इस संबंध में एक जन प्रचलित कथा है कि एक बार श्रीकृष्ण अचानक नींद में राधे-राधे कहने लगे तो श्रीकृष्ण की आठों पत्नियां चौंक गई और सोचने लगे कि भगवान अभी तक राधा को नहीं भले हैं। सभी ने मिलकर माता रोहिणी से इस संबंध मैं विचार किया और उनसे राधा और कृष्ण की रासलीला के बारे में कथा सुनाने का आग्रह किया।
हठ करने के बाद माता रोहिणी ने कहा कि ठीक है सुनो लेकिन पहले सुभद्रा को द्वार पर पहरे पर बिठा तो ताकि कोई भीतर प्रवेश न कर पाए फिर वह चाहे बलराम हो या कृष्ण। सुभद्रा पहरा देने लगी और भीत माता रोहिणी आठों भार्या को कृष्ण और राधा की कथा सुनाने लगी।
उसी दौरान बलराम और श्रीकृष्ण द्वार पर पहुंच जाते हैं। द्वार पर ही खड़ी सुभद्रा भी यह कथा बड़े ध्यान से सुन रही थी। श्रीकृष्ण और बलराम के आने पर सुभद्रा ने उचित कारण बता कर दरवाजे पर ही उन्हें रोक लिया। महल के अंदर से श्रीकृष्ण और राधा की रासलीला की कथा श्रीकृष्ण और बलराम दोनों को ही सुनाई दे रही थी। तीनों ही उस कथा को भाव विह्वल होकर सुनने लगे। तीनों की ही ऐसी अवस्था हो गई कि पूरे ध्यान से देखने पर भी किसी के भी हाथ-पैर आदि स्पष्ट नहीं दिखाई देते थे। तभी वहां अकस्मात देवऋषि नारद आ धमके। उन्होंने दे तीनों को ऐसी अवस्था देखी तो वे देखते ही रह गए। तीनों पूर्ण चेतना में वापस लौटे। नारद जी ने भगवान कृष्ण से प्रार्थना की कि हे भगवान आप तीनों के जिस महाभाव में लीन मूर्तिस्थ रूप के मैंने दर्शन किए हैं, वह सामान्य जनों के दर्शन हेतु पृथ्वी पर सदैव सुशोभित रहे। प्रभु ने तथास्तु कह दिया। कहते हैं कि तभी से भगवान कृष्ण, बलराम और सुभद्र जी का वही स्वरूप आज भी जगन्नाथपुरी में विद्यमान है। उसे सर्व प्रथम स्वयं विश्वकर्मा जी ने बनाया था।
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इसी वरदान के चलते बाद में राजा इंद्रद्युम्न एक कारिगर से यह तीनों मूर्तियां बनवाई थीं। तीनों लोक के कुशल कारीगर भगवान विश्वकर्मा एक बूढ़े व्यक्ति का रूप धरकर आए। उन्होंने राजा को कहा कि वे नीलमाधव की मूर्ति बना सकते हैं, लेकिन साथ ही उन्होंने अपनी शर्त भी रखी कि वे 21 दिन में मूर्ति बनाएंगे और अकेले में बनाएंगे। कोई उनको बनाते हुए नहीं देख सकता। उनकी शर्त मान ली गई। लोगों को आरी, छैनी, हथौड़ी की आवाजें आती रहीं। राजा इंद्रदयुम्न की रानी गुंडिचा अपने को रोक नहीं पाई। वह दरवाजे के पास गई तो उसे कोई आवाज सुनाई नहीं दी। वह घबरा गई। उसे लगा बूढ़ा कारीगर मर गया है। उसने राजा को इसकी सूचना दी। अंदर से कोई आवाज सुनाई नहीं दे रही थी तो राजा को भी ऐसा ही लगा। सभी शर्तों और चेतावनियों को दरकिनार करते हुए राजा ने कमरे का दरवाजा खोलने का आदेश दिया।
जैसे ही कमरा खोला गया तो बूढ़ा व्यक्ति गायब था और उसमें 3 अधूरी मूर्तियां मिली पड़ी मिलीं। भगवान नीलमाधव और उनके भाई के छोटे-छोटे हाथ बने थे, लेकिन उनकी टांगें नहीं, जबकि सुभद्रा के हाथ-पांव बनाए ही नहीं गए थे। राजा ने इसे भगवान की इच्छा मानकर इन्हीं अधूरी मूर्तियों को स्थापित कर दिया। तब से लेकर आज तक तीनों भाई बहन इसी रूप में विद्यमान हैं।