परमात्मा के रहने योग्य बनाना होगा अंतःकरण

- पंडित गोविन्द वल्लभ जोशी

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परमात्मा से प्रेम ही सबसे बड़ा प्रेम है। सांसारिक संबंधों के साथ यदि हम उस परमात्मा के शाश्वत संबंध के नाते प्रेम करते हैं तो उसमें विकार उत्पन्न नहीं होते। सांसारिक कर्तव्यों के निर्वाह के साथ यह प्रेम निर्विकार होता है। संसार में मूलतः तीन प्रकार के संबंध होते हैं। पहला कल्पित संबंध, दूसरा स्थापित संबंध और तीसरा शाश्वत संबंध। कल्पित संबंध में व्यक्ति के पास कल्पना मात्र होती है जैसे किसी बच्चे से मनोविनोद में यह कह दिया जाए कि तुम्हारा विवाह होगा द ुल् हन आएगी।

इन शब्दों को सुनकर वह केवल कल्पना ही कर सकता है लेकिन कालांतर में जब उसका विवाह होता है तो वह कल्पित संबंध वैवाहिक बंधन के बाद स्थापित संबंध बन जाता है। तीसरा संबंध है उस शाश्वत परमात्मा से जुड़ाव का जो साक्षी बनकर सभी के अंतःकरण में विराजमान रहता है। यदि मनुष्य की दृष्टि उस शाश्वत परमात्मा को पहचानने वाली हो जाती है तो हमारे समस्त सांसारिक संबंधों में मधुरता आ जाती है। समस्त जीवन संवर जाता है। मेरा-तेरा का भेदपूर्ण व्यवहार अपने आप समाप्त हो जाता है। संसार ऐसी स्थिति में सुखद बन जाता है।

इसके विपरीत जब हम कल्पित एवं स्थापित संबंधों को ही वास्तविक संबंध मानकर अपने अहं की पूर्ति करना चाहते हैं तो खिंचाव और तनाव पैदा होने लगता है। तब संसार दुखदायी प्रतीत होने लगता है। पंचभौतिक देह और इसके साथ स्थापित सांसारिक संबंधों की कड़ी को चेतना प्रदान करने वाले वह शाश्वत परमात्मा हमारी दृष्टि से दूर होने से जीवन में केवल नीरसता रह जाती है। प्रेम तत्व के अभाव में जीवन कटु से कटुतम होता चला जाता है।

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जीवन में जब प्रेम की प्रधानता होती है तो वह प्रेमास्पद परमात्मा हमें प्रत्येक जीव के भीतर दिखाई देने लगता है। तब हमारे लिए पंथ-मजहब देश-प्रदेश की सीमाएं बाधक नहीं रहती। वस्तुतः जब तक हम सांसारिक संबंधों को उस शाश्वत संबंध के साथ नहीं जोड़ते तभी तक भेद एवं विभेद की दीवारों में कैद रहते हैं। स्वतंत्र होते हुए भी परतंत्र रहते हैं। स्थापित संबंधों के बीच रहते हुए भी उनसे दूर बने रहते हैं। अतः संसार के समस्त संबंधों के बीच उस प्रेमास्पद परमात्मा की साक्षी भावना परम आवश्यक है।

इस प्रकार जब हमारे समस्त संबंधों के मध्य शाश्वत शक्ति परमात्मा विद्यमान रहता है तो हम सांसारिक दृष्टि से कितने ही बड़े क्यों न हो जाएँ परंतु बड़प्पन के कोरे अभिमान से दूर हम आत्म लघुता के सूक्ष्मतम प्रेम कण से ज्यादा कुछ नहीं होते। वस्तुतः आत्म लघुता की अनुभूति में परम शक्ति विद्यमान रहती है।

जो साधक एकाकी एवं अंतर्मुखी है वहीं समस्त चराचर का हितैषी है। जो व्यक्ति समस्त प्राणियों में उस शाश्वत परमात्मा का दर्शन कर लेता है वह निजी जीवन में अंतर्मुखी बन जाता है। आजकल प्रायः लोग चुप-चाप रहने वाले को अंतर्मुखी मानने की गलती कर देते हैं। कहीं-कहीं चुप-चाप रहने वाला कपटी और धूर्त प्राणी भी होता है जो घात-प्रतिघात एवं प्रतिशोध के ताने-बाने बुनने में लगा रहता है। अतः चुप रहना और अंतर्मुखी होना दोनों ही भिन्न हैं।

मनुष्य के छोटे से अंतःकरण में या तो परमात्मा ही रह सकता है या फिर अहंकार ही। एक ही स्थान पर दो परस्पर विरोधी तत्व टिक नहीं सकते अतः हमें अपने अंतःकरण को निर्मल कर परमात्मा के रहने लायक बनाना पड़ेगा। अहं के कारण व्यक्ति उस परम तत्व का अनुभव नहीं कर सकता। वस्तुतः व्यक्ति में वह सामर्थ्य भी है कि वह सर्वशक्तिमान उस शाश्वत सत्य परमात्मा से अपने को जोड़कर उसे अपने भीतर ही प्रकट कर सकता है।

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