प्रेम कविता : उनकी चाहत

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- जयशंकर प्रसाद द्विवेदी 



चुहुलकदमी का खुमार
उन्हें भी है 
इन्हें भी है 
हमें भी है 
साथ ही औरों को भी। 
 
लेकिन 
उनकी चुहुलकदमी में 
अपने को स्वतंत्र 
जताने की ललक है 
जबकि औरों में 
उनकी मुस्कुराहट पर 
कसक भरने की चाहत। 
 
कुछ देर पहले तक 
वे उचक रहे थे 
अब चिपककर बैठे हैं 

शायद वे यही चाहते थे
क्योंकि 
उनकी यही कमजोरी है। 
 
हम 
उन्हें इस तरह देखकर भी
जल-भुन भी नहीं सकते
आज के मायने में 
सभ्यता की सार्थक पहचान 
वे ही हैं 
 
या फिर उन्होंने 
स्वतंत्रता की यही परिभाषा 
गढ़ रखी हो। 
 
उनकी बदलती लिबासें 
और उनके जलवे
समय को अंगूठा दिखा रहे हैं
 
नैतिकता की बात करने वाली गोष्ठी 
खीसें निपोर रही है 
शायद वे दोनों
एक-दूसरे को
सबक सिखा रहे हैं। 
 
कभी-कभी ऐसा लगता है 
वे एक-दूसरे को
अपनी जात बता रहे हैं 
 
औरों के सामने
बैठे-बैठे मुस्कुरा रहे हैं 
साथ ही साथ 
वे दोनों बुला भी रहे हैं 
 
सभी को 
अपनी झिझक उतारने के लिए 
क्योंकि
उनकी यही चाहत है। 
 
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