हास्य कविता : पगला गए...

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- जयचन्द प्रजापति



 


एक दिन हम पगला गए 
22 वर्षीय युवती देखकर
नयनों में चमक थी
अंगड़ाई भी गजब की थी
श्रृंगार रस से परिपूर्ण थी
जवानी अलबेली थी
मेरी कविता सुन
मेरे पीछे पड़ गई थी
देख के नजरों की हरियाली से
चिहुंका
बीबी को मायके का रास्ता दिखा दिया
बच्चों को अनाथालय भिजवा दिया
जी बार-बार ललचा रहा था
उसकी नव यौवना को देखकर
एक मौका ढूंढ रहा था
मम्मी को तीरथ का टिकट दिया निकाल
मौका था आली शान
घर का पता बता दिया
रात अंधेरी थी 
बात हो गई थी
पिया मिलन की बेला थी
शाम होते ही आ टपकी
प्रेम रस में पगी थी
नशीली हवा थी
घर के कोने-कोने से
मुलाकात करा दिया
मेरी जवानी पर आशिक थी
सोचा 
आज मेरी किस्मत जगी है
गालों को सहला कर
नशे की दवा सूंघाकर
साफ कर दिया सारा माल
सुबह जगा तो
बुरा था हाल
मच गया हल्ला
खुल गई पोल
बिरादरी में नाक कटी
जवानी का नशा गया उतर।
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