कैसे करें शाश्वत मूल्यों की सुरक्षा?

Webdunia
- आचार्य डॉ. लोकेश मुनि
 
कोई भी समाज अपने समय के साथ जीता और चलता है। समय बदलने के साथ ही अनेक सारी मान्यताएं तथा परंपराएं बदल जाती हैं। जहां नहीं बदलती हैं वहां यह माना जाता है कि यह समाज दृढ़ और कट्टर है। जनसंख्या नियंत्रण का मामला हो या विकास की अवधारणा या फिर अंधविश्वास- अगर ये समय के साथ अपने आपको बदल नहीं पाए तो उसे देश या समाज की जड़ता मानी जाती है।
 
हमें पहले यह जानना चाहिए कि हम किस ‘समय’ और ‘समाज व्यवस्था’ में जी रहे हैं। यह एक बुनियादी सरोकार है। इससे कटकर हम नहीं चल सकते। यह तो हमें स्वीकार करना ही होगा कि औद्योगिक क्रांति के बाद पूरे विश्व ने अपनी दशा और दिशा में परिवर्तन किया है। हमें भी अपने विकास के मानदंडों की समीक्षा करनी होगी तभी विकसित और अर्धविकसित समाज की पहचान कर सकते हैं। अतः समाज को समझने और बदलने की महती जिम्मेदारी पैदा हो गई है।
 
कहना होगा कि हमारा राजनीतिक ढांचा लोकतांत्रिक है और इसमें सत्ता तथा जनता की बराबर की हिस्सेदारी है। यहां आजादी महसूस की जा सकती है। हमारे यहां सकारात्मक बात यह है कि भारत में हमेशा मूल्यों की प्रधानता रही है जिसका जाने-अनजाने संबंध अध्यात्म से रहा है। पहले यही जीवन-मूल्य समाज और व्यक्ति को संचालित करते थे। इसी से पूरा समाज अनुशासित और संयमित रहता था। वे मूल्य आज भी उतने ही खरे हैं। ईमानदारी, सच्चरित्रता, सेवा, साधना, नैतिकता, अस्तेय- आज का भी सच है। भारत की पूजा और इज्जत इसी कारण हो रही है। पश्चिम इसीलिए भारत की ओर भागा आ रहा है।
 
औद्योगिक क्रांति से पैदा हुई जटिल अर्थव्यवस्था ने निश्चित तौर पर मानवीय मूल्यों को हाशिए की चीज बना दिया है। आज तो संकट यह हो गया है कि क्या ये मूल्य जिंदा रह पाएंगे? अगर नहीं तो इसके बचाव के लिए क्या उपाय किए जा सकते हैं? औद्योगिक क्रांति ने अगर विकास के द्वार खोले हैं तथा वैज्ञानिक उपादानों की भरमार लगाई है तो इसने स्वतंत्रता को भी बाधित किया है। इससे स्वतंत्रता की नई परिभाषा का गठन किया है, जो पूरी तरह से भौतिक और आर्थिक मुद्दों से जुड़ी हुई है। यह स्वतंत्रता मौज करने, भौतिक उपादानों के साथ जीने आदि की है, जो दरअसल एक तरह की गुलामी है। आदमी इस युग में पैसे का दास हो गया है। आर्थिक पूर्ति के लिए वह अपना पूरा जीवन दांव पर लगा रहा है। उसकी आंखों से नींद गायब है और वह सरपट दौड़े जा रहा है। उसे कहां जाना है? क्या करना है? खुद पता नहीं है। उसके चारों ओर एक बदहवाशी छाई हुई है।
 
यही फर्क है पश्चिम के विकास की अवधारणा तथा भारतीय विकास की अवधारणा में। भारतीय अवधारणा शांति, सह-अस्तित्व और सामाजिक संतुलन की है, जो किसी विपरीत परिस्थिति में भी उद्देश्यविहीन नहीं है। वह मौलिक आजादी की पक्षधर है, जो शरीर और मन के स्तर तक की होती है। वह आजादी उसके विवेक से निकलती है। किसी के द्वारा लादी नहीं जाती और न छीनी जा सकती है।

भारत के पास मूल्यों का एक शाश्वत ढांचा है। उसे तैयार करने में मनीषियों, साधकों और समाज वैज्ञानिकों की हजारों वर्षों की तपस्या लगी है। उस अनुभव से जो ढांचा तैयार हुआ है, उसे चुनौती देना संभव नहीं है। यह अलग बात है कि सामाजिक पूर्वाग्रहों के कारण उस ढांचे की यात्रा में अनेक कुप्रसंग और सिद्धांत जुड़ गए हैं जिसने समाज को कटघरे में खड़ा किया है। कुछ अफलातून लोग उसी का सहारा लेकर दिन-रात शाश्वत मूल्यों को कोसने में लगे हैं। वे तो यह आरोप भी लगा रहे हैं कि भारतीय मूल्यों और परंपराओं ने आदमी को धर्म-संप्रदाय और जातियों में बांट दिया है। इस कारण यहां का पूरा-का-पूरा समाज अनेक गुटों और वर्गों में विभाजित है। उसे मानवता का हनन भी हो रहा है।
 
इस नई धारणा ने अंग्रेज इतिहासकारों की शह पाकर सांस्कृतिक प्रदूषण फैलाने का काम किया है। इसे खासतौर पर साम्यवादी और जातिवादी विचारधारा के लोग तूल दे रहे हैं। यह कैसा विरोधाभास है। जिस देश में सदियों की सांस्कृतिक परंपरा है, उस पर गर्व करने के बजाए ऐसे लोग हीनता से ग्रस्त हैं। वे कभी पश्चिम तो कभी साम्यवादी देशों की नई कुत्सित सांस्कृतिक परंपरा की प्रशंसा करते थकते नहीं हैं। उनके लिए प्राचीन भारतीय ग्रंथ फुटपाथी साहित्य कहलाता है जबकि वे कार्ल मार्क्स के ‘दास कैपिटल’ जैसे विरोधाभासी ग्रंथ को अंतिम सत्य मानकर चल रहे हैं। जिस तरह यहां रामायण, आगम, त्रिपिटक और गुरु ग्रंथ साहिब को जो गौरव हासिल है, वही गौरव वे विदेशी किताबों को देना चाहते हैं। यह एक सुनियोजित साजिश है और इसमें विश्व के कई देश शामिल हैं। वे भारतीय दिग्भ्रमित लोगों की मदद से अपनी मान्यता को स्थापित करना चाहते हैं।
 
ऐसे ही दिग्भ्रमित लोगों के कारण समाज के वे लोग इज्जत हासिल कर रहे हैं, जो अपराधी और भ्रष्ट हैं, अखबारों के पन्ने उन्हीं की काली करतूतों की दास्तान से रंगे होते हैं। यह एक नई परंपरा बन गई है कि प्रचारवादी लोग सिर्फ ‘पॉजिटिव’ प्रचार पर ही विश्वास नहीं करते, अपितु ‘निगेटिव’ प्रचार भी उन्हें जीवनदायिनी लगता है। पूरी मीडिया उस प्रचार में शामिल हो गई है। समाज में जो लोग अच्छा काम कर रहे हैं या जो मानवता के लिए समर्पित हैं, वे मुश्किल से ही खबर के प्लॉट की सुर्खी बन पा रहे हैं। यह एक ऐसी प्रवृत्ति है, जो औद्योगिक क्रांति ने पैदा की थी और अब आर्थिक उदारतावाद उसे बाजार में लाकर स्थापित कर रहा है यानी मानवता की कोई खबर नहीं, समाज का सबसे भ्रष्ट आदमी और कुख्यात अपराधी अखबारों की शोभा बढ़ाने वाले बन गए हैं। इस प्रवृत्ति के विरोध में नए सिरे से सोचने-समझने का वक्त आ गया है।
 
सवाल खड़ा हो गया है हम मूल्य किसे मानें? उसे जो आज का बाजारवाद स्थापित कर रहा है या उसे जो हमारी परंपरा में सुरक्षित है। बहस इस पर होनी चाहिए। अगर हम इससे कतराते रहें तो निश्चित तौर पर जिस तरह अंग्रेजी हमारे जीवन में समा गई है, उसकी वेशभूषा के बिना नहीं रह सकते, जैसे विदेशी सामानों से हमारा बाजार भरा हुआ है और हमारे घरों में स्वदेशी वस्तुओं को विस्थापित कर रहा है, उसी तरह पश्चिमी विचारधारा भी हमारे मन-प्राण में समा जाएगी। हमारे अपने शाश्वत मूल्य कहीं फुटपाथों पर भीख मांगते मिलेंगे और हम भी उसे उपेक्षा की नजरों से देखने के आदी हो जाएंगे। हमें पश्चिम की आंधी और उसके मीठे जहर को निस्तेज और प्रभावहीन करने के लिए अपनी परंपरा की तरफ जाना होगा। उसके पन्ने पलटने होंगे। अगर कुछ अवैज्ञानिक है तो उसके बारे में बहस शुरू करनी होगी।
 
तब यह भी सवाल कुरेदना होगा कि हमारे मूल्यों का लोप क्यों हो रहा है? इसके लिए जिम्मेदार कौन है? आखिर क्यों नैतिक शिक्षा के नाम पर कुछ लोग नाक-भौं सिकोड़ने लगते हैं? इसमें उन्हें सांप्रदायिक भावना कहां से दिखाई पड़ जाती है? इन सवालों पर संवेदनशील होकर सोचने की जरूरत है। यह भी तय करना होगा कि ‘मूल्य-संपदा’ को किस तरह स्थापित किया जाए ताकि हमारा समाज आर्थिक उदारतावाद के युग में भी भारतीय समाज बनकर रह सके। 

 
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