हिंगोट युद्ध : एक ऐसी परंपरा जिसमें घायल होते हैं कई लोग

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इंदौर (मध्यप्रदेश) के पास गौतमपुरा में दीपावली के दूसरे दिन हिंगोट युद्ध खेला जाता है। कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को हिंगोट युद्ध की परंपरा निभाई जाती है। इस पारंपरिक युद्ध में प्रयोग किया जाने वाले हथियार हिंगोट होता है, जो कि एक जंगली फल है। 
 
हिंगोट युद्ध की तैयारी : आधुनिक युग के इस अग्नियुद्ध की तैयारियों के लिए गांववासी एक-डेढ़ माह पहले से ही कंटीली झाड़ियों में लगने वाले हिंगोट नामक फलों को जमा करते हैं। फिर इन फलों के बीच में बारूद भरा जाता है। इस बारूदभरे देसी बम को एक पतली-सी डंडी से बांध देसी रॉकेट का रूप दे दिया जाता है। 
 
कैसे बनाते हैं हिंगोट? : इस हथियार को हिंगोट फल के खोल में बारूद, कंकर-पत्थर भरकर बनाया जाता है। बारूद भरने के पश्चात यह हिंगोट रॉकेट की तरह उड़ान भरता है। इस युद्ध में दो दल आमने-सामने होते हैं जिन्हें ‘कलंगी’ और ‘तुर्रा’ कहा जाता है। हालांकि इस युद्ध में किसी की हार-जीत नहीं होती किंतु दर्जनों लोग घायल जरूर हो जाते हैं। 
 
हिंगोट बनाने की प्रक्रिया बेहद खतरनाक : हिंगोट खेलने ही नहीं, बनाने की प्रक्रिया भी बेहद खतरनाक होती है। फलों में बारूद भरते समय भी छोटी-मोटी दुर्घटनाएं हो जाया करती हैं। इसके साथ युद्ध को खेलने से पहले योद्धा जमकर शराब भी पीते हैं। इससे दुर्घटना की आशंकाएं और बढ़ जाती हैं। कई बार अप्रिय‍ स्थ‍िति भी खड़ी हो जाती है। इससे बचाव के लिए यहां भारी पुलिस बल और रैपिड एक्शन फोर्स को तैनात रखा जाता है। 
 
हिंगोट युद्ध को लेकर समय-समय पर इस परंपरा का भी विरोध होता रहा है, लेकिन परंपराओं के नाम पर यह आज भी जारी है। इसे देखने के लिए दूर-दूर से लोग गौतमपुरा पहुंचते हैं। फिजा में बिखरे त्योहारी रंगों और उल्लास के बीच छिड़ने वाली इस पारंपरिक जंग में ‘कलंगी’ और ‘तुर्रा’ दल के योद्धा एक-दूसरे को धूल चटाने की भरसक कोशिश करते हैं। 
 
इस युद्ध की परंपरा के मुताबिक जिले के दो गांवों गौतमपुरा और रुणजी के बाशिंदे सूर्यास्त के तत्काल बाद एक मंदिर में दर्शन करेंगे। इसके बाद हिंगोट युद्ध की शुरुआत होती है। गौतमपुरा के योद्धाओं के दल को ‘तुर्रा’ नाम दिया जाता है, जबकि रुणजी गांव के लड़ाके ‘कलंगी’ दल की अगुवाई करते हैं। ‘हिंगोट युद्ध’ की परंपरा की शुरुआत कब और कैसे हुई, इस सिलसिले में इतिहास के प्रामाणिक दस्तावेज उपलब्ध नहीं हैं।
 
हालांकि इस बारे में ऐसी दंतकथाएं जरूर प्रचलित हैं कि रियासतकाल में गौतमपुरा क्षेत्र की सरहदों की निगहबानी करने वाले लड़ाके मुगल सेना के उन दुश्मन घुड़सवारों पर हिंगोट दागते थे, जो उनके इलाके पर हमला करते थे। गौतमपुरा में रहने वाले बुजुर्गों के मुताबिक हिंगोट युद्ध एक किस्म के अभ्यास के रूप में शुरू हुआ था और कालांतर में इससे धार्मिक मान्यताएं जुड़ती चली गईं। इन्हीं धार्मिक मान्यताओं के मद्देनजर हिंगोट युद्ध में पुलिस और प्रशासन रोड़े नहीं अटकाते, बल्कि रणभूमि के आसपास सुरक्षा एवं घायलों के इलाज के पक्के इंतजाम किए जाते हैं। हजारों दर्शकों की मौजूदगी में होने वाले इस ‘हिंगोट युद्ध’ में कई लोग घायल होते हैं। 
 
यूं हिंगोट के समय गांव में उत्सव का माहौल रहता है। गांववासी नए कपड़ों और नए साफों में खुश नजर आते हैं, लेकिन एकाएक होने वाले हादसे अकसर उनके मन में भी एक टीस छोड़ जाते हैं। इस तरह की परंपरा के बारे में आप क्या सोचते हैं? 

- राजश्री कासलीवाल 
 

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