श्रीमद्भागवत पुराण में लिखा है कलयुग में बिना विवाह के रहेंगे लोग

अनिरुद्ध जोशी
एक सभ्य समाज में सबसे घातक प्रचलन चला है लिव इन रिलेशनशिप। इसे अब कानूनी मान्यता मिल चुकी है। कई लोग अब कुछ साल लिव इन में रहने के बाद दूसरे के साथ रहने चले जाते हैं और अब यह रिश्ता अपराध के चरम स्तर पर पहुंच चुका है। लिव-इन सम्बन्ध या लिव-इन रिलेशनशिप एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें दो लोग जिनका विवाह नहीं हुआ है, साथ रहते हैं और एक पति-पत्नी की तरह आपस में शारिरिक सम्बन्ध बनाते हैं। बाद में मर्जी होती है तब शादी कर लेते हैं अन्यथा अलग अलग हो जाते हैं।
 
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अंधकार काल में विवाह जैसा कोई संस्कार नहीं था। कोई भी पुरुष किसी भी स्त्री से यौन-संबध बनाकर संतान उत्पन्न कर सकता था। समाज में रिश्ते और नाते जैसी कोई व्यवस्था नहीं होने के कारण मानव जंगली नियमों को मानता था। पिता का ज्ञान न होने से मातृपक्ष को ही प्रधानता थी तथा संतान का परिचय माता से ही दिया जाता था। धरती पर सर्वप्रथम आर्यों या कहें कि वैदिक ऋषियों ने ही मानव को सभ्य बनाने के लिए सामाजिक व्यवस्थाएं लागू की और लोगों को एक सभ्य समाज में बांधा। पाशविक व्यवस्था को परवर्ती काल में ऋषियों ने चुनौती दी तथा इसे पाशाविक संबध मानते हुए नए वैवाहिक नियम बनाए। ऋषि श्वेतकेतु का एक संदर्भ वैदिक साहित्य में आया है कि उन्होंने मर्यादा की रक्षा के लिए विवाह प्रणाली की स्थापना की और तभी से कुटुंब-व्यवस्था का श्री गणेश हुआ। परंतु अब मनुष्य पुन: अंधाकार काल में लौटने की तैयारी कर रहे हैं। बस फर्क यह होगा कि उस काल के लोगों के पास पक्के मकान नहीं थे और ना ही हाथ में मोबाइल।..

श्रीमद्भागवत पुराण में ऐसे लोगों के होने की पहले ही भविष्यवाणी कर दी गई थी।
 
दाम्पत्येऽभिरुचिर्हेतुः मायैव व्यावहारिके ।
स्त्रीत्वे पुंस्त्वे च हि रतिः विप्रत्वे सूत्रमेव हि ॥ श्लोक-3
अर्थ- इस युग में पुरुष-स्त्री बिना विवाह के ही केवल एक-दूसरे में रूचि के अनुसार साथ रहेंगे। व्यापार की सफलता छल पर निर्भर करेगी। कलयुग में ब्राह्मण सिर्फ एक धागा पहनकर ब्राह्मण होने का दावा करेंगे।
 
अनाढ्यतैव असाधुत्वे साधुत्वे दंभ एव तु ।
स्वीकार एव चोद्वाहे स्नानमेव प्रसाधनम् ॥ श्लोक-8
अर्थ- इस युग में जिस व्यक्ति के पास धन नहीं होगा वो अधर्मी, अपवित्र और बेकार माना जाएगा। विवाह दो लोगों के बीच बस एक समझौता होगा और लोग बस स्नान करके समझेंगे की वो अंतरात्मा से शुद्ध हो गए हैं।
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कुलनाशक विवाह : विवाह करके एक पत्नी व्रत धारण करना ही सभ्य मानव की निशानी है। इस प्रथा से व्यक्ति जहां पिता, दादा और ससुर आदि बनता है वहीं वह अपने कुल-खानदान को तारने वाला भी होता है, लेकिन जो पुरुष या स्त्री किसी धार्मिक रीति से विवाह न करके तथाकथित आपसी समझ के माध्यम से संबंधों में रहते हैं उनका व्यक्तित्व और जीवन इसी बात से प्रकट होता है कि वे क्या हैं। वर्तमान काल में कुछ लोग लिव इन रिलेशनशिप में रहकर समाज को दूषित कर विवाह संस्था को खत्म करने में लगे हैं, लेकिन यह उनकी भूल है। यह विवाह संस्था की उपयोगिता को और मजबूत करेगी, क्योंकि लीव इन में रहने वालों का पतन तभी सुनिश्चत हो जाता है जबकि वे ऐसा रहने का तय करते हैं। इस मामले में लड़का हमेशा फायदे में ही रहता है क्योंकि जहां यह बहुविवाह का एक आधुनिक रूप है वहीं यह पाशाविक संबध है।
 
वर्तमान में देखा गया है कि उक्त निषेध तरह के विवाह का प्रचलन भी बढ़ा है जिसके चलते समाज में बिखराव, पतन, अपराध, हत्या, आत्महत्या आदि को स्वाभाविक रूप से देख सकते हैं। इस तरह के विवाह कुलनाश और देश के पतन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते आए हैं। आधुनिकता के नाम पर निषेध विवाह को बढ़ावा देना देश और धर्म के विरुद्ध ही है। खैर..
 
मनमानी रीति से विवाह : ऐसे भी कई लोग हैं जो विधिवत वैदिक हिंदू रीति से विवाह न करके अन्य मनमानी रीति से विवाह करते हैं। वे यह मुहूर्त, समय, अष्टकूट मिलान, मंगलदोष आदि की भी परवाह नहीं करते हैं। इसका दूष्परिणाम भी स्वत: ही प्रकट होता है।
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दरअसल, हिन्दू धर्म में विवाह एक संस्कार ही नहीं है यह पूर्णत: एक ऐसी वैज्ञानिक पद्धति है जो व्यक्ति के आगे के जीवन को सुनिश्चत करती है और जो उसके भविष्य को एक सही दशा और दिशा प्रदान करती है। हिन्दू धर्म में विवाह एक अनुबंध या समझौता नहीं है यह भलीभांति सोच समझकर ज्योतिषीय आधार पर प्रारब्ध और वर्तमान को जानकर तय किया गया एक आत्मिक रिश्ता होता है। इस विवाह में किसी भी प्रकार का लेन-देन नहीं होता है। हिन्दू विवाह संस्कार अनुसार बेटी को देना ही सबसे बड़ा दहेज होता है। हालांकि शास्त्रों में कहीं भी दहेज शब्द का उल्लेख नहीं मिलता है। यह प्रथा समाज द्वारा प्रचलित है।

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