भगवान श्रीराम की प्राय: सभी लीलाएं व्रतोत्सव से परिपूर्ण हैं। रामचरितमानस में परात्पर ब्रह्म भगवान नारायण के श्रीरामावतार की विस्तृत कथा है। यह अवतार भी महाराज स्वायम्भुव मनु और महारानी शतरूपा के तपोव्रत और अनन्यता से भगवान के रीझने पर ही हुआ।
दोनों शाकाहार, फलाहार और कंदाहार करते हुए सच्चिदानंद ब्रह्म का स्मरण करते रहे। पुन: उन्होंने मूल फल को त्यागकर 6 हजार वर्षों तक जलाहार व्रत एवं 7 हजार वर्षों तक केवल वायु लेकर पुन: निराहार व्रतपूर्वक एक पैर पर खड़े रहकर कठिन तप का अनुष्ठान किया। भगवत्कृपा से उनका तपोव्रत पूर्ण हुआ और महाराज स्वायम्भुव मनु तथा महारानी शतरूपाजी का व्रत श्रीरामावतार हेतु बताना।
भगवान के प्राकट्य महोत्सव के विषय में गोस्वामीजी ने बताया कि श्रीराम जन्म के अवसर पर अयोध्या में जो उत्सव मनाया गया उसे देखकर देवता, मुनि और नाग भी अपने भाग्य की सराहना करते हुए अपने-अपने भवन को गए-
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देखि महोत्सव सुर मुनि नागा। चले भवन बरनत निज भागा।' उस समय नगर को जिस प्रकार से सजाया गया उसका तो वर्णन ही संभव नहीं। ध्वजा, पताका और तोरणों से नगर छा गया। सब लोग ब्रह्मानंद में मगन हो गए। आकाश से फूलों की वर्षा होने लगी। लोग दान करने लगे। गलियों के बीच-बीच में केसर, कस्तूरी और चंदन की कीच हो गई। घर-घर मंगलमय गान होने लगा, क्योंकि उत्सव एवं शोभा के मूल भगवान प्रकट हुए थे। नगर के नर-नारियों के झुंड जहां-तहां आनंदमग्न हो रहे थे।
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गृह-गृह बाज बधाव सुभ प्रगटे सुषमा कंद। हरषवंत सब जहं-तहं नगर नारि बृंद।।'
प्राकट्य महोत्सव के समान ही तुलसीदास ने भगवान के विवाह महोत्सव का बहुत ही मंगलमय वर्णन किया है। श्रीराम-सीता के विवाहोत्सव का जो वर्णन श्रीरामचरितमानस में है, उसका अनुकरण स्मरण करने से विवाह मंगलमय हो जाता है। श्री सीताराम के विवाह महोत्सव का दर्शन कर ब्रह्मादि देवता, मनुष्य और मुनि आनंद-विभोर हो गए।
महाराज दशरथ ने कामधेनु सदृश 4 लाख गायें सब प्रकार से अलंकृत कर ब्राह्मणों को दान में दीं। विवाह अपने आप में एक प्रकार का व्रत ग्रहण ही है जिसमें वधू पतिव्रत का और वर पत्नीव्रत का संकल्प करते हैं। दोनों एक-दूसरे के पूरक बनते हैं। श्रीराम-सीता ने इस व्रत का पूर्णरूपेण पालन कर सर्वोत्तम आदर्श प्रस्तुत किया। गृहस्थ जीवन में विवाहोत्सव सबसे बड़ा उत्सव है।
गोस्वामी तुलसीदास ने भगवान श्रीराम के मर्यादामय आदर्श जीवन की झांकी प्रस्तुत करते हुए उनके वनवास व्रत का जो वर्णन किया है वह प्रसंग पग-पग पर लोक-शिक्षा तथा अध्यात्म का ज्ञान कराने वाला है।
प्रभु श्रीराम का वनवास व्रत दीर्घकालीन है। भगवान श्रीराम ने अपने वनवास व्रत की बात चलाकर निषादराज के अनुरोध को अस्वीकार करते हुए कहा-
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बरष चारिदस बासु बन मुनि ब्रत बेषु अहारु। ग्राम बासु नहिं उचित सुनि गुहहि भयउ दुखु भारु।।' अर्थात मुझे 14 वर्ष तक मुनियों का व्रत और वेष धारण कर मुनियों के योग्य आहार करते हुए वन में ही रहना है, गांव में निवास करना उचित नहीं है।
वनवास में भगवान श्रीरामचन्द्र की व्रतीवत् दिनचर्या का एक दृश्य दर्शनीय है, जो निषादराज गुह ने भरत लाल को दिखाया था और कहा था कि वट की छाया में सीताजी के करकमलों द्वारा बनी बेदी है, जहां मुनिवृंद के साथ बैठकर श्रीसीतारामजी नित्य ही शास्त्र, वेद, पुराणों की कथाएं और इतिहास सुना करते हैं-
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जहां बैठि मुनिगन सहित नित सिय रामु सुजान। सुनहिं कथा इतिहास सब आगम निगम पुरान।।'