कर्मानुसार फल भोगने का सिद्धांत अकाट्य

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- विद्या व्या स

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मनुष्य की पहचान कर्मों से होती है। श्रेष्ठ कर्मों से वह श्रेष्ठ बनता है, हेय और निकृष्ट कर्मों से पतित। कर्मानुसार फल भोगने का सिद्धांत अकाट्य है। भारतीय संस्कृति कर्म फल में विश्वास करती है। मनुष्य जो कुछ प्राप्त करता है, वह उसके कर्म का ही फल है।

जब हम प्रकृति की ओर दृष्टि डालते हैं तो देखते हैं कि सूर्य समय पर उगता है और समय पर छिपता है। ग्रह-नक्षत्र सब अपनी गति से घूम रहे हैं, पृथ्वी अपनी गति से घूम रही है। रात-दिन के क्रम में कभी व्यतिक्रम नहीं होता। यह सब देखने से तो यह निष्कर्ष निकलता है कि सृष्टिकर्ता सिद्धांतों और नीति-नियमों के सहारे ही सृष्टि संचालन करता है। फिर मनुष्यों में कोई सुखी और कोई दुःखी क्यों?

इसका एक ही उत्तर है प्रकृति निर्विकार है और मनुष्य विकारी। प्रकृति में कोई मिलावट नहीं है जबकि मनुष्य ने अपनी मूल प्रकृति में दोष, दुर्गुणों और कुकर्मों की मिलावट कर ली है। जिसने स्वयं को जितना कुकर्मी बनाया है, वह उतना ही दुःखी हुआ और जिसने सत्कर्मों का मार्ग पकड़ा वह उतना ही प्रगतिशील होता गया।

मनुष्य की उन्नति और अवनति के मूल में उसके कर्म की ही प्रधानता है। जैसे-जैसे हम कर्म करते जाते हैं अभ्यास बढ़ता जाता है, वैसे ही वैसे हमारे मन पर हमारे द्वारा किए गए शुभ और अशुभ कर्मों की रेखाएँ अंकित होती जाती हैं। उन्हीं के अनुरूप रुझान पैदा होता जाता है। फिर हम उसी रास्ते पर चल पड़ते हैं। वैसे ही कर्मों में हमारी रुचि बढ़ती जाती है। संगी-साथी, सहयोगी भी हमें ऐसे ही विचार वाले मिलते हैं।

पूरा जीवन इसी ढर्रे पर कटता है। मरते समय भी ऐसे ही विचार सूक्ष्म शरीर के साथ चले जाते हैं। यहाँ यह भी समझना उचित होगा कि मृत्यु के उपरांत केवल हाड़-मांस का शरीर ही भस्मीभूत होता है उसमें से मन और आत्मा अपने संस्कारों को साथ लेकर पहले ही विदा हो चुके होते हैं। जब पुनर्जन्म होता है तो पिछले संस्कार साथ होते हैं। कर्म का फल मनुष्य को भोगना ही पड़ता है। कहा गया है- ' जो जस किया सो तस फल चाखा।'

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