधानी से धीरे-धीरे श्वास लेने व छोड़ने और बाद में रोकने का भी अभ्यास बनाया जाए तो परिणामस्वरूप चित्त में स्थिरता आएगी। श्वसन-क्रिया जितनी गहरी, लंबी, मंद और सूक्ष्म होगी उतना ही लंबा और मंद जीवन क्रिया के क्षय होने का क्रम होगा।
 
इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना ये तीन नाड़ियाँ प्रमुख हैं। प्राणायम के लगातार अभ्यास से ये नाड़ियाँ ‍शुद्ध होकर जब सक्रिय होती हैं तो व्यक्ति के शरीर में किसी भी प्रकार का रोग नहीं होता और आयु प्रबल हो जाती है। मन में किसी भी प्रकार की चंचलता नहीं रहने से स्थिर मन शक्तिशाली होकर धारणा सिद्ध हो जाती है अर्थात ऐसे व्यक्ति की सोच फलित हो जाती है। यदि लगातार इसका अभ्यास बढ़ता रहा तो व्यक्ति सिद्ध हो जाता है।
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