रोहित सरदाना के नाम एक खुला खत

Webdunia
शुक्रवार, 8 जुलाई 2016 (13:00 IST)
आदरणीय रोहित सरदाना जी,
 
 
रवीश कुमार के नाम आपका खुला ख़त पढ़ने के बाद मैं आपके नाम एक खुला ख़त लिख रहा हूं। ना तो मैं रवीशजी की तरह कोई एडिटर-इन-चीफ हूं और ना ही आपकी तरह रोज़ ताल ठोकता हूं, फिर भी आशा करता हूं कि आप तक यह ख़त पहुंचे। आप इस ख़त को आपके ख़त का एक जवाब भी समझ सकते हैं क्योंकि आपका ख़त पढ़ने के बाद ही आपसे सवाल करने का मन हुआ। मैं ये जवाब रवीशजी की तरफ से नहीं लिख रहा हूं और मुझे लिखने की जरूरत भी नहीं है, वो जवाब देने में सक्षम हैं और आशा करता हूं कि आपको उनकी तरफ से भी जवाब मिले। 
खैर, मैं सबसे पहले तो आपको बधाई देना चाहता हूं! आपके जी ग्रुप के मालिक सुभाष चंद्रा जी हरियाणा से राज्यसभा के लिए चुने गये। एक संस्था के लिए काफी गर्व की बात रही होगी कि उसका मालिक भारतीय संसद में बैठने के लिए चुना जाए। पर जब कैराना में आप उस पार्टी की लाइन पकड़ लेते हैं जिसने आपके मालिक को राज्यसभा जीतने में अभूतपूर्व मदद की हो, तो क्या आपके अंदर का पत्रकार (मीडियाकर्मी) आपसे पूछता है कि यह लाइन पकड़ने के पीछे की वजह कहीं बीजेपी से मालिक की सांठ-गांठ तो नहीं?

क्या कभी आपके भगवान् ने आवाज़ लगाकर आपको जगाया कि दैनिक तौर पर सरकार की पैरवी करते-करते जी न्यूज़ दूरदर्शन तो नहीं हो गया? वैसे, दूरदर्शन की सरकार के प्रति निष्ठा जग-जाहिर है और इसलिए किसी को दूरदर्शन से दिक्कत नहीं होती पर जब एक निजी चैनल के पत्रकार खुले खतों द्वारा दुसरे चैनलों पर तल्ख़ टिप्पणियां करते हों, जो चैनल राष्ट्रवाद के नाम पर बहुसंख्यक समुदाय की आवाज़ बनने के बहाने हमेशा सरकार की कमियों को कवर करने की भरसक कोशिशों में लगा हो, ऐसे ख़बरों को दिखाते वक़्त क्या खुद के पत्रकार होने पर आपके मन में कोई प्रश्न कभी उठें? 
 
2014 के लोकसभा चुनाव ने भारतीय राजनीति में काफी कुछ बदल दिया है। मैं तब तक आपका चैनल देखता था, लेकिन मैं हरियाणा से आता हूं। मैंने उस चुनाव में सुभाष चंद्राजी को हिसार के उम्मीदवार के लिए रैलियां करते हुए भी देखा। वैसे, जिस किसी को जिंदल-चंद्रा के रिश्तों के बारे में थोड़ी-सी भी जानकारी हो, और ये पता हो कि इन रिश्तों में कब और कैसे खट्टास आई, उनको चंद्राजी का हिसार मे जिन्दलों के खिलाफ प्रचार करना हैरान नहीं किया होगा पर उसी चुनाव में आपका चैनल भी मालिक की ऊंगली पकड़ पहली बार किसी राष्ट्रवादी को प्रधानमंत्री की कुर्सी तक लाने को तत्पर था। क्या वह दौर था जब आपने खुद को पत्रकार लिखना बंद कर दिया?

जिस पार्टी की पैरवी मालिक करे, उस पार्टी की निंदा आप कर भी कैसे सकते हैं। खैर, अगर उस दौर में आपने खुद को पत्रकार लिखना बंद कर दिया था तो आपको सलाम करता हूं, आपके लिए इज्ज़त बढ़ जाएगी, और आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि मैंने कभी प्रणय रॉय को ऐसे कभी खुलेआम वोट मांगते नहीं देखा। हां उनके पसंद-नापसंद राजनेता होंगे, सबके हैं और रवीश के प्रोग्राम में तो मैंने कांग्रेस की फजीहत होते हुए भी देखी है, बीजेपी की भी और आप (आम आदमी पार्टी) पर सवाल तो रवीश परसों ही उठा रहे थे। आप के यहां जब संबित पत्रा आते हैं तो आप उनके लिए एक सिंहासन तैयार रखते हैं ताकि मालिक की पसंदीदा पार्टी को ठेस ना पहुंचे।
 
आपने जिन पत्रकारों के नाम रवीश के खतों को ढूंढा और असफलता हाथ लगी, उनमें आप एक नाम जोड़ना शायद गलती से भूल गए, मैं जोड़ देता हूं। जनाब एक न्यूज़ चैनल पर रोज़ रात 9 बजे आते हैं। ख़बरों की नब्ज टटोलते हैं और उनका डीएनए टेस्ट करते है, नाम है जी न्यूज़ सम्पादक सुधीर चौधरी। आप राजदीप सरदेसाई के एक पार्टी की रैली में दिखे जाने पर आपत्ति करते हैं, और जायज है, और बहुत सारी आपत्तियां हैं आपकी, लेकिन जो पत्रकार एक स्टिंग में 100 करोड़ मांगते हुए पकड़ा गया हो और जिसको जेल भी भेजा गया हो, जो अभी बेल पर बाहर हो, मामला न्यायालय में विचाराधीन हो, उसके दलाल होने पर रविश जी ने पत्रकारों के नाम को पहुंची क्षति के लिए उसके नाम कोई ख़त नहीं लिखा, कोई सवाल नहीं किया, यह तो सरासर गलत है, आपको सवाल उठाना चाहिए था पर आपने नहीं उठाया, शायद भूल गए होंगे, कोई बात नहीं!

वैसे, रवीशजी को उन तक ख़त पहुंचाने में काफी समय लग सकता है, पर आप दोनों तो एक ही संस्था में काम करते हैं। करते हैं ना? तो क्या कभी आते-जाते आपने उनसे सवाल पूछने की हिम्मत की कि ऐसा क्या इमान डीग गया था कि एक बिजनेसमैन से पैसों की उगाही करने की जरूरत आन पढ़ी। अगर वो पैसे उगाह लिए जाते तो वो आपकी संस्था में इस्तेमाल होते, क्या पता आपकी तनख्वाह भी उन्ही पैसों से दी जाती, और क्या पता कई ऐसे उगाही के मामले हों आपके संपादक की उगाही के, जो दब गए हों! पर जो भी है, क्योंकि आप भगवान की आवाज़ सुनते हैं, ईमान की आवाज़ सुनते हैं, तो आपने सवाल तो जरूर पूछे होंगे। खुला ख़त नहीं लिखा होगा क्योंकि आपने ख़त तो आज ही लिखना शुरू किया है।
 
वैसे चूंकि मामला विचाराधीन है तो आप कह सकते हैं कि आपको फैसला आने का इंतज़ार है पर आप फैसला आने का इंतज़ार थोड़ी ना करते हैं। फैसला तो इसका भी नहीं आया है कि आखिर जेएनयू में नारे किसने लगाए और किसने भारत के टुकड़े करने की बात कही पर आप तो उनको देशद्रोही घोषित कर चुके हैं। ताल ठोक ठोक कर आपने खुद को बहुसंखाय्क समुदाय का वक्ता बना लिया और कर दिया फैसला कि कौन देश के साथ है और कौन देश के खिलाफ।  वैसे, देश के साथ वाले लोगों ने ही पटियाला हाउस कोर्ट के बाहर आपके पत्रकार बंधुओं की पिटाई की थी और उसके बाद आपका रिएक्शन नहीं देख पाया, पर रियेक्ट तो आप ने जरूर किया होगा।
 
पत्रकारों को गालियों से वीके सिंह भी याद आ जाते हैं। उन्होंने ही पत्रकारों के लिए 'presstitutes'शब्द को ईजाद किया था और तब जब हर चैनल इसका विरोध कर रहा था, हर पत्रकार को इससे ठेस पहुंची थी, तब आपका चैनल उनकी पैरवी करने के लिए सबसे आगे खड़ा था। रवीश कुमार को दलाल कहे जाने से तकलीफ होती है क्यूंकि अपनी नज़र में वो दलाल नहीं हैं, कहने वालों की नज़र में हो सकते हैं लेकिन खुद को तो वो ईमानदार ही समझते हैं। ऐसी गालियों पर उनकी खीझ दिखती है पर दलाल तो आपको भी कहा जाता है, आप क्यों नहीं खीझ दिखाते? देखिये, इग्नोर करना भी एक अच्छी चीज है और अगर आप कर रहे हैं तो बहुत बढ़िया लेकिन ठेस तो पहुँचती होगी ना, मतलब इंसान ईमानदार हो और गालियाँ फिर भी खाए, ये तो अन्याय है, कभी अपनी खीझ भी जाहिर कर दीजिये।
 
अंत में यही कहना चाहूंगा कि मैंने टीवी देखना छोड़ दिया है। जिनको सुनना होता है उनको यूट्‍यूब पर सुन लेता हूं। पर मेरा पत्रकारों से भरोसा नहीं उठा है। बहुत से पत्रकार अब भी जान जोखिम में डाल कर जन-हित और ना कि किसी पार्टी हित या किसी सरकार हित में रिपोर्टिंग करते हैं। ऐसे पत्रकारों को सलाम करने का दिल होता है, पर ऐसे पत्रकारों के पास उतने संशाधन नहीं है कि वो जन-जन तक पहुंच पाएं, पर आपके पास तो हैं। एक पत्रकार का काम होता है सरकार की खबर रखना और जरुरत पढने पर खबर लेना। अपने भगवान् से कभी बात हो तो उनसे थोडा 2 साल रिवाइंड में दिखाने को कहियएगा और फिर देखिए कि कितनी आपने खबर ली और और कितनी ख़बरों को सरकार के अनुकूल मोड़ कर पेश किया ।
 
धन्यवाद,
 
आपके देश का एक आम नागरिक
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