11 उपाय...भारतीय संस्कृति बचाने के

Webdunia
गुरुवार, 13 अप्रैल 2017 (18:07 IST)
यदि आप भारतीय संस्कृति को प्यार करते हैं तो आपको रूढ़िवादी माना जाता है और यदि आप पाश्चात्य संस्कृति को बढ़ावा देते हैं तो आपको आधुनिक माना जाता है। ऐसे में तब हम उन लोगों को क्या मानें, जो पश्चिम के हैं और अपनी पाश्चात्य संस्कृति से प्यार करते हैं? दरअसल, हिन्दुस्तानी लोग पाश्चात्य और आधुनिक संस्कृति में फर्क करना नहीं जानते।
 
...भारतीय संस्कृति और सभ्यता की बात करें तो उसमें बहुत कुछ है जिसने दुनिया को सभ्य बनाया। समय के साथ सब कुछ बदलता रहता है लेकिन उनमें से कुछ बदलाव लाभदायक होते हैं और कुछ नुकसानदायक। कुछ बातों को छोड़ने से आपकी पहचान मिट जाती है और इसके दुष्परिणाम आपकी आने वाले पीढ़ियों को भुगतना होते हैं। 
 
आप जब भी संस्कृति और सभ्यता की बात करेंगे तो आपको निश्चित ही रूढ़िवादी या कट्टरवादी माना जाने लगेगा। ऐसी मानसिकता को आपके दिमाग में भरने वाले वे ही लोग हैं, जो आपकी संस्कृति और सभ्यता को आधुनिकता या बौद्धिकता के नाम पर समाप्त करना चाहते हैं। आपको अपने देश और संस्कृति से विद्रोह करना सिर्फ एक दिन में नहीं सिखाया गया है। यह तो सैकड़ों साल की गुलामी और बाजारवाद का परिणाम है।
 
जब हम भारतीय संस्कृति की बात करते हैं तो उसका हिस्सा सभी धर्म, जाति, प्रांत और समाज के लोग हैं। अत: संस्कृति को बचाना उन सभी लोगों की जिम्मेदारी है, जो खुद को भारतीय मानते हैं। आओ जानते हैं कि किस तरह बाजारवाद, साम्यवाद और आधुनिकता के बुरे प्रचलन के दौर में हम अपनी संस्कृति को बचाएं।
कॉपीराइट वेबदुनिया

भाषा : भाषा संस्कृति का अहम हिस्सा होती है। भारत की सभी भाषाएं और बोलियां संस्कृति का अहम हिस्सा हैं। हिन्दू हो या मुसलमान, सिख हो या ईसाई- इन सभी के पूर्वज पीढ़ी-दर- पीढ़ी से अपनी भाषाओं में बोलते आए हैं, लेकिन वर्तमान पीढ़ी आधुनिकता या धार्मिक कट्टरता के चलते यह छोड़ती जा रही है।
भारतीयों को उनकी भाषा से दूर करने के लिए पहले मुगलों और फिर अंग्रेजों ने अपनी-अपनी भाषाओं को लादा जिसके चलते भारत की बहुत-सी भाषाएं अपना अस्तित्व खो चुकी हैं और कुछ खोने के लिए तैयार हैं। यदि हम बात करें पंजाबी, सिन्धी, पख्तूनी, बलूची, बंगाली, कश्मीरी, डोंगरी आदि भाषाओं की तो अब उनमें अरबी, फारसी के शब्द ज्यादा मिल गए हैं।
 
इसी तरह यदि हम भारत में हिन्दी, गुजराती, मराठी, कोंकणी और हिन्दी बोलियों में भोजपुरी, राजस्थानी, मालवी आदि की बात करें तो उनमें अंग्रेजी और फारसी भाषा के शब्दों का प्रचलन बढ़ गया है। हिन्दी तो लगभग अंग्रेजी होती जा रही है। यदि हिन्दी मरी तो हिन्दी की बोलियां स्वत: ही मर जाएंगी, ऐसे में मराठी और गुजराती को बचाना और भी मुश्किल होगा। भाषा के बारे में यहां पर बहुत कुछ लिखा जा सकता है। अत: थोड़ा लिखा है तो ज्यादा समझें।
 
कैसे बचाएं भाषा :
1. खुद बोलें और अपने बच्चों को अधिक से अधिक अपनी भाषा को सिखाएं। आप जिस भी क्षेत्र में रहते हैं वहां की भाषा से प्रेम करें। वहां की भाषा के मुहावरे, लोकोक्ति का जमकर प्रयोग करें। कोई भी भाषा खतरे से बाहर है यदि सारी पीढ़ियां उसका प्रयोग कर रही हैं और किसी और भाषा का दखल नहीं है तो। खतरा तब शुरू होता है जबकि एक ही परिवार, समाज या समूह के ज्यादा बच्चे अथवा परिवार संबंधित मातृभाषा भाषा पहली भाषा के तौर पर बोलते हैं और कुछ नहीं बोलते और यह प्रयोग कुछ विशिष्ट सामाजिक घेरों तक सीमित हो जाता है। 
 
जैसे वर्तमान में मालवा में रहने वाले अधिकतर परिवार के लोग अब मालवी घर में ही बोलते हैं और कुछ तो अब घर में भी नहीं बोलते हैं। इसी तरह वर्तमान में यह प्रचलन बढ़ने लगा है कि स्कूल, कॉलेज, ऑफिस, शॉपिंग मॉल या पार्टी आदि में अंग्रेजी बोलने का प्रचलन बढ़ने लगा है और यही चलता रहा तो आने वाले समय में हिन्दी, गुजराती, मराठी, बंगाली आदि भाषाएं घरों में सिमटकर रह जाएंगी।
 
2. अखबार, टीवी, रेडियो, मोबाइल, इंटरनेट, सोशल मीडिया और तमाम संचार माध्यमों की यह जिम्मेदारी बनती है कि वे अपनी भाषा का जमकर और शुद्ध रूप में उपयोग करें। यदि वे ऐसा नहीं करते हैं तो निश्चित रूप में वे अपनी मातृभूमि और मातृभाषा ही हत्या करने में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप में उत्तरदायित्व होंगे। क्या ऐसे लोगों को राष्ट्रद्रोही नहीं कहा जाना चाहिए?
 
3. बॉलीवुड के कारण भारतीय भाषाओं का बहुत प्रचार-प्रसार हुआ लेकिन अब यही बॉलीवुड भारत की भाषा और संस्कृति को तेजी से नष्ट करने में लगा है। अब बॉलीवुड की अधिकतर फिल्मों के नाम हिन्दी में नहीं होते हैं और अधिकतर फिल्मों में हिन्दी नहीं, हिंग्लिश बोली जाती है। अभिनेत्री और अभिनेताओं के साक्षात्कार और उनके संवाद देखकर आपको निश्‍चित ही दुख होगा। हिंग्लिश हो चुका बॉलीवुड कब इंग्लिश हो जाएगा, आपको पता भी नहीं चलेगा। आज बॉलीवुड का इतना व्यापार इसलिए है, क्योंकि वहां हिन्दी फिल्में बनती हैं न कि अंग्रेजी। पर अब यही निर्माता-निर्देशक यह सब जानकर भी अपनी भाषाओं के प्रति अनजान बने हुए हैं और भारतीय भाषाओं के पूर्ण पतन का रास्ता साफ कर रहे हैं। वे रोमन में स्क्रिप्ट लिखवाते हैं और रोमन लिपि में ही संवादों के नोट बनाते हैं। सरकार को चाहिए कि वह सिनेमा जगत पर शिकंजा कसे। कोई तो मानक तय होना ही चाहिए।
 
4. स्कूल और कॉलेज में अब हिन्दी को बस प्राथमिक स्तर पर ही पढ़ाया जाता है। अधिकतर स्कूल इंग्लिश मीडियम हो चले हैं। अब 'पाठशाला' या 'विद्यालय' शब्द का इतना प्रचलन नहीं रहा। 'स्कूल' सबसे ज्यादा प्रचलित शब्द है। आज देश के सरकारी विद्यालयों की दशा देखकर दुख होता है। ग्रामीण क्षे‍त्र में शिक्षक से ज्यादा छात्र पढ़े-लिखे हैं, ऐसे में कौन अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में पढ़ाएगा? ठेके पर शिक्षक रखे गए हैं, उनमें से कुछ तो पीकर बैठे रहते हैं। कुछ तंबाकू घिसते रहते हैं और कुछ तो कई-कई दिनों तक नदारद रहते हैं। बस तनख्वाह लेने के लिए ही नौकरी कर रहे हैं। स्कूलों और कॉलेज में हिन्दी को पढ़ाया जाना अनिवार्य करने से पहले कंपनियों और कार्यालयों में भारतीय भाषा के प्रचलन को बढ़ाना जरूरी है।
 
5. शॉपिंग मॉल, तमाम दुकानों के होर्डिंग और लगभग सभी प्रॉडक्ट से हिन्दी सहित अन्य भारतीय भाषाओं को हटा दिया गया है। पाश्‍चात्य जैसा दिखने की होड़ के चलते अब अंग्रेजी में बड़े-बड़े होर्डिंग लगाए जाते हैं। त्योहारों के बाजार में अंग्रेजी का प्रचलन ज्यादा है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने पहले खूब हिन्दी में विज्ञापन छपवाए या प्रसारित करवाए, क्योंकि तब लोग इतनी अंग्रेजी नहीं जानते थे जितनी कि आज। अब आप जानते ही हैं कि बाजारवाद ने देश के 3 सबसे बड़े त्योहार बना दिए हैं- पहला क्रिसमस, दूसरा वेलेंटाइन-डे और तीसरा न्यू ईयर।

भूषा : आपका पहनावा आपके देश की पहचान होता है। आजकल परंपरागत पोशाक पहनने का प्रचलन सिर्फ शादी-विवाह में ही सिमटकर रह गया है। त्योहारों में भी अब कम ही देखने को मिलता है कि किसी ने परंपरागत पहनावा पहना है। धोती-कुर्ता, पगड़ी, साफा या टोपी तो अब कोई नहीं पहनता। हां, कुर्ता-पायजामा पहने लोग जरूर नजर आते हैं। सूती या खादी का प्रचलन कम ही है, बस कुछ लोग ही पहनते हैं। खड़ाऊ तो अब संत लोगों के पैरों में ही नजर आती है।
यदि हम महिलाओं के पहनावे की बात करें तो उसमें साड़ी, सलवार कुर्ती, चोली और ब्लाउज, घाघरा, लहंगा, गरारा, ओढ़नी आदि हैं। पुरुषों के पहनावे में अचकन या शेरवानी, कुर्ता-पायजामा, लुंगी आदि अभी भी प्रचलन में है लेकिन ये खास मौके पर ही देखे जाते हैं। महिलाओं का पहनावा तो बहुत तेजी से बदलता जा रहा है। अब विवाहित महिलाएं साड़ी बस मौके-झोके पर ही पहनती हैं।
 
कैसे बचाएं भूषा : जरूरी है कि आप कम से अपने त्योहार, मांगलिक कार्य, विवाह, समाज की बैठक, अन्य समारोह आदि में भारतीय परिधान पहनकर ही जाएं। अपने बच्चों के लिए भी भारतीय परिधान सिलवाएं या बाजार से खरीदकर लाएं। यदि आप ऐसा करेंगे तो भारतीय परिधानों की मांग बढ़ेगी जिसके चलते आप अपनी भूषा को बचा पाएंगे।

भोजन : संस्कृति का तीसरा अहम हिस्सा होता है भोजन। आप पिज्जा, बर्गर, चाइनीज खाकर और पेप्सी कोला पीकर खुद को आधुनिक तो घोषित कर सकते हैं, लेकिन आप अनजाने में ही सही, लेकिन अपने स्वास्थ्य और संस्कृति को धोखा दे रहे हैं। खाने में देशी स्वाद जरूर होना चाहिए। देशी खान और देशी मसाले में जो स्वाद और सेहत का राज छुपा है वह डिब्बाबंद में नहीं।
अब लोग शहतूत का शरबत, तुकमरी का फालूदा, सत्तू का रस, पंचामृत नहीं पीते। बेल का मुरब्बा अब कहां मिलेगा? यह ढूंढना होता है। मिट्टी के तवे पर जो रोटियां सेंकी जाती थीं उसका स्वाद कुछ लोगों को अभी तक मालूम होगा। पहले खीर का प्रचलन ज्यादा था अब मौके-झोके पर ही बनती है। मालपुआ, मीठा हलुआ, केसर भात, पूरणपोळी, मीठी बूंदी, बेसन के लड्डू, रसगुल्ला, कढ़ी, सिवइयां, दाल-बाटी आदि अब तीज-त्योहारों पर ही बनते हैं।
 
ऐसे कई व्यंजन हैं, जो अब भारत में प्रचलन से बाहर हो गए हैं जैसे- दधिशाकजा (दही शाक की कढ़ी), सिखरिणी (सिखरन), अवलेह (शरबत), इक्षु खेरिणी (मुरब्बा),  त्रिकोण (शर्करायुक्त), बटक (बड़ा), मधु शीर्षक (मठरी), फेणिका (फेनी), शतपत्र (खजला), सधिद्रक (घेवर), चक्राम (मालपुआ), चिल्डिका (चोला), धृतपूर (मेसू), 
चन्द्रकला (पगी हुई), दधि (महारायता), स्थूली (थूली), कर्पूरनाड़ी (लौंगपूरी), खंड मंडल (खुरमा), गोधूम (दलिया), परिखा, सुफलाढया (सौंफयुक्त), दधिरूप (बिलसारू), सौधान (अधानौ अचार), मंडका (मोठ), गोघृत, मंडूरी (मलाई), शक्तिका (सीरा), लसिका (लस्सी), सुवत,  संघाय (मोहन), मोहन भोग, सिंघाड़े की रोटी, जौ की रोटी, बाजरे की रोटी, कलाकंद, पेठा, इमरती, खोया, सूखे मेवे और बताशे आदि हजारों ऐसे व्यंजन हैं जिनके अब नाम भी नहीं सुने हैं।
 
कैसे बचाएं : भारतीय व्यंजन कौन-कौन से होते हैं, इस संबंध में आप बाजार से किताबें खरीदें या इंटरनेट पर इस संबंध में विस्तृत जानकारी हासिल कर उसे घर में बनाएं। खुद खाएं और दूसरों को भी खिलाएं। ऐसा करते रहने से बाजार में इसकी उपलब्धता बढ़ेगी और स्थानीय लोगों को रोजगार मिलेगा। देसी मसाले खरीदें और खुद उसे पिसवाकर कम से कम 6 माह का स्टॉक करेंगे तो आप नकली मसालों से बचे रहेंगे।

परंपरागत अनाज, फल और सब्जी : भारत देश प्राचीनकाल से ही कृषि प्रधान देश रहा है। मा‍त्र 100 वर्ष पहले तक देश में अनगिनत बगीचे और भारतीय वृक्ष हुआ करते थे लेकिन अब खेत और बगीचे खत्म होते जा रहे हैं। विदेशी पौधों की संख्या के बढ़ने के साथ ही भारतीय पेड़-पौधे भी लुप्त होते जा रहे हैं। सब्जियों में भी अब देसी स्वाद नहीं रहा। देशी टमाटर तो कम ही मिलते हैं। अनाज (गेहूं आदि) में प्रयोग कर मूल अनाज को लगभग लुप्त ही कर दिया गया है। यह बहुत ही चिंता का विषय है।
परंपरागत खेती को छोड़कर आधुनिक खेती को अपनाए जाने के दुष्परिणाम भी देखने को मिल रहे हैं। भविष्य में खेतों को प्राइवेट सेक्टर के हाथों में सौंप दिए जाने के बाद तो सबकुछ खत्म हो जाएगा। किसान नाम का प्राणी नहीं होगा। बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपने हिसाब से अनाज, फल, सब्जियां उगाएंगी और मनचाहे दाम पर बेचेंगी। अंत में वे सभी भूमि को बंजर करके अपने-अपने देश लौट जाएंगे।
 
कृषि वैज्ञानिक अच्छे से जानते हैं कि किसी भूमि को उपजाऊ बनने में कितना वक्त लगता है, लेकिन उस पर प्लॉट काटकर बिल्डिंग बनाने में कोई वक्त नहीं लगता। जब अनाज, फल और सब्जी उत्पादन घटेगा तो फिर भविष्य में विदेशों से यह सभी आयातित किया जाएगा और बहुराष्ट्रीय कंपनियां चाहती भी यही हैं। वहां खेतों में हेलीकॉप्टर से बीज डाला जाता है। खेतों के पास ही लगी फैक्टरी में उत्पादन होता है और फिर पूरी दुनिया में वहीं से सप्लाई कर दिया जाता है। परंपरागत खेती खत्म होगी तो निश्चित ही असली वस्तुओं के मिलने की कोई गारंटी नहीं। खेती के खत्म होने से परंपरागत जलस्रोत भी सूख जाएंगे। पानी पर कब्जा होने ही लगा है। तब आप सोच सकते हैं कि भाषा, भूषा, भोजन के साथ जल भी विदेश से सप्लाई होगा।
 
कैसे बचाएं खेती : खेत की भूमि पर प्लॉट, मकान आदि बनाना बंद कर दिया जाए। खेतों में डाले जाने वाले खाद्य को परंपरागत भारतीय तरीके से ही बनाया जाए। खेतों के पास में एक कुआं, तालाब, खाल या बावड़ी निर्मित की जाए। धरती का वॉटर लेबल नलकूपों के कारण निरंतर नीचे गिरता जा रहा है। नलकूप (हैंडपंप या बोरिंग) को बंद कर पानी के परंपरागत स्रोतों को जीवित किया जाए।
 
शहर की हर कॉलोनी के बगीचों में पीपल, बरगद, नीम, आम, अमरूद, जामुन, अनार, बेर, करौंदा, कबीट, बिल्ला, पपीता, शमी, हरसिंगार, इमली, कैथ, बेल, आंवला, बिल्वपत्र, अशोक, केल, खजूर, मीठा नीम, पारिजात, चंपा, चमेली, रातरानी, मोगरा, जूही, गेंदा, कमल, गुलाब, रजनीगंधा, सादाफूली, बेशरम, अमलतास, कनेर, केवड़ा, गुड़हल, आंकड़ा, पलाश, बादाम, ब्राह्मी आदि उगाने चाहिए। उक्त में से कुछ पेड़-पौधों का उगाना अनिवार्य कर देना चाहिए।
 
देशी टमाटर, पत्तागोभी, फूलगोभी, गिलकी, तौरई, भिंडी, लौकी, बैंगन, कद्दू, करेला, पालक, मैथी, अरबी, सरसों का साग, सेम फली (बालौर), मटर, बोड़ा (लोभिया या चवला फली), ग्वारफली, सहजन या सुरजने की फली, टिंडा, शिमला मिर्च, भावनगरी मिर्च, शलजम, कटहल, शकरकंद (रतालू), खीरा, ककड़ी, हरी या लालमिर्च, मूली, धनिया, अदरक, लहसुन, नींबू, आंवला, गाजर, मक्कई, कच्चा आम (केरी) आदि सभी में देशी की मांग करें। आप विदेशी टमाटर खा लेते हैं इसीलिए देशी बाजार से गायब होते जा रहे हैं। विदेशी टमाटर खाना बंद कर आप बार-बार देशी की मांग करेंगे तो मांग से ही सप्लाई होगी। 

पशु और प‍क्षी : देश में विदेशी कुत्तों की तादाद बढ़ गई है। वे सभी घर में सोफे पर ऐशोआरम से सो रहे हैं और देशी कुत्ते गली-मोहल्लों में मारे-मारे फिरते हैं। उन्हें वक्त पर खाना नहीं मिलता जिसके चलते उनकी हालत भी खराब है। दूसरा, उन्हें नगर निगम वाले पकड़कर ले जाते हैं। इसी तरह यदि हम देशी सूअरों की बात करें तो अब उनकी जगह सफेद रंग के विदेशी सूअरों ने ले ली है, जो काले हैं वे क्रॉस हैं।
गधे घटते जा रहे हैं। घोड़े अब बहुत ही कम बचे हैं। हाथियों की तादाद तो कुछ हजारों में ही रह गई है। गाय की हालत भी हाथियों जैसी ही है। बैल तो अब आपको गांवों में ही देखने को मिलेंगे। वे सबसे पहले कटते हैं। अब मार्केट में सोयाबीन सहित अन्य तत्वों का दूध भी आ गया है, शायद इसीलिए अब गाय की दुर्गति हो चली है। कभी महलों और गोशाला में रहने वाली गाय आजकल सड़कों पर दर-दर भटक रही है। अब उसे प्लास्टिक और कूड़ाघर में पेट भरने के लिए छोड़ दिया जाता है। उसे स्टेरॉयड व एंटीबायोटिक देकर गर्भधारण करवाया जाता है और अंत में मांस का भोग कराने के लिए मार दिया जाता है।
 
अब यदि हम जंगली जानवरों की बात करें तो सिंह, शेर, चीता, तेंदुआ, बाघ, लोमड़ी, चीतल, हिरण, गैंडा, नीलगाय, जिराफ, बारहसिंगा, बंदर, वनमानुस, ऊंट, उदबिलाव, भारतीय पांडा आदि सैकड़ों ऐसे पशु हैं, जो अब अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। पक्षियों में गौरैया, बुलबुल, बाज, चील, हंस, गिद्ध, शुतुरमुर्ग, सफेद उल्लू, तोता, मोर, कौआ, गरूड़, नीलकंठ आदि ऐसे पक्षी हैं जिन्हें देखना अब दुर्लभ हो गया है। 
 
जलचरों में दरियाई घोड़ा, कछुआ, मगरमच्छ, मकर और नर्मदा की डॉल्फिन को नदी के हत्यारों ने अब लगभग लुप्त कर दिया है। भारत में गंगा, यमुना, नर्मदा, सिन्धु, ब्रह्मपुत्र, महानदी, कृष्णा, कावेरी आदि कई नदियों को एक बार अच्छे से देख लेंगे तो पता चलेगा कि कहां-कहां से नदियों को लगभग मार दिया गया है।
 
कैसे बचाएं : बोलकर, लिखकर, जंगल में घूमकर, चिड़ियाघर में जाकर इन पशु-पक्षियों के पक्ष में आवाज उठाएं। अपने घर की छत, गैलरी आदि में पक्षियों के लिए जल और अन्य की व्यवस्था जरूर करें। मछली, तोता, चिड़िया, कुत्ता और बिल्ली पालने वालों को समझाएं कि आप जो कर रहे हैं, वह गलत है। गाय पालने वालों से कहें कि आप इसके लिए उचित व्यवस्था करें। सड़क पर घूम रहे कुत्तों को रोटी जरूर खिलाएं।

भारतीय संगीत : भारतीय शास्त्रीय और लोकनृत्य एवं संगीत को मुगलकाल में बदला गया। मुगलों ने प्राचीन भारतीय नृत्य और संगीत को अरबी और फारसी शैली में ढालकर उसे नष्ट करने का कार्य किया जबकि कथित रूप से खुली सोच के लोग यह तर्क देते हैं कि उन्होंने दो संस्कृतियों को मिलाकर एक नई संस्कृति को गढ़ा। आप कुछ भी मान सकते हैं। हालांकि यह तो कहना ही होगा कि उन्होंने अपनी संस्कृति में कुछ भी नहीं मिलाया बल्कि उनके धर्म को अपनाने के लिए नई भाषा और संस्कृति का एक सेतु बनाया। खैर...!

भारतीय संगीत : भारतीय शास्त्रीय संगीत के कई रंग हैं। अधिकतर लोगों के मन में उसके प्रति गलत छवि प्रस्तुत की गई है। खासकर उत्तर भारत में इसका अब कम ही प्रचलन है जबकि दक्षिण भारत में आज भी नृत्य और संगीत को बचाए रखा है। हिन्दी भाषी राज्यों में इसका प्रचलन लगभग समाप्त जैसा है।
 
संगीत और वाद्ययंत्रों का आविष्कार भारत में ही हुआ है। संगीत का सबसे प्राचीन ग्रंथ सामवेद है। हिन्दू धर्म का नृत्य, कला, योग और संगीत से गहरा नाता रहा है। हिन्दू धर्म मानता है कि ध्वनि और शुद्ध प्रकाश से ही ब्रह्मांड की रचना हुई है। आत्मा इस जगत का कारण है। चारों वेद, स्मृति, पुराण और गीता आदि धार्मिक ग्रंथों में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को साधने के हजारोहजार उपाय बताए गए हैं। उन उपायों में से एक है संगीत। संगीत की कोई भाषा नहीं होती। संगीत आत्मा के सबसे ज्यादा नजदीक होता है। शब्दों में बंधा संगीत विकृत संगीत माना जाता है।
 
प्राचीन परंपरा : भारत में संगीत की परंपरा अनादिकाल से ही रही है। हिन्दुओं के लगभग सभी देवी और देवताओं के पास अपना एक अलग वाद्य यंत्र है। विष्णु के पास शंख है तो शिव के पास डमरू, नारद मुनि और सरस्वती के पास वीणा है, तो भगवान श्रीकृष्ण के पास बांसुरी। खजुराहो के मंदिर हो या कोणार्क के मंदिर, प्राचीन मंदिरों की दीवारों में गंधर्वों की मूर्तियां आवेष्टित हैं। उन मूर्तियों में लगभग सभी तरह के वाद्य यंत्र को दर्शाया गया है। गंधर्वों और किन्नरों को संगीत का अच्छा जानकार माना जाता है।
 
सामवेद उन वैदिक ऋचाओं का संग्रह मात्र है, जो गेय हैं। संगीत का सर्वप्रथम ग्रंथ चार वेदों में से एक सामवेद ही है। इसी के आधार पर भरत मुनि ने नाट्यशास्त्र लिखा और बाद में संगीत रत्नाकर, अभिनव राग मंजरी लिखा गया। दुनियाभर के संगीत के ग्रंथ सामवेद से प्रेरित हैं।
 
संगीत का विज्ञान : हिन्दू धर्म में संगीत मोक्ष प्राप्त करने का एक साधन है। संगीत से हमारा मन और मस्तिष्क पूर्णत: शांत और स्वस्थ हो सकता है। भारतीय ऋषियों ने ऐसी सैकड़ों ध्वनियों को खोजा, जो प्रकृति में पहले से ही विद्यमान है। उन ध्वनियों के आधार पर ही उन्होंने मंत्रों की रचना की, संस्कृत भाषा की रचना की और ध्यान में सहायक ध्यान ध्वनियों की रचना की। इसके अलावा उन्होंने ध्वनि विज्ञान को अच्छे से समझकर इसके माध्यम से शास्‍‍त्रों की रचना की और प्रकृति को संचालित करने वाली ध्वनियों की खोज भी की। आज का विज्ञान अभी भी संगीत और ध्वनियों के महत्व और प्रभाव की खोज में लगा हुआ है, लेकिन ऋषि-मु‍नियों से अच्छा कोई भी संगीत के रहस्य और उसके विज्ञान को नहीं जान सकता।
 
प्राचीन भारतीय संगीत 2 रूपों में प्रचलन में था- 1. मार्गी और 2. देशी। मार्गी संगीत तो लुप्त हो गया लेकिन देशी संगीत बचा रहा जिसके मुख्यत: 2 विभाजन हैं- 1. शास्त्रीय संगीत और 2. लोक संगीत।
 
शास्त्रीय संगीत शास्त्रों पर आधारित और लोक संगीत काल और स्थान के अनुरूप प्रकृति के स्वच्छंद वातावरण में स्वाभाविक रूप से पलता हुआ विकसित होता रहा। हालांकि शास्त्रीय संगीत को विद्वानों और कलाकारों ने अपने-अपने तरीके से नियमबद्ध और परिवर्तित किया और इसकी कई प्रांतीय शैलियां विकसित होती चली गईं तो लोक संगीत भी अलग-अलग प्रांतों के हिसाब से अधिक समृद्ध होने लगा।
 
बदलता संगीत : मुस्लिमों के शासनकाल में प्राचीन भारतीय संगीत की समृद्ध परंपरा को अरबी और फारसी में ढालने के लिए आवश्यक और अनावश्यक और रुचि के अनुसार उन्होंने इसमें अनेक परिवर्तन किए। उन्होंने उत्तर भारत की संगीत परंपरा का इस्लामीकरण करने का कार्य किया जिसके चलते नई शैलियां भी प्रचलन में आईं, जैसे खयाल व गजल आदि। बाद में सूफी आंदोलन ने भी भारतीय संगीत पर अपना प्रभाव जमाया। आगे चलकर देश के विभिन्न हिस्सों में कई नई पद्धतियों व घरानों का जन्म हुआ। ब्रिटिश शासनकाल के दौरान पाश्चात्य संगीत से भी भारतीय संगीत का परिचय हुआ। इस दौर में हार्मोनियम नामक वाद्य यंत्र प्रचलन में आया।
 
दो संगीत पद्धतियां : इस तरह वर्तमान दौर में हिन्दुस्तानी संगीत और कर्नाटकी संगीत प्रचलित है। हिन्दुस्तानी संगीत मुगल बादशाहों की छत्रछाया में विकसित हुआ और कर्नाटक संगीत दक्षिण के मंदिरों में विकसित होता रहा।
 
हिन्दुस्तानी संगीत : यह संगीत उत्तरी हिन्दुस्तान में- बंगाल, बिहार, उड़ीसा, उत्तरप्रदेश, हरियाणा, पंजाब, गुजरात, जम्मू-कश्मीर तथा महाराष्ट्र प्रांतों में प्रचलित है।
 
कर्नाटक संगीत : यह संगीत दक्षिण भारत में तमिलनाडु, मैसूर, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश आदि दक्षिण के प्रदेशों में प्रचलित है।
 
वाद्य यंत्र : मुस्लिम काल में नए वाद्य यंत्रों की भी रचना हुई, जैसे सरोद और सितार। दरअसल, ये वीणा के ही बदले हुए रूप हैं। इस तरह वीणा, बीन, मृदंग, ढोल, डमरू, घंटी, ताल, चांड, घटम्, पुंगी, डंका, तबला, शहनाई, सितार, सरोद, पखावज, संतूर आदि का आविष्कार भारत में ही हुआ है। भारत की आदिवासी जातियों के पास विचित्र प्रकार के वाद्य यंत्र मिल जाएंगे जिनसे निकलने वाली ध्वनियों को सुनकर आपके दिलोदिमाग में मदहोशी छा जाएगी।
 
उपरोक्त सभी तरह की संगीत पद्धतियों को छोड़कर आओ हम जानते हैं हिन्दू धर्म के धर्म-कर्म और क्रियाकांड में उपयोग किए जाने वाले उन 10 प्रमुख वाद्य यंत्रों को जिनकी ध्वनियों को सुनकर जहां घर का वास्तुदोष मिटता है वहीं मन और मस्तिष्क भी शांत हो जाता है।
 
कैसे बचाएं : अपने बच्चों को बॉलीवुड नहीं, भारतीय शास्त्रीय और लोकनृत्य एवं संगीत की शिक्षा दें। बॉलीवुड तो वे कभी भी, कैसे भी सीख जाएंगे। इसकी सौ प्रतिशत गारंटी है कि भारतीय नृत्य एवं संगीत से आपके बच्चों के व्यक्तित्व और सेहत का निखार होगा, साथ ही उनका ध्यान इधर-उधर नहीं भटकेगा जिसको लेकर माता-पिता अक्सर चिंतित रहते हैं। भारतीय नृत्य और संगीत का जहां भी कोई कार्यक्रम आयोजित हो रहा है वहां उसे देखने जरूर जाएं।

भारतीय शास्त्रीय और लोकनृत्य एवं संगीत को मुगलकाल में बदला गया। मुगलों ने प्राचीन भारतीय नृत्य और संगीत को अरबी और फारसी शैली में ढालकर उसे नष्ट करने का कार्य किया जबकि कथित रूप से खुली सोच के लोग यह तर्क देते हैं कि उन्होंने 2 संस्कृतियों को मिलाकर एक नई संस्कृति को गढ़ा। आप कुछ भी मान सकते हैं। हालांकि यह तो कहना ही होगा कि उन्होंने अपनी संस्कृति में कुछ भी नहीं मिलाया बल्कि उनके धर्म को अपनाने के लिए नई भाषा और संस्कृति का एक सेतु बनाया। खैर...!
भारतीय नृत्य : लोकनृत्य-गान में कई राज छुपे हुए हैं। इनका संरक्षण किए जाने की जरूरत है। प्राचीन भारतीय नृत्य शैली से ही दुनियाभर की नृत्य शैलियां विकसित हुई हैं। भारतीय नृत्य मनोरंजन के लिए नहीं बना था। भारतीय नृत्य ध्यान की एक विधि के समान कार्य करता है। इससे योग भी जुड़ा हुआ है। सामवेद में संगीत और नृत्य का उल्लेख मिलता है। भारत की नृत्य शैली की धूम सिर्फ भारत ही में नहीं, अपितु पूरे विश्व में आसानी से देखने को मिल जाती है। हड़प्पा सभ्यता में नृत्य करती हुई लड़की की मूर्ति पाई गई है जिससे साबित होता है कि इस काल में ही नृत्यकला का विकास हो चुका था। भरत मुनि का नाट्यशास्त्र नृत्यकला का सबसे प्रथम व प्रामाणिक ग्रंथ माना जाता है। इसको पंचम वेद भी कहा जाता है। इन्द्र की सभा में नृत्य किया जाता था। शिव और पार्वती के नृत्य का वर्णन भी हमें पुराणों में मिलता है।
 
नाट्यशास्त्र के अनुसार भारत में कई तरह की नृत्य शैलियां विकसित हुईं जैसे भरतनाट्यम, चिपुड़ी, ओडिशी, कथक, कथकली, यक्षगान, कृष्णअट्टम, मणिपुरी और मोहिनी अट्टम। इसके अलावा भारत में कई स्थानीय संस्कृति और आदिवासियों के क्षेत्र में अद्भुत नृत्य देखने को मिलता है जिसमें से राजस्थान के मशहूर कालबेलिया नृत्य को यूनेस्को की नृत्य सूची में शामिल किया गया है।
 
नृत्य के नाम : लोकनृत्य : कुचीपुड़ी, घंटामरदाला, ओट्टम, थेडली, वेदी नाटकम, बिहू, बिछुआ, नटपूजा, महारास, कालिगोपाल, बागुरुम्बा, नागा नृत्य, खेलगोपाल, ताबाल, चोनग्ली, कानोई, झूमूरा होबजानाई, जाट-जाटिन, बक्खो-बखैन, पनवारिया, सामा चकवा, बिदेसिया, गरबा, डांडिया रास, टिप्पनी, जुरून, भावई, झूमर, फाग, डाफ, धमाल, लूर, गुग्गा, खोर, जागोर, झोरा, झाली, छारही, धामन, छापेली, महासू, नटी, डांगी, रऊफ, हीकत, मंदजात, कूद, डांडी नाच, दमाली, यक्षगान, हुट्टारी, सुग्गी, कुनीथा, करगा, लाम्बी, कथकली, ओट्टम, थुलाल, मोहिनीअट्टम, काईकोट्टिकली, लावणी, नकाटा, कोली, लेजिम, गाफा, दहीकला, दसावतार या बोहादा, ओडिशी, सवारी, घूमरा, पैंरास मुनारी, छाउ, काठी, गंभीरा, ढाली, जतरा, बाउल, मरासिया, महाल, कीर्तन, भांगड़ा, गिद्दा, दफ्फ, धामन, भांड, नकूला, घूमर, चाकरी, गणगौर, झूलन, लीला, झूमा, सुईसिनी, घपाल, कालबेलिया, भारतनाट्यम, कुमी, कोलट्टम, कवाडी, नौटंकी, रासलीला, कजरी, झोरा, चाप्पेली, जैता, गढ़वाली, कुंमायुंनी, छाप्पेली, तरंगमेल, कोली, देक्खनी, फुग्दी, शिम्मो, घोड़े, मोडनी, समायी, जगर, रणमाले, गोंफ, टून्नया मेल, जावरा, मटकी, अड़ा, खाड़ा, नाच, फूलपति, ग्रिदा, सालेलार्की, सेलाभडोनी, मंच, गौर मारिया, पैंथी, राउत, पंडवाणी, वेडामती, कपालिक, भारथरी चरित्र, चंदनानी, अलकप, कर्मा मुंडा, अग्नि, मर्दाना, पैका, फगुआ, हूंटा, मुंदारी, सरहुल, बराओ, झीटका, डांगा, डोमचक, घोरा, बुईया, छालो, वांचो, पासी, कोंगकी, पोनुंग, पोपीर, बारडो, छाम, डोल चोलम, थांग टा, लाई, हाराओबा, पुंग चोलोम, खांबा, थाईबी, नूपा, खूबक इशेली, लोहू शाह, का शाद सुक मिनसेइम, नॉन्गरेम, लाहो, छेरव, खुल्लम, चैलम, स्वलाकिन, च्वांगलाईज्वान, जंगतालम, पर लाम, सरलामकई, सोलाकिया, लंगलम, रंगमा, बांस, जीलैंग, सुईरोलियंस, गीथिंगलिम, तिमांगनेतिन, हेतलईयूली, होजागिरी, छू फाट, सिकमारी, सिंघई चाम या स्नो लायन नेनहा, ताशी यांगकू, खूखूरी, चुटके, मारूनी, लावा, कोलकाई, परीचाकली आदि।
 
कैसे बचाएं : अपने बच्चों को बॉलीवुड नहीं, भारतीय शास्त्रीय और लोकनृत्य एवं संगीत की शिक्षा दें। बॉलीवुड तो वे कभी भी, कैसे भी सीख जाएंगे। इसकी 100 प्रतिशत गारंटी है कि भारतीय नृत्य एवं संगीत से आपके बच्चों के व्यक्तित्व और सेहत का निखार होगा, साथ ही उनका ध्यान इधर-उधर नहीं भटकेगा जिसको लेकर माता-पिता अक्सर चिंतित रहते हैं। भारतीय नृत्य और संगीत का जहां भी कोई कार्यक्रम आयोजित हो रहा है, वहां उसे देखने जरूर जाएं।

भारतीय कला : भारतीय कलाओं में स्थापत्य कला, वास्तुकला, मूर्तिकला, चित्रकला, काश्तकारी, बुनाई, मिट्टी के बर्तन बनाना, बांस की टोकरियां, चटाई आदि बनाना, रंगाई, दस्तकारी, कढ़ाई, मेहंदी कला, तरकशी कला, मथैथरणा, मांडना, भित्तिचित्रण, पॉटरी, मीनाकारी, धातुशिल्प, फड़ चित्रांकन, काष्ठकला आदि अनेक कलाओं का जन्म और विकास भारत में हुआ।
भारतीय स्थापत्य और वास्तुकला : घर, मंदिर और नगर आदि भारतीय स्थापत्य और वास्तुकला के अनुसार बनाए जाएं तो उनमें सुंदरता, शांति और समृद्धि की झलक देखने को मिलती है। देशभर में स्थापत्य कला के एक से एक नमूने बिखरे पड़े हैं जिन्हें संरक्षित किए जाने की जरूरत है। अजंता-एलोरा के मंदिर हो या दक्षिण भारत के मंदिर हों, उन्हें देखकर आप दांतों तले अंगुली दबा लेंगे।
 
प्राचीन भारतीयों ने एक और जहां पिरामिडनुमा मंदिर बनाए तो दूसरी ओर स्तूपनुमा मंदिर बनाकर दुनिया को चमत्कृत कर दिया। आज दुनियाभर के धर्म के प्रार्थना स्थल इसी शैली में बनते हैं। मिस्र के पिरामिडों के बाद हिन्दू मंदिरों को देखना सबसे अद्भुत माना जाता था। प्राचीनकाल के बाद मौर्य और गुप्तकाल में मंदिरों को नए सिरे से बनाया गया।
 
इसके बाद पल्लव, चोल, परमार और चालुक्य राजाओं द्वारा इस कार्य को और ऊंचाइयों तक पहुंचाया गया लेकिन मध्यकाल में उनमें से अधिकतर मंदिरों का विध्वंस किया गया। माना जाता है कि किसी समय ताजमहल भी एक शिव मंदिर ही था। कुतुबमीनार विष्णु स्तंभ था। अयोध्या और मथुरा में महाभारतकाल का एक प्राचीन और भव्य मंदिर था जिसे तोड़ दिया गया।
 
मौर्य, गुप्त और विजयनगरम साम्राज्य के दौरान बने हिन्दू मंदिरों की स्थापत्य कला को देखकर हर कोई दांतों तले अंगुली दबाए बिना नहीं रह पाता। अजंता-एलोरा की गुफाएं हों या वहां का विष्णु मंदिर। कोणार्क का सूर्य मंदिर हो या जगन्नाथ मंदिर या कंबोडिया के अंकोरवाट का मंदिर हो या थाईलैंड के मंदिर... उक्त मंदिरों से पता चलता है कि प्राचीनकाल में खासकर महाभारतकाल में किस तरह के मंदिर बने होंगे। समुद्र में डूबी कृष्ण की द्वारिका के अवशेषों की जांच से पता चलता है कि आज से 5,000 वर्ष पहले भी मंदिर और महल इतने भव्य होते थे जितने कि गुप्तकाल में बनाए गए थे।
 
कैसे बचाएं : अपने घर को वास्तु के अनुसार ही बनवाएं और उसके अंदर जितनी भी वस्तुएं रखें वे सभी भारतीय हस्तशिल्प वास्तुकला के अनुसार ही रखें। इसके अलावा जब भी मंदिर बनवाएं तो वास्तु के अनुसार भव्य बनवाएं। उस मंदिर की ऊंचाई कम से कम 51 फुट की होना चाहिए। यदि आपकी कॉलोनी या टाउनशिप में छोटा मंदिर है, तो यह मंदिर नहीं, महज आपकी संतुष्टि का एक स्थानभर है। मंदिर में भीतर गुंबद ऐसा होना चाहिए जिसमें आवाज गूंजती हो और जिसके मुख्य गुंबद में कम से कम 50 लोग एकसाथ बैठ सकते हो और जिसके सभा मंडप में कम से कम 500 लोग बैठ सकते हों।

परंपरागत भारतीय खेल : ओलिंपिक इतिहास के पहले भारत में भी ओलंपिक होता था। ओलंपिक के अधिकतर खेल भारत में आविष्कृत हैं। रथ दौड़, धनुर्विद्या, तलवारबाजी, घुड़सवारी, मल्लयुद्ध, कुश्ती, तैराकी, भाला फेंक, आखेट, सगोल कंगजेट (पोलो), कलारीपयट्टू, केवल हाथों के बल पर चलना-फिरना, बांस की सहायता से ऊंची छलांग (हाई जंप) भरना आदि कई खेल शारीरिक क्षमता और कौशल को प्रदर्शित करते थे।
बच्चों के खेल में छिपाछई, पिद्दू, चर-भर, गिल्ली-डंडा, शेर-बकरी, अस्टा-चंगा, चक-चक चालनी, समुद्र पहाड़, दड़ी दोटा, गो, किकली (रस्सीकूद), मुर्ग युद्ध, बटेर युद्ध, अंग-भंग-चौक-चंग, गोल-गोल धानी, सितौलिया, अंटी-कंचे, पकड़मपाटी आदि सैकड़ों खेल हैं जिनमें से कुछ का अब अंग्रेजीकरण कर दिया गया है। इसके अलावा शतरंज, सांप-सीढ़ी, कबड्डी, पतंगबाजी, खो-खो, चौपड़ पांसा, फुटबॉल, हॉकी, गंजिफा (ताश) आदि खेलों का आविष्कार भी भारत में ही हुआ। हालांकि वर्तमान में इन सभी का अंग्रेजीकरण कर दिया गया है।
 
कैसे बचाएं : प्रत्येक खेल किसी न किसी त्योहार से जुड़ा हुआ है उसे उस दिन खेलना ही चाहिए, जैसे संक्रांति के दिन गिल्ली-डंडा खेलना और पतंग उड़ाने का प्रचलन है। अपने बच्चों को उक्त सभी खेलों के बारे में बताएं और उन्हें उसे कुछ खेलों को खेलने के लिए प्रेरित भी करें।

लोक ज्ञान और परंपरागत नुस्खे : लोक ज्ञान का अर्थ ऐसा ज्ञान जो आपको किसी भी प्रकार की सुविधा के बगैर जीना सिखाता है, जैसे घड़ी नहीं है फिर भी आप समय को अच्छे से जान सकते हैं- दिन में एक डंडी खड़ी करने और रात में तारों को देखकर। दूसरा आप इस ज्ञान के आधार पर यह जान सकते हैं कि कब बारिश होगी और कितनी तेज या धीमे होगी। लोक ज्ञान के अलावा होते हैं परंपरागत नुस्खे। इसमें सेहत और समझ दोनों ही प्रकार के नुस्खे होते हैं।
पहले के लोगों को इसका बहुत ज्ञान होता था लेकिन वर्तमान पीढ़ी यह ज्ञान प्राप्त नहीं करती, क्योंकि अब उनकी दादी और नानी या दादा और नाना भी वैसे नहीं रहे, जो अपने अनुभव और ज्ञान को अपनी पीढ़ियों में हस्तांतरित करें। गाय के दूध में हींग या मैथी मिलाकर पीने से कब्ज की शिकायत दूर हो जाती है। जन्म घुट्टी पिलाने से बच्चा स्वस्थ हो जाता है।
 
हालांकि 'गूगल बाबा' आजकल सब कुछ बता देता है फिर भी कुछ ज्ञान ऐसा होता है, जो कोई नहीं बता सकता। यह ज्ञान हमें परंपरा और अनुभव से ही प्राप्त होता है। उदाहरणार्थ, एक व्यक्ति को 12 महीने सर्दी-जुकाम बना रहता था। उसने सब तरह का इलाज कराया लेकिन ठीक नहीं हुआ। एक बार उसने दादी और नानी के नुस्खे वाली किताब में पढ़ा कि शाम को सोने के 3 से 4 घंटे पहले पानी पीना बंद कर दें और सुबह उठने के बाद 3 घंटे तक पानी न पीएं। उसने ऐसा ही किया और उसकी सर्दी-जुकाम में 70 प्रतिशत तक उसे लाभ मिला। इस तरह के हजारों नुस्खे हैं, जो सिर्फ सेहत संबंधी ही नहीं हैं, वे दुनियादारी के नुस्खे भी हैं।
 
हालांकि उपरोक्त के अलावा भी सैकड़ों ऐसी परंपरागत बातें हैं जिन्हें अपनाकर आप अपना जीवन बदल सकते हैं, जैसे चूल्हे की बनी रोटी खाना, पीतल के बर्तन में भोजन और तांबे के गिलास में पानी पीना। पानी भी मटके का पीना, ऐसे बिस्तर पर सोना जो परंपरागत हो। लकड़ी का पलंग या खाट हो। जल्दी सोना और जल्दी उठना, सोने से कुछ घंटे पहले खाना और पीना बंद कर देना। इसके अलवा उत्तर, ईशान या पश्चिममुखी मकान में ही रहना। पूर्व या दक्षिण में सिर करके सोना। प्रतिदिन प्रात:काल भ्रमण करना, संधिकाल में मौन रहना, मौसंबी, नींबू और आम का रस पीना आदि।
 
इसके अलावा किस नक्षत्र और माह में क्या नहीं खाना और क्या खाने या पीने से सभी रोग दूर हो जाते हैं ऐसी जानकारी जुटाना, जैसे कि शहतूत का रस पीने से 43 दिनों में गले से लेकर पेट तक किसी भी प्रकार के जो छाले हों, वे दूर हो जाते हैं, यहां तक कि लंग्स का कैंसर भी। इसके अलावा नीम की दातुन करना, आंखों में कभी-कभार काला और सफेद सूरमा लगाना, कानों में सरसों का गुनगुना तेल डालना, गुड़-चने और सत्तू का सेवन करना, तुलसी और पंचामृत का सेवन, दोनों हाथ जोड़कर अभिवादन करना, महत्वपूर्ण व्रत रखना, घर के आसपास पेड़-पौधे लगाना आदि कार्यों के महत्व को भी समझा जाना चाहिए।
 
कैसे बचाएं लोग नुस्खे : आप गांव के लोगों से बात करें। इस संबंध में किताबें खरीदकर पढ़ें और उसके ज्ञान को अपने बच्चों को भी बताएं। अधिक से अधिक घरेलू नुस्खे अपनाएं और उस अनुसार ही घर में चीजें रखें। यह घरेलू नस्खे हजारों सालों के अनुभव का परिणाम है।

भारतीय प्राचीन ग्रंथ : यदि हम धार्मिक ग्रंथों को छोड़ भी दें तो ऐसी बहुत-सी किताबें या ग्रंथ हैं, जो भारतीय संस्कृति और सभ्यता के अंग हैं, जैसे चीन, अरब या अमेरिका की प्राचीन पुस्तकें और साहित्य आज भी प्रचलन में हैं उसी तरह हमारे साहित्य को भी बचाने की जरूरत है। उसे बचाने का सबसे अच्‍छा तरीका सिर्फ यही है कि उसे खरीदकर पढ़ें।
दुनिया की प्रथम पुस्तक होने का गौरव प्राप्त है ऋग्वेद को। भारत में अध्यात्म और रहस्यमयी ज्ञान की खोज ऋग्वेद काल से ही हो रही है जिसके चलते यहां ऐसे संत, दार्शनिक और लेखक हुए हैं जिनके लिखे हुए का तोड़ दुनिया में और कहीं नहीं मिलेगा। उन्होंने जो लिख दिया वह अमर हो गया। उनकी ही लिखी हुई बातों को 2री और 12वीं शताब्दी के बीच अरब, यूनान, रोम और चीन ले जाया गया, रूपांतरण किया गया और फिर उसे दुनिया के सामने नए सिरे से प्रस्तुत कर दिया गया।
 
जानकारी हेतु बताते चलें कि संस्कृत महाकाव्य में महाभारत, रघुवंश, रामायण, पद्मगुप्त, भट्टिकाव्य, बुद्धचरित, कुमारसम्भवम्, शिशुपाल वध, नैषधीय चरित, किरातार्जुनीयम, हर्षचरित। अपभ्रंश महाकाव्य में रावण वही, लीलाबई, सिरिचिन्हकव्वं, उसाणिरुद्म, कंस वही, पद्मचरित, रिट्थणेमिचरिउ, नागकुमार चरित, यशोधरा चरित। हिन्दी महाकाव्य में पृथ्वीराज रासो, पद्मावत, रामचरित मानस, रामचंद्रिका, साकेत, प्रियप्रवास, कृष्णायन, कामायनी, उर्वशी, उर्मिला, तारक वध और तमिल महाकाव्य में शिलप्पादिकारम, जीवक चिन्तामणि, कुण्डलकेशी, वलयपति, तोल्काप्पियम, मणिमेखलै आदि महान ग्रंथ लिखे गए।
 
इसके अलावा पंचतंत्र, जातक कथाएं, सिंहासन बत्तीसी, हितोपदेश, कथासरित्सागर, तेनालीराम की कहानियां, शुकसप्तति, कामसूत्र, संस्कृत सुभाषित, नाट्य शास्त्र, अभिज्ञानशाकुन्तलम्, पंच पक्षी विज्ञान, अंगूठा विज्ञान, हस्तरेखा ज्योतिष, प्रश्न कुंडली विज्ञान, नंदी नाड़ी ज्योतिष विज्ञान, परमाणु शास्त्र, शुल्ब सूत्र, श्रौतसूत्र, सिद्धांतशिरोमणि, चरक संहिता, सुश्रुत संहिता, च्यवन संहिता, शरीर शास्त्र, गर्भशास्त्र, रक्ताभिसरण शास्त्र, औषधि शास्त्र, रस रत्नाकर, रसेन्द्र मंगल, कक्षपुटतंत्र, आरोग्य मंजरी, योग सार, योगाष्टक, अष्टाध्यायी, त्रिपिटक, अगस्त्य संहिता, जिन सूत्र, समयसार, लीलावती, करण कुतूहल, चाणक्य का नीति एवं अर्थशास्त्र आदि किताबों की बात भी करना चाहिए।
 
8वीं से 12वीं शताब्दी के मध्य लिखे गए ग्रंथ इनमें से प्रमुख हैं- वाग्भट्ट की अष्टांग हृदय, गोविंद भगवत्पाद की रस हृदयतंत्र एवं रसार्णव, सोमदेव की रसार्णवकल्प एवं रसेंद्र चूणामणि तथा गोपालभट्ट की रसेंद्रसार संग्रह आदि की भी जानकारी होना चाहिए। कुछ अन्य महत्वपूर्ण पुस्तकों में- रसकल्प, रसरत्नसमुच्चय, रसजलनिधि, रसप्रकाश सुधाकर, रसेंद्रकल्पद्रुम, रसप्रदीप तथा रसमंगल आदि हैं। अश्वघोष, भास, भवभूति, बाणभट्ट, भारवि, माघ, श्रीहर्ष, शूद्रक और विशाखदत्त की पुस्तक और प्रसिद्ध तिलिस्म उपन्यास चन्द्रकांता की चर्चा होना चाहिए।
 
बड़ों की पुस्तकों में लाल किताब, अष्टाध्यायी, योगसूत्र, उपनिषद की कहानियां, विमान शास्त्र, कामशास्त्र या सूत्र, विज्ञान भैरव तंत्र, सामुद्रिक शास्त्र, 'रस रत्नाकर' और 'रसेन्द्र मंगल', कौटिल्य का अर्थशास्त्र, चाणक्य नीति, विदुर नीति, वैशाली की नगरवधू, वयंरक्षाम्, युगांधर, मृत्युंजय आदि किताबें घर में होना चाहिए। बच्चों की पुस्तकों में पंचतंत्र, तेनालीराम की कहानियां, हितोपदेश, जातक कथाएं, बेताल या बेताल पच्चीसी, कथासरित्सागर, सिंहासन बत्तीसी, शुकसप्तति और बाल कहानी संग्रह को घर में रखना चाहिए।
 
बच्चों को सभी तरह का ज्ञान मिलना चाहिए। बच्चों का मानसिक विकास कहानियां, चित्रकथाएं पढ़ने और पहेलियां सुलझाने के साथ ही माता-पिता और शिक्षकों से बेझिझक बातचीत करने से बढ़ता है। 
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