आखिर क्या है धर्म?

अनिरुद्ध जोशी
प्रत्येक व्यक्ति धर्म की अलग-अलग परिभाषा करता है। विद्वान लोग ग्रंथों से परिभाषा निकालकर लोगों को बताते हैं और सभी की परिभाषा में विरोधाभाषा की भरमार है। हम नहीं कहेंगे की यह सब मनमानी परिभाषाएं या व्याख्याएं हैं। हम यह भी नहीं बताना चाहते हैं कि धर्म क्या है। जे. कृष्णमूर्ति कहते थे कि ज्ञान के लिए संवादपूर्ण बातचीत करो, बहस नहीं, प्रवचन नहीं। बातचीत सवालों के समाधान को खोजती है, बहस नए सवाल खड़े करती जाती है और प्रवचन एकतरफा विचार है।

क्या संप्रदाय है धर्म?
हिंदू, जैन, बौद्ध, यहूदि, ईसाई, इस्लाम और सिख को बहुत से लोग धर्म मानते हैं। इन सबके अपने अलग-अलग धार्मिक ग्रंथ भी हैं। धर्म ग्रंथों में सचमुच ही धर्म की बाते हैं? पढ़ने पर पता चलता है कि इतिहास है, नैतिकता है, राजनीति है, युद्ध है और ईश्‍वर तथा व्यक्ति विशेष का गुणगान। क्यों नहीं हम इसे किताबी धर्म कहें? जैसे कहते भी हैं कि यह सब किताबी बातें हैं।

हमने सुना था कि बिल्ली की धर्म की किताब में लिखा था कि जिस दिन आसमान से चूहों की बरसात होगी उस दिन धरती पर स्वर्ग का साम्राज्य स्थापित हो जाएगा। बिल्ली के सपने में चूहे दिखने का मतलब है कि आज का दिन शुभ है। हो सकता है कि शेर के धर्म की किताब को सबसे महान माना जाता हो। जंगल बुक के बारे में सभी जानते होंगे।

धार्मिक व्यवस्थाएं धर्म है?
 
धर्म और व्यवस्था में फर्क होता है ये बात किसी को शायद कभी समझ में आए। कहते हैं कि व्यवस्था राजनीतिक और समाज का हिस्सा है न कि धर्म का। सोचे कानून का धर्म से क्या संबंध? ‍यम और नियम धार्मिक लोगों के लिए इसलिए होते हैं कि वे स्वयं को साधकर मोक्ष या ईश्वर के मार्ग से भटके नहीं। यम-नियम राजनीति व सामाजिक व्यवस्था का हिस्सा नहीं हो सकते।

मत है धर्म? : मत का अर्थ होता है विशिष्ट विचार। कुछ लोग इसे संप्रदाय या पंथ मानने लगे हैं, जबकि मत का अर्थ होता है आपका किसी विषय पर विचार। तो धर्म एक मत है? जबकि कहा तो यह जाता है कि धर्म मत-मतांतरों से परे है। धर्म यदि विशिष्ट विचार है तो लाखों विचारों को विशिष्ठ ही माना जाता है। हर कोई अपने विचारों के प्रति आसक्त होकर उसे ही सत्य मानता है।  गिलास आधा खाली है या भरा यह सिर्फ एक नकारात्मक और सकारात्मक विचार से ज्यादा कुछ नहीं। पांच अंधे हाथी के बारे में अलग-अलग व्याख्याएं करते हैं। तो सिद्ध हुआ की विचार धर्म नहीं है।

क्या नीति, नियम, नैतिकता है धर्म? :
कुछ लोग कहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति का धर्म अलग है, जैसे राजा का धर्म है प्रजा का ध्यान रखना। सैनिक का धर्म है युद्ध लड़ना, व्यापारी का धर्म है व्यापार करना। जब हम धर्म की परिभाषा इस तरह से करते हैं तो सवाल उठता है कि क्या चोर का धर्म है चोरी करना?

 
फिर तर्क दिया जा सकता है कि नहीं, जो नीति-नियम सम्मत् आचरण है वही धर्म है। अर्थात नैतिकता का ध्यान रखा जाना जरूरी है, तो सिद्ध हुआ की नीति ही धर्म है? श्रेष्ठ आचरण ही धर्म है? यदि ऐसा है ‍तो दांत साफ करना नैतिकता है, लेकिन दांत साफ करना हिंसा भी है, क्योंकि इससे हजारों किटाणुओं की मृत्यु हो जाती है। जो आपके लिए नैतिकता है वह हमारे लिए अनैतिकता हो सकती है। 

धर्म के लिए हजारों लोगों की हत्या भी कर दी जाए तो वह नीति है उसे आप धर्मयुद्ध कहते हैं। तब हम कैसे मान लें की नीति या नैतिकता ही धर्म है? या फिर आप नैतिकता के नाम पर जो-जो गलत है उसे अलग हटाइए।

क्या स्वभाव और गुण है धर्म? :
दूसरे ज्ञानी? कहते हैं कि धर्म की परिभाषा इस तरह नहीं की जा सकती। वे कहते हैं कि आग का धर्म है जलना, धरती का धर्म है धारण करना और जन्म देना, हवा का धर्म है जीवन देना उसी तरह प्रत्येक व्यक्ति का धर्म गुणवाचक है। अर्थात गुण ही है धर्म। इसका मतलब की बिच्छू का धर्म है काटना, शेर का धर्म है मारना।

तब प्रत्येक व्यक्ति के गुण और स्वभाव को ही धर्म माना जाएगा। यदि कोई हिंसक है तो उसका धर्म है हिंसा करना। और फिर तब यह क्यों ‍नहीं मान लिया जाता है कि चोर का स्वभाव है चोरी करना? यदि बिच्छू का धर्म काटना नहीं है तो फिर बिच्छू को धर्म की शिक्षा दी जानी चाहिए और उसे भी नैतिक बनाया जाना चाहिए?

कुछ लोग कहते हैं धर्म का अर्थ है कि जो सबको धारण किए हुए है अर्थात धारयति- इति धर्म:!। अर्थात जो सबको संभाले हुए है। सवाल उठता है कि कौन क्या धारण किए हुए हैं? धारण करना सही भी हो सकता है और गलत भी।

संस्कार है धर्म? : कुछ लोग कहते हैं कि धार्मिक संस्कारों से ही धर्म की पहचान है अर्थात संस्कार ही धर्म है। संस्कार से ही संस्कृति और धर्म का जन्म होता है। संस्कार ही सभ्यता ही निशानी है। संस्कारहीन व्यक्ति पशुवत और असभ्य है।

तब जनाब हम कह सकते हैं कि किसी देश या सम्प्रदाय में पशु की बलि देना संस्कार है, शराब पीना संस्कार है और अधिक स्त्रियों से शादी करना संस्कार है तो क्या यह धर्म का हिस्सा है। हमने ऐसे भी संस्कार देखे हैं जिन्हें दूसरे धर्म के लोग रुढ़ी मानकर कहते हैं कि यह असभ्यता की निशानी है। दरअसल संस्कारों का होना ही रूढ़ होना है!

ज्ञानीजन कहते हैं कि धर्म तो सभी तरह के संस्कारों से मुक्ति दिलाने का मार्ग है तो फिर संस्कारों को धर्म कैसे माना जा सकता है। कल के संस्कार आज रूढ़ी है और आज के संस्कार कल रूढ़ी बन जाएंगे। हिंन्दुस्तान में कितने ब्राह्मण हैं जो जनेऊ धारण करते हैं, चंदन का तिलक लगाकर चोटी रखते हैं? पूरा पश्चिम अपने संस्कार और परिधान छोड़ चुका है तो फिर हिन्दुस्तान को भी छोड़ना जरूरी है? संस्कार पर या संस्कार की परिभाषा पर सवाल उठाए जा सकते हैं।

तब धर्म क्या है? :
यदि मार्क्सवादियों से पूछो की धर्म क्या है तो वे कहेंगे कि 'अफीम का नशा' लेकिन यहां कहना होगा कि मानवता को शोषित करने का एक मार्क्सवादी सभ्य तरीका। वे कहते हैं कि धर्म कभी प्रगतिशील हो ही नहीं सकता, जबकि उन्होंने हर तरह की प्रगति में रोढ़े अटकाएं हैं।

धर्मनिर्पेक्षवादियों से पूछो की धर्म क्या है तो वे कहेंगे दरिद्र नारायणों की सेवा करना धर्म है और यह भी कि हमें साम्प्रदायिक शक्तियों को देश पर काबिज नहीं होने देना हैं। पिछले 64 साल से वे दरिद्र नारायणों की सेवा कर रहे हैं, लेकिन द्ररिद्र अभी भी क्यों दरिद्र बने हुए हैं? दरिद्रों को नारायण कहना क्या शोषण करने की सुविधा जुटाना नहीं हैं?

कथित साम्प्रदायिक शक्तियों से पूछो की धर्म क्या हैं तो शायद वे कहेंगे कि हम साम्प्रदायिक नहीं राष्ट्रवादी है और सर्वधर्म समभाव की भावना रखना ही धर्म है।

अब हम बात करते हैं साम्प्रदायिकों और कट्टरपंथियों की। पहला दूसरे के खिलाफ क्यों हैं? क्योंकि दूसरा पहले के खिलाफ है। हमारे धर्म में जो लिखा है वह तुम्हारे धर्म से कहीं ज्यादा महान, सच्चा और पवित्र है। जबकि उन्होंने दूसरे के धर्म को पढ़ा ही नहीं हो फिर भी वे दावे के साथ अपने धर्मग्रंथों को दूसरे के धर्मग्रंथों से महान बताते हैं।

क्या यह है धर्म...
धर्म एक रहस्य है, संवेदना है, संवाद है और आत्मा की खोज है। धर्म स्वयं की खोज का नाम है। जब भी हम धर्म कहते हैं तो यह ध्वनीत होता है कि कुछ है जिसे जानना जरूरी है। कोई शक्ति है या कोई रहस्य है। धर्म है अनंत और अज्ञात में छलांग लगाना। धर्म है जन्म, मृत्यु और जीवन को जानना।

धर्म का मर्म :
' रहस्य' यह है कि सभी आध्‍यात्मिक पुरुषों ने अपने-अपने तरीके से आत्मज्ञान प्राप्त करने और नैतिक रूप से जीने के मार्ग बताए थे। असल में धर्म का अर्थ सत्य, अहिंसा, न्याय, प्रेम, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और मुक्ति का मार्ग माना जाता है। लेकिन गुरु घंटालों और मुल्ला-मौलवियों की भरमार ने धर्म के अर्थ को अधर्म का अर्थ बनाकर रख दिया है।

आप लाख कितना ही किसी को भी समझाओं की दुनिया के सारे संप्रदाय एक ही तरह की शिक्षा देते हैं। उनका का इतिहास भी सम्मलित है, लेकिन फिर भी वे दूसरे के संप्रदाय से नफरत ही रखेंगे। इसका सीधा सा कारण है प्रत्येक अधार्मिक व्यवस्थाओं को धर्म मान लिया गया है।

हिन्दू धर्म में धर्म को एक जीवन को धारण करने, समझने और परिष्कृत करने की विधि बताया गया है। धर्म को परिभाषित करना उतना ही कठिन है जितना ईश्वर को। दुनिया के तमाम विचारकों ने -जिन्होंने धर्म पर विचार किया है, अलग-अलग परिभाषाएं दी हैं। इस नजरिए से वैदिक ऋषियों का विचार सबसे ज्यादा उपयुक्त लगता है कि सृष्टि और स्वयं के हित और विकास में किए जाने वाले सभी कर्म धर्म हैं।
Show comments

Bhagwat katha benefits: भागवत कथा सुनने से मिलते हैं 10 लाभ

Vaishakha amavasya : वैशाख अमावस्या पर स्नान और पूजा के शुभ मुहूर्त

Dhan yog in Kundali : धन योग क्या है, करोड़पति से कम नहीं होता जातक, किस्मत देती है हर जगह साथ

Akshaya tritiya 2024 : 23 साल बाद अक्षय तृतीया पर इस बार क्यों नहीं होंगे विवाह?

Varuthini ekadashi: वरुथिनी एकादशी का व्रत तोड़ने का समय क्या है?

Guru asta 2024 : गुरु हो रहा है अस्त, 4 राशियों के पर्स में नहीं रहेगा पैसा, कर्ज की आ सकती है नौबत

Nautapa 2024 date: कब से लगने वाला है नौतपा, बारिश अच्‍छी होगी या नहीं?

Akshaya tritiya 2024: अक्षय तृतीया की पौराणिक कथा

कालाष्टमी 2024: कैसे करें वैशाख अष्टमी पर कालभैरव का पूजन, जानें विधि और शुभ समय

Aaj Ka Rashifal: राशिफल 01 मई: 12 राशियों के लिए क्या लेकर आया है माह का पहला दिन

अगला लेख