मुंबई की 'कंकाल' मां के बहाने बात रिश्तों की

Webdunia
सीमा मेहता 

पिछले दिनों मुंबई से एक समाचार आया, बड़ी देर तक स्तब्ध रही। एक मां अपने बेटे का इंतजार करते हुए कंकाल बन गई।  यह निश्चित रूप से दिल दहला देने वाला समाचार था। भारतीय संस्कृति, भारत के पारिवारिक मूल्यों और हमारे पारंपरिक परिवेश के प्रतिकूल था। एक स्वर में बेटे को लानत-मलामत भेजने का काम व्यापक स्तर पर आरंभ हो गया। हो सकता है यह निंदा सही भी हो लेकिन जाने क्यों मैं बिना जाने समझे इसे तरह से दोषारोपण के पक्ष में नहीं हूं। 
 
हम इस मानसिकता से जाने कब उभरेंगे कि चुंकि मां है तो वह सही ही है, चुंकि वह बुजुर्ग है तो उसकी कोई गलती हो ही नहीं सकती, चुंकि बच्चा विदेश में था, युवा है तो 99 प्रतिशत गलती उसी की है। बाद में कई तरह की कथाएं सामने भी आई कि मां ने बेटे की परवाह किए बिना अपनी पसंद से शादी कर ली और उस पति से भी अलग हो गई थी, खैर मैं इन सब बातों में नहीं उलझना चाहती , मैं बिंदूवार रिश्तों पर बात करना पसंद करूंगी कि आखिर ऐसी नौबत आई क्यों ? 
 
सबसे पहली बात जब हम अपने बच्चों पर आप निस्वार्थ प्यार लूटाते हैं तो वह कैसे भी लौट कर आता ही है जहां 'हमने किया इसलिए तुम भी करो' वाला भाव आता है वहां रिश्ते टूटते हैं, टूटते न भी हो तो धागे कमजोर तो पड़ ही जाते हैं। बच्चों को जन्म देकर पाल पोस कर सिर्फ उन्हें ही एकतरफा ही सुख नहीं मिला है, मां बाप ने भी भरपूर आनंद लिया है बच्चे के बचपन का। बच्चे अपनी मर्जी से इस दुनिया में नहीं आए हैं आप उसे इस दुनिया में लाए हैं तो उसे पाल पोस कर बड़ा करना आपकी जिम्मेदारी थी।

बच्चा चाहे 5 साल का हो या 45 साल का वह यह जानता है कि कौन उसे कितना दे रहा है और किस स्वार्थ के वशीभूत दे रहा है। यह मिथक भी तोड़ना होगा कि मां एक औरत न होकर देवी होती है। वास्तव में मां भी मानवीय कमजोरी से ग्रस्त, दुर्बलता और संकुचित सोच से घिरी महिला हो सकती है। कड़वा है यह वाक्य लेकिन इस पर सोचा जाना जरूरी है। उसमें क्रूर और ममता से हीन महिलाएं भी शामिल हैं।

कई बच्चे अपनी ही मां की प्रताड़ना से दुखी और व्यथित हैं पर उनकी बड़ी व्यथा यह है कि वह यह बात किसी से कह भी नहीं सकते क्योंकि उसका सामाजिक परिवेश इसे कभी स्वीकार नहीं करेगा। 
 
चलिए कुछ देर के लिए इसे भी मान ले कि बेटा ही दोषी है तो फिर मां अकेली क्यों रही? उसने अपने दायरे क्यों नहीं तोड़े? उसने अपना कोई सर्कल क्यों नहीं बनाया? रिश्तेदारों से दूरी क्यों बनाई , इसके लिए तो बेटे ने मना नहीं किया होगा? 
 
मेरे परिचय में दो महिलाएं हैं। मैं उनका उदाहरण देना चाहूंगी। एक बड़े घर की बेटी थी और गरीब लेकिन बहुत बड़े परिवार में ब्याही गई। चुंकि वह भरेपूरे घर से आई थी तो ससुराल को अपना घर मानते हुए उसे देर ना लगी। जब बच्चे बड़े होकर बाहर चले गए तो अपने जेठ, ननद, देवर के बच्चों से लगातार संपर्क में रही। अपना घर सबके लिए सदा खुला रखा, सुख-दुख में खड़ी रही। नतीजन बच्चे दूर होकर भी चिंतित नहीं है। ना ही बच्चों की ऐसी कोई कमी उसे सताती है। क्योंकि आए दिन घर में चहल-पहल रहती है। यहां तक कि उन्होंने अपनी रचनात्मकता को भी विराम नहीं लगने दिया। शहर के हर छोटे-बड़े समारोह में उनकी उपस्थिति मिलती है। 
 
दूसरी महिला का उदाहरण भी सुन लीजिए। बेटे से उनकी बिलकुल नहीं बनती। कारण बचपन में हर संघर्ष का गुस्सा बच्चे को पीटकर निकाला गया। नतीजन बच्चा दूर होता गया। जब बड़ा हुआ तो विरोध करने लगा और कड़वाहट बढ़ती ही गई। इस हद तक कि 5 मिनट भी दोनों आपस में बातचीत नहीं कर पाते हैं। ना रिश्तेदार पसंद है ना बेटा लेकिन फिर भी वह अकेली नहीं है क्योंकि महिला ने अपना एक ग्रुप बना रखा है चाहे वह दिन भर अपनी बहू की बुराई करने वाली सास का ग्रुप है पर वह किसी की मुखापेक्षी फिर भी नहीं है। अपने काम खुद करती है। अपने आप में मस्त रहती है। 
 
इन दो उदाहरणों से समझा जा सकता है कि बच्चा आपको देखकर ही सीखता है कि बड़े होकर उसे कैसा व्यवहार करना है। पहले वाली महिला के बच्चे अपने रिश्तेदारों के मन के करीब हैं क्योंकि वे कृतज्ञ हैं कि उनकी अनुपस्थिति में उनकी मां के पास बहुत सारे लोग हैं। दूसरी महिला ने बच्चे के जीवन में अकेलापन परोसा है तो अकेली वह भी है लेकिन उसके जीने का अंदाज शुरू से वही है। बच्चे से उसे कोई अपेक्षा है भी नहीं , वह खुलकर स्वीकारती है कि मैंने इसके लिए कुछ नहीं किया तो यह भी मेरे लिए क्यों करेगा?
 
बात फिर रिश्तों की उस डोर की कि हम कुछ दें नहीं तो लेने की भी उम्मीद ना करें और अगर बहुत कुछ दिया है तब तो बिलकुल भी ना करें क्योंकि यह शाश्वत सत्य है कि निस्वार्थ प्यार कभी खाली नहीं रहता वह लौटकर आता ही है। और हां प्यार मतलब प्यार ही है वसीयत, विरासत, दौलत-जायदाद नहीं। क्योंकि ऐसा होता तो अरबपति विजयपत सिेंघानिया के घर के बर्तन बजने की आवाज हमें नहीं सुनाई देती.... 
 
बात फिर आशा साहनी की कि अगर वह रिश्‍ते निभाती हुई बच्चे यानी रितुराज को दिखती तो बच्चा भी वही सीखता, बच्चे ने मां को जैसा स्वार्थी देखा वह भी वैसा ही स्वार्थी बन गया लेकिन यह एक विचार है फैसला नहीं... 
 
स च तो यह है कि हर परिवार का 'इतिहास' भिन्न होता है, वर्तमान चौंकाने वाला और भविष्य स्तब्ध कर देने वाला... हर चर्चित 'कथानक' अक्सर आश्चर्यजनक होता है लेकिन उसका सच भयावह.... और पीडित और जिम्मेदार का फैसला अत्यंत मुश्किल।

अपने रिश्तों की नाजुक डोर को उलझने से बचाएं बच्चों को खुलकर प्यार करें। सिर्फ अपने बच्चों को नहीं बल्कि हर किसी को प्यार बांटें, बदले में प्यार ही मिलेगा।  

 

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