प्राचीन भारत के 10 दैवीय प्राणी, जानिए...

अनिरुद्ध जोशी
भगवान श्रीराम और उनके पूर्व का काल प्राणियों की विचित्रताओं और भिन्नताओं का काल था। इस काल में धरती पर विचित्र किस्म के लोग और प्रजातियां रहती थीं, लेकिन प्राकृतिक आपदा या अन्य कारणों से ये प्रजातियां अब लुप्त हो गई हैं।
 

 
प्रतीकात्मक फोटो...
आज यह समझ पाना मुश्‍किल है कि कोई पक्षी कैसे बोल सकता है, जबकि वैज्ञानिक अब पक्षियों की भाषा समझने में सक्षम हो रहे हैं। आज यह भी समझ से परे है कि कोई विचित्र प्राणी या पशु कैसे बोल सकता है और किस तरह मानव समूह के साथ रहकर अपना जीवन-यापन कर सकता है?
 
प्राचीनकाल में बंदर, भालू आदि की आकृति के मानव होते थे। इसी तरह अन्य कई प्रजातियां थीं, जो मानवों के संपर्क में थीं। आओ जानते हैं ऐसे ही 10 पौराणिक प्राणियों के बारे में जिनके बारे में जानकर आप रह जाएंगे हैरान। 
 
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कामधेनु गाय : विष के बाद मथे जाते हुए समुद्र के चारों ओर बड़े जोर की आवाज उत्पन्न हुई। देव और असुरों ने जब सिर उठाकर देखा तो पता चला कि यह साक्षात सुरभि कामधेनु गाय थी। इस गाय को काले, श्वेत, पीले, हरे तथा लाल रंग की सैकड़ों गौएं घेरे हुई थीं।
कामधेनु गाय की उत्पत्ति भी समुद्र मंथन से हुई थी। यह एक चमत्कारी गाय होती थी जिसके दर्शन मात्र से ही सभी तरह के दु:ख-दर्द दूर हो जाते थे। दैवीय शक्तियों से संपन्न यह गाय जिसके भी पास होती थी उससे चमत्कारिक लाभ मिलता था। इस गाय का दूध अमृत के समान माना जाता था। श्रीराम के पूर्व परशुराम के समकालीन ऋषि वशिष्ठ के पास कामधेनु गाय थी।
 
हिन्दू धर्म में गाय को क्यों पवित्र माना जाता है?
 
 
यह कामधेनु गाय सबसे पहले वरुणदेव के पास थी। कश्यप ने वरुण से कामधेनु मांगी थी, लेकिन बाद में लौटाई नहीं। अत: वरुण के शाप से वे अगले जन्म में ग्वाले हुए। यह कामधेनु गाय अंत में ऋषि वशिष्ठ के पास थी।
 
कामधेनु के लिए गुरु वशिष्ठ से विश्वामित्र सहित कई अन्य राजाओं ने कई बार युद्ध किया, लेकिन उन्होंने कामधेनु गाय को किसी को भी नहीं दिया। गाय के इस झगड़े में गुरु वशिष्ठ के 100 पुत्र मारे गए थे। अंत में यह गाय ऋषि परशुराम ने ले ली थी।
 
गाय हिन्दुओं के लिए सबसे पवित्र पशु है। इस धरती पर पहले गायों की कुछ ही प्रजातियां होती थीं। उससे भी प्रारंभिक काल में एक ही प्रजाति थी। माना जाता है कि आज से लगभग 9,500 वर्ष पूर्व गुरु वशिष्ठ ने गाय के कुल का विस्तार किया और उन्होंने गाय की नई प्रजातियों को भी बनाया, तब गाय की 8 या 10 नस्लें ही थीं जिनका नाम कामधेनु, कपिला, देवनी, नंदनी, भौमा आदि था। कहते हैं कि सभी गायों की पीठ पर सिर से लेकर पूंछ तक एक ऐसी नाड़ी होती है जिससे स्वर्ण का उत्पादन होता रहता है। उसमें भी काली गाय की नाड़ी को सूर्यकेतु कहते हैं जिस पर प्रतिदिन हाथ फेरने से हृदयरोग नहीं होता है।
 
भारत में आजकल गाय की प्रमुख 28 नस्लें पाई जाती हैं। गायों की यूं तो कई नस्लें होती हैं, लेकिन भारत में मुख्‍यत: साहीवाल (पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, उत्तरप्रदेश, बिहार), गिर (दक्षिण काठियावाड़), थारपारकर (जोधपुर, जैसलमेर, कच्छ), करन फ्राइ (राजस्थान) आदि हैं। विदेशी नस्लों में जर्सी गाय सर्वाधिक लोकप्रिय है। यह गाय दूध भी ‍अधिक देती है। गाय कई रंगों जैसे सफेद, काली, लाल, बादामी तथा चितकबरी होती है। भारतीय गाय छोटी होती है, जबकि विदेशी गाय का शरीर थोड़ा भारी होता है।
 
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गरूड़ : माना जाता है कि गिद्धों  की एक ऐसी प्रजाति थी, जो बुद्धिमान मानी जाती थी। भगवान विष्णु का वाहन है गरूड़। गरूड़ एक शक्तिशाली, चमत्कारिक और रहस्यमयी पक्षी था। प्रजापति कश्यप की पत्नी विनता के दो पुत्र हुए- गरूड़ और अरुण। गरूड़जी विष्णु की शरण में चले गए और अरुणजी सूर्य के सारथी हुए। भगवान गरूड़ के नाम पर एक पुराण भी है जिसे 'गरूड़ ‍पुराण' कहते हैं। पुराणों में गरूड़ की शक्ति और महिमा का वर्णन मिलता है।
 
जब रावण के पुत्र मेघनाथ ने श्रीराम से युद्ध करते हुए श्रीराम को नागपाश से बांध दिया था, तब देवर्षि नारद के कहने पर गिद्धराज गरूड़ ने नागपाश के समस्त नागों को खाकर श्रीराम को नागपाश के बंधन से मुक्त कर दिया था। भगवान राम के इस तरह नागपाश में बंध जाने पर श्रीराम के भगवान होने पर गरूड़ को संदेह हो गया।
 
गरूड़ का संदेह दूर करने के लिए देवर्षि नारद उन्हें ब्रह्माजी के पास भेज देते हैं। ब्रह्माजी उनको शंकरजी के पास भेज देते हैं। भगवान शंकर ने भी गरूड़ को उनका संदेह मिटाने के लिए काकभुशुण्डिजी नाम के एक कौवे के पास भेज दिया। अंत में काकभुशुण्डिजी ने राम के चरित्र की पवित्र कथा सुनाकर गरूड़ के संदेह को दूर किया।
 
लोमश ऋषि के शाप के चलते काकभुशुण्डि कौवा बन गए थे। लोमश ऋषि ने शाप से मु‍क्त होने के लिए उन्हें राम मंत्र और इच्छामृत्यु का वरदान दिया। कौवे के रूप में ही उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन व्यतीत किया। वाल्मीकि से पहले ही काकभुशुण्डि ने रामायण गिद्धराज गरूड़ को सुना दी थी। इससे पूर्व हनुमानजी ने संपूर्ण रामायण पाठ लिखकर समुद्र में फेंक दी थी। वाल्मीकि श्रीराम के समकालीन थे और उन्होंने रामायण तब लिखी, जब रावण-वध के बाद राम का राज्याभिषेक हो चुका था।
 
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सम्पाती और जटायु : ये दोनों पक्षी राम के काल में थे। प्रजापति कश्यप की पत्नी विनता के 2 पुत्र हुए- गरूड़ और अरुण। गरूड़जी विष्णु की शरण में चले गए और अरुणजी सूर्य के सारथी हुए। सम्पाती और जटायु इन्हीं अरुण के पुत्र थे।
 
पुराणों के अनुसार सम्पाती बड़ा था और जटायु छोटा। ये दोनों विंध्याचल पर्वत की तलहटी में रहने वाले निशाकर ऋषि की सेवा करते थे। सम्पाती और जटायु ये दोनों भी दंडकारण्य क्षेत्र में रहते थे, खासकर मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ में इनकी जाति के पक्षियों की संख्या अधिक थी। छत्तीसगढ़ के दंडकारण्य में गिद्धराज जटायु का मंदिर है। स्थानीय मान्यता के मुताबिक दंडकारण्य के आकाश में ही रावण और जटायु का युद्ध हुआ था और जटायु के कुछ अंग दंडकारण्य में आ गिरे थे इसीलिए यहां एक मंदिर है।
 
दूसरी ओर मध्यप्रदेश के देवास जिले की बागली तहसील में 'जटाशंकर' नाम का एक स्थान है जिसके बारे में कहा जाता है कि गिद्धराज जटायु वहां तपस्या करते थे। जटायु पहला ऐसा पक्षी था, जो राम के लिए शहीद हो गया था। जटायु का जन्म कहां हुआ, यह पता नहीं, लेकिन उनकी मृत्यु दंडकारण्य में हुई। खैर...!
 
कहते हैं कि बचपन में सम्पाती और जटायु ने सूर्य-मंडल को स्पर्श करने के उद्देश्य से लंबी उड़ान भरी। सूर्य के असह्य तेज से व्याकुल होकर जटायु तो बीच से लौट आए, किंतु सम्पाती उड़ते ही गए। सूर्य के निकट पहुंचने पर सूर्य के ताप से सम्पाती के पंख जल गए और वे समुद्र तट पर गिरकर चेतनाशून्य हो गए। चन्द्रमा नामक मुनि ने उन पर दया करके उनका उपचार किया और त्रेता में श्री सीताजी की खोज करने वाले वानरों के दर्शन से पुन: उनके पंख जमने का आशीर्वाद दिया। खैर...!
 
जब जटायु नासिक के पंचवटी में रहते थे तब एक दिन आखेट के समय महाराज दशरथ से उनकी मुलाकात हुई और तभी से वे और दशरथ-मित्र बन गए। वनवास के समय जब भगवान श्रीराम पंचवटी में पर्णकुटी बनाकर रहने लगे, तब पहली बार जटायु से उनका परिचय हुआ।
 
जटायु के बाद रास्ते में सम्पाती के पुत्र सुपार्श्व ने सीता को ले जा रहे रावण को रोका और उससे युद्ध के लिए तैयार हो गया। किंतु रावण उसके सामने गिड़गिड़ाने लगा और इस तरह वह वहां से बचकर निकल आया। बाद में जब अंगद आदि सीता की खोज करते हुए सम्पाती से मिले तो उन्होंने जटायु की मृत्यु का समाचार दिया। सम्पाती ने तब अंगद को रावण द्वारा सीताहरण की पुष्टि की और अपनी दूरदृष्टि से देखकर बताया कि वे अशोक वाटिका में सुरक्षित बैठी हैं। इस प्रकार रामकथा में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले गिद्ध-बंधु सम्पाती और जटायु अमर हो गए।
 
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उच्चैःश्रवा घोड़ा : घोड़े तो कई हुए लेकिन श्वेत रंग का उच्चैःश्रवा घोड़ा सबसे तेज और उड़ने वाला घोड़ा माना जाता था। अब इसकी कोई भी प्रजाति धरती पर नहीं बची। यह इंद्र के पास था। उच्चै:श्रवा का पोषण अमृत से होता है। यह अश्वों का राजा है। उच्चै:श्रवा के कई अर्थ हैं, जैसे जिसका यश ऊंचा हो, जिसके कान ऊंचे हों अथवा जो ऊंचा सुनता हो।
 
समुद्र मंथन के दौरान निकले उच्चै:श्रवा घोड़े को दैत्यराज बलि ने ले रख लिया था।
 
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ऐरावत हाथी : हाथी तो सभी अच्‍छे और सुंदर नजर आते हैं लेकिन सफेद हाथी को देखना अद्भुत है। ऐरावत सफेद हाथियों का राजा था। 'इरा' का अर्थ जल है अत: 'इरावत' (समुद्र) से उत्पन्न हाथी को 'ऐरावत' नाम दिया गया है। हालांकि इरावती का पुत्र होने के कारण ही उनको 'ऐरावत' कहा गया है।
 
यह हाथी देवताओं और असुरों द्वारा किए गए समुद्र मंथन के दौरान निकली 14 मूल्यवान वस्तुओं में से एक था। मंथन से प्राप्त रत्नों के बंटवारे के समय ऐरावत को इन्द्र को दे दिया गया था। 4 दांतों वाला सफेद हाथी मिलना अब मुश्किल है।
 
महाभारत, भीष्म पर्व के अष्टम अध्याय में भारतवर्ष से उत्तर के भू-भाग को उत्तर कुरु के बदले 'ऐरावत' कहा गया है। जैन साहित्य में भी यही नाम आया है। उत्तर का भू-भाग अर्थात तिब्बत, मंगोलिया और रूस के साइबेरिया तक का हिस्सा। हालांकि उत्तर कुरु भू-भाग उत्तरी ध्रुव के पास था संभवत: इसी क्षेत्र में यह हाथी पाया जाता रहा होगा।
 
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शेषनाग : भारत में पाई जाने वाली नाग प्रजातियों और नाग के बारे में बहुत ज्यादा विरोधाभास नहीं है। सभी कश्यप ऋषि की संतानें हैं। पुराणों के अनुसार कश्मीर में कश्यप ऋषि का राज था। आज भी कश्मीर में अनंतनाग, शेषनाग आदि नाम से स्थान हैं। शेषनाग ने भगवान विष्णु की शैया बनना स्वीकार किया था।
 
ऋषि कश्यप का कुल
 
कश्यप ऋषि की पत्नी कद्रू से उन्हें 8 पुत्र मिले जिनके नाम क्रमश: इस प्रकार हैं- 1. अनंत (शेष), 2. वासुकि, 3. तक्षक, 4. कर्कोटक, 5. पद्म, 6. महापद्म, 7. शंख और 8. कुलिक। कश्मीर का अनंतनाग इलाका अनंतनाग समुदायों का गढ़ था उसी तरह कश्मीर के बहुत सारे अन्य इलाके भी दूसरे पुत्रों के अधीन थे।
 
शेषनाग सारी सृष्टि के विनाश के पश्चात भी बचे रहते हैं इसीलिए इनका नाम 'शेष' हैं। शेषनाग के हजार मस्तक हैं और वे स्वर्ण पर्वत पर रहते हैं। वे नील वस्त्र धारण करते हैं। लक्ष्मण और बलराम को शेषनाग का ही अवतार माना जाता है। विष्णु की तरह शेषनाग के भी कई अवतार हैं। पुराणों में इन्हें सहस्रशीर्ष या 100 फन वाला कहा गया है।
 
पौराणिक कथा के अनुसार कद्रू के बेटों में सबसे पराक्रमी शेषनाग थे लेकिन वे अपनी माता और भाइयों के व्यवहार से रुष्ट रहते थे, क्योंकि उनका शरीर नाग के समान था। वे सभी को छोड़कर गंधमादन पर्वत पर तपस्या करने चले गए थे। उनकी इच्छा थी कि वे इस शरीर का त्याग कर दें। मां, भाइयों तथा सौतेले भाइयों अरुण और गरुड़ के प्रति द्वेषभाव ही उनकी सांसारिक विरक्ति का कारण था। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा ने उन्हें वरदान दिया कि उनकी बुद्धि सदैव धर्म में लगी रहे। साथ ही ब्रह्मा ने उन्हें आदेश दिया कि वे पृथ्वी को अपने फन पर संभालकर धारण करें जिससे कि वह हिलना बंद कर दे तथा स्थिर रह सके। शेषनाग के पृथ्वी के नीचे जाते ही नागों ने उसके छोटे भाई वासुकि का राज्यतिलक कर दिया था।
 
दस फन वाला सांप : सभी जीव-जंतुओं में गाय के बाद सांप ही एक ऐसा जीव है जिसका हिन्दू धर्म में ऊंचा स्थान है। सांप एक रहस्यमय प्राणी है। देशभर के गांवों में आज भी लोगों के शरीर में नागदेवता की सवारी आती है। भारत में नागों की पूजा के प्रचलन के पीछे कई रहस्य छिपे हुए हैं। माना जाता है कि नागों की एक सिद्ध और चमत्कारिक प्रजाति हुआ करती थी, जो मानवों की सभी मनोकामना पूर्ण कर देती थी। उल्लेखनीय है कि नाग और सर्प में फर्क है। सभी नाग कद्रू के पुत्र थे जबकि सर्प क्रोधवशा के।
 
पौराणिक कथाओं के अनुसार पाताल लोक में कहीं एक जगह नागलोक था, जहां मानव आकृति में नाग रहते थे। कहते हैं कि 7 तरह के पाताल में से एक महातल में ही नागलोक बसा था, जहां कश्यप की पत्नी कद्रू और क्रोधवशा से उत्पन्न हुए अनेक सिरों वाले नाग और सर्पों का एक समुदाय रहता था। उनमें कहुक, तक्षक, कालिया और सुषेण आदि प्रधान नाग थे। 
 
नागकन्या : कुंती पुत्र अर्जुन ने पाताल लोक की एक नागकन्या से विवाह किया था जिसका नाम उलूपी था। वह विधवा थी। अर्जुन से विवाह करने के पहले उलूपी का विवाह एक बाग से हुआ था जिसको गरूड़ ने खा लिया था। अर्जुन और नागकन्या उलूपी के पुत्र थे अरावन जिनका दक्षिण भारत में मंदिर है और हिजड़े लोग उनको अपना पति मानते हैं। भीम के पुत्र घटोत्कच का विवाह भी एक नागकन्या से ही हुआ था जिसका नाम अहिलवती था ‍और जिसका पुत्र वीर योद्धा बर्बरीक था। वर्तमान में इच्छाधारी नाग और नागिन की कहानियां प्रचलन में हैं। 
 
प्राचीनकाल में नागों पर आधारित नाग प्रजाति के मानव कश्मीर में निवास करते थे। आज भी कश्मीर के बहुत से स्थानों के नाम नागकुल के नामों पर ही आधारित हैं, जैसे अनंतनाग शहर, शेषनाग झील। बाद में ये सभी नागकुल के लोग झारखंड और छत्तीसगढ़ में आकर बस गए थे, जो उस काल में दंडकारण्य कहलाता था।
 
वर्तमान में 2 और 5 फन वाले नाग पाए जाते हैं, लेकिन 10 फनों के नागों की प्रजाति अब लुप्त हो गई है। कुछ वर्षों पूर्व झारखंड के पूर्वी सिंहभूम जिले के चांडिल प्रखंड में 10 फन वाले शेषनाग देखे जाने की चर्चा जोरों पर थी। बताया जा रहा है कि इस शेषनाग को बीते कुछ दिनों में कई ग्रामीणों ने देखा था। इस तरह हैदराबाद में एक 5 फन वाला नाग देखा गया जिसका लोगों ने चित्र खींच लिया था।
 
उड़ने वाला और इच्छाधारी नाग : माना जाता है कि 100 वर्ष से ज्यादा उम्र होने के बाद सर्प में उड़ने की शक्ति आ जाती है। सर्प कई प्रकार के होते हैं- मणिधारी, इच्‍छाधारी, उड़ने वाले, एकफनी से लेकर दसफनी तक के सांप जिसे शेषनाग कहते हैं। नीलमणिधारी सांप को सबसे उत्तम माना जाता है। इच्छाधारी नाग के बारे में कहा जाता है कि वह अपनी इच्छा से मानव, पशु या अन्य किसी भी जीव के समान रूप धारण कर सकता है। 
 
हालांकि वैज्ञानिक अब अपने शोध के आधार पर कहने लगे हैं कि सांप विश्व का सबसे रहस्यमय प्राणी है और दक्षिण एशिया के वर्षा वनों में उड़ने वाले सांप पाए जाते हैं। उड़ने में सक्षम इन सांपों को क्रोसोपेलिया जाति से संबंधित माना जाता है। वैज्ञानिकों ने 2 और 5 फन वाले सांपों के होने की पुष्‍टि की है लेकिन 10 फन वाले सांप अभी तक नहीं देखे गए हैं।
 
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मत्स्य कन्या : मत्स्य कन्या अर्थात जलपरी। भारतीय रामायण के थाई व कम्बोडियाई संस्करणों में रावण की बेटी सुवर्णमछा (सोने की जलपरी) का उल्लेख किया गया है। वह हनुमान का लंका तक सेतु बनाने का प्रयास विफल करने की कोशिश करती है, पर अंततः उनसे प्यार करने लगती है।
भारतीय दंतकथाओं में भगवान विष्णु के मत्स्यावतार का उल्लेख है जिसके शरीर का ऊपरी भाग मानव व निचला भाग मछली का है। इसी तरह चीन, अरब और ग्रीक की लोककथाओं में भी जलपरियों के सैकड़ों किस्से पढ़ने को मिलते हैं।
 
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वानर मानव : क्या हनुमानजी बंदर प्रजाति के थे? हनुमानजी का जन्म कपि नामक वानर जाति में हुआ था। नए शोधानुसार प्रभु श्रीराम का जन्म 10 जनवरी 5114 ईसा पूर्व अयोध्या में हुआ था। श्रीराम के जन्म के पूर्व हनुमानजी का जन्म हुआ था अर्थात आज से लगभग 7129 वर्ष पूर्व हनुमानजी का जन्म हुआ था। शोधकर्ता कहते हैं कि आज से 9 लाख वर्ष पूर्व एक ऐसी विलक्षण वानर जाति भारतवर्ष में विद्यमान थी, जो आज से 15 से 12 हजार वर्ष पूर्व लुप्त होने लगी थी और अंतत: लुप्त हो गई। इस जाति का नाम 'कपि' था।
 
हनुमानजी के संबंध में यह प्रश्न प्राय: सर्वत्र उठता है कि 'क्या हनुमानजी बंदर थे?' इसके लिए कुछ लोग रामायणादि ग्रंथों में लिखे हनुमानजी और उनके सजातीय बांधव सुग्रीव अंगदादि के नाम के साथ 'वानर, कपि, शाखामृग, प्लवंगम' आदि विशेषण पढ़कर उनके बंदर प्रजाति का होने का उदाहरण देते हैं। वे यह भी कहते हैं कि उनकी पुच्छ, लांगूल, बाल्धी और लाम से लंकादहन का प्रत्यक्ष चमत्कार इसका प्रमाण है। यह ‍भी कि उनकी सभी जगह सपुच्छ प्रतिमाएं देखकर उनके पशु या बंदर जैसा होना सिद्ध होता है। रामायण में वाल्मीकिजी ने जहां उन्हें विशिष्ट पंडित, राजनीति में धुरंधर और वीर-शिरोमणि प्रकट किया है, वहीं उनको लोमेश ओर पुच्छधारी भी शतश: प्रमाणों में व्यक्त किया है।
 
दरअसल, आज से 9 लाख वर्ष पूर्व मानवों की एक ऐसी जाति थी, जो मुख और पूंछ से वानर समान नजर आती थी, लेकिन उस जाति की बुद्धिमत्ता और शक्ति मानवों से कहीं ज्यादा थी। अब वह जाति भारत में तो दुर्भाग्यवश विनष्ट हो गई, परंतु बाली द्वीप में अब भी पुच्छधारी जंगली मनुष्यों का अस्तित्व विद्यमान है जिनकी पूंछ प्राय: 6 इंच के लगभग अवशिष्ट रह गई है। ये सभी पुरातत्ववेत्ता अनुसंधायक एकमत से स्वीकार करते हैं कि पुराकालीन बहुत से प्राणियों की नस्ल अब सर्वथा समाप्त हो चुकी है।
 
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रीछ मानव : रामायणकाल में रीछनुमा मानव भी होते थे। जाम्बवंतजी इसका उदाहरण हैं। जाम्बवंत भी देवकुल से थे। भालू या रीछ उरसीडे (Ursidae) परिवार का एक स्तनधारी जानवर है। हालांकि इसकी अब सिर्फ 8 जातियां ही शेष बची हैं। संस्कृत में भालू को 'ऋक्ष' कहते हैं जिससे 'रीछ' शब्द उत्पन्न हुआ है। निश्चित ही अब जाम्बवंत की जाति लुप्त हो गई है। हालांकि यह शोध का विषय है।
 
जाम्बवंत को आज रीछ की संज्ञा दी जाती है, लेकिन वे एक राजा होने के साथ-साथ इंजीनियर भी थे। समुद्र के तटों पर वे एक मचान को निर्मित करने की तकनीक जानते थे, जहां यंत्र लगाकर समुद्री मार्गों और पदार्थों का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता था। मान्यता है कि उन्होंने एक ऐसे यंत्र का निर्माण किया था, जो सभी तरह के विषैले परमाणुओं को निगल जाता था। रावण ने इस सभी रीछों के राज्य को अपने अधीन कर लिया था। जाम्बवंत ने युद्ध में राम की सहायता की थी और उन्होंने ही हनुमानजी को उनकी शक्ति का स्मरण कराया था।
 
जब युद्ध में राम-लक्ष्मण मेघनाद के ब्रह्मास्त्र से घायल हो गए थे, तब किसी को भी उस संकट से बाहर निकलने का उपाय नहीं सूझ रहा था। तब विभीषण और हनुमान जाम्बवंतजी के पास गए, तब उन्होंने हनुमानजी से हिमालय जाकर ऋषभ और कैलाश नामक पर्वत से 'संजीवनी' नामक औषधि लाने को कहा था।
 
माना जाता है कि रीछ या भालू इन्हीं के वंशज हैं। जाम्बवंत की उम्र बहुत लंबी थी। 5,000 वर्ष बाद उन्होंने श्रीकृष्ण के साथ एक गुफा में स्मयंतक मणि के लिए युद्ध किया था। भारत में जम्मू-कश्मीर में जाम्बवंत गुफा मंदिर है। जाम्बवंत की बेटी के साथ कृष्ण ने विवाह किया था।
 
अब सवाल उठता है कि क्या इंसानों के समान कोई पशु हो सकता है? जैसे रीछ प्रजाति। रामायण में जाम्बवंत को एक रीछ मानव की तरह दर्शाया गया है। वैज्ञानिकों के अनुसार यह अर्सिडी कुल का मांसाहारी, स्तनी, झबरे बालों वाला बड़ा जानवर है। यह लगभग पूरी दुनिया में कई प्रजातियों में पाया जाता है। मुख्‍यतया इसकी 5 प्रजातियां हैं- काला, श्वेत, ध्रुवीय, भूरा और स्लोथ भालू। 
 
अमेरिका और रशिया में आज भी भालू मानव के किस्से प्रचलित हैं। वैज्ञानिक मानते हैं कि कभी इस तरह की प्रजाति जरूर अस्तित्व में रही होगी। कुछ वैज्ञानिक मानते हैं कि भूरे रंग का एक विशेष प्रकार का भालू है जिसे नेपाल में 'येति' कहते हैं। एक ब्रिटिश वैज्ञानिक शोध में पता चला है कि हिमालय के मिथकीय हिम मानव 'येति' भूरे भालुओं की ही एक उपप्रजाति हो सकती है। ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर ब्रायन स्काइज द्वारा किए गए बालों के डीएनए परीक्षणों से पता चला है कि ये ध्रुवीय भालुओं से काफी कुछ मिलते-जुलते हैं। उच्च हिमालयी क्षेत्रों में भूरे भालुओं की उपप्रजातियां हो सकती हैं।
 
संस्कृत में भालू को 'ऋक्ष' कहते हैं। अग्निपुत्र जाम्बवंत को ऋक्षपति कहा जाता है। यह ऋक्ष बिगड़कर रीछ हो गया जिसका अर्थ होता है भालू अर्थात भालू के राजा। लेकिन क्या वे सचमुच भालू मानव थे? रामायण आदि ग्रंथों में तो उनका चित्रण ऐसा ही किया गया है। ऋक्ष शब्द संस्कृत के अंतरिक्ष शब्द से निकला है। जामवंतजी को अजर अमर होने का वरदान प्राप्त है। 
 
प्राचीनकाल में इंद्र पुत्र, सूर्य पुत्र, चंद्र पुत्र, पवन पुत्र, वरुण पुत्र, ‍अग्नि पुत्र आदि देवताओं के पुत्रों का अधिक वर्णन मिलता है। उक्त देवताओं को स्वर्ग का निवासी कहा गया है। एक ओर जहां हनुमानजी और भीम को पवन पुत्र माना गया है, वहीं जाम्बवंतजी को अग्नि पुत्र कहा गया है। जाम्बवंत की माता एक गंधर्व कन्या थी। जब पिता देव और माता गंधर्व थीं, तो वे कैसे रीछ मानव हो सकते हैं? 
 
एक दूसरी मान्यता के अनुसार भगवान ब्रह्मा ने एक ऐसा रीछ मानव बनाया था, जो दो पैरों से चल सकता था और जो मानवों से संवाद कर सकता था। पुराणों के अनुसार वानर और मानवों की तुलना में अधिक विकसित रीछ जनजाति का उल्लेख मिलता है। वानर और किंपुरुष के बीच की यह जनजाति अधिक विकसित थी। हालांक‍ि इस संबंध में अधिक शोध किए जाने की आवश्यकता है।
 
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येति मानव : बिगफुट को पूरे विश्व में अलग-अलग नामों से पुकारा जाता है। तिब्बत और नेपाल में इन्हें 'येती' का नाम दिया जाता है, तो ऑस्ट्रेलिया में 'योवी' के नाम से जाना जाता है। भारत में इसे 'यति' कहते हैं।
 
बिगफुट कर रहा है मानव की तबाही का इंतजार?
 
ज्यादा बालों वाले इंसान जंगलों में ही रहते थे। जंगल में भी वे वहां रहते थे, जहां कोई आता-जाता नहीं था। माना जाता था कि ज्यादा बालों वाले इंसानों में जादुई शक्तियां होती हैं। ज्यादा बालों वाले जीवों में बिगफुट का नाम सबसे ऊपर आता है। बिगफुट के बारे में आज भी रहस्य बरकरार है।
 
अमेरिका, रूस, चीन, ऑस्ट्रेलिया और भारत में बिगफुट को देखे जाने के दावे किए गए हैं। भारत में इसे 'येति' या 'यति' कहते हैं, जो एक हिममानव है। आखिर उसे हिममानव क्यों कहा जाने लगा? क्योंकि हिमालय छुपने के लिए सबसे सुरक्षित जगह है। यति भारत के इतिहास और पौराणिक कथाओं का हिस्सा है। यति का उल्लेख ऋग्वेद और सामवेद में मिलता है।
 
ऐतिहासिक तथ्‍य : हांगकांग में 1935 में पहली बार बिगफुट की खोपड़ी पाई गई। खोपड़ी से अनुमान लगाया कि यह नरवानर (आधा इंसान और आधा वानर) करीब 10 फिट लंबा और 545 किलो वजन का था। 1951 में माउंट एवरेस्ट पर चढ़ने का प्रयास करते समय एरिक शिप्टन ने सागर तल से लगभग 6,000 मी. (20,000 फुट) ऊपर बर्फ में अनगिनत बड़े-बड़े पैरों के निशानों की तस्वीरें लीं। ये तस्वीरें दुनियाभर में गहन जांच और बहस का विषय बन गईं। 
 
1953 में सर एडमंड हिलेरी और तेनज़िंग नोर्गे ने माउंट एवरेस्ट पर चढ़ने के समय बड़े-बड़े पदचिह्नों को देखने का दावा किया। अपनी पहली आत्मकथा में तेनज़िंग ने कहा कि उनका मानना था कि यति एक विशाल वानर था। हालांकि इसे उन्होंने खुद कभी नहीं देखा था, उनके पिताजी ने दो बार इसे देखा था।

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28 नवंबर 2024, गुरुवार के शुभ मुहूर्त

मार्गशीर्ष अमावस्या पर पितरों को करें तर्पण, करें स्नान और दान मिलेगी पापों से मुक्ति