विंध्याचल पर्वत माला का पौराणिक महत्व और परिचय, जानिए

अनिरुद्ध जोशी
यह पर्वत प्राचीन भारत के सप्तकुल पर्वतों में से एक है। विंध्य' शब्द की व्युत्पत्ति 'विध्' धातु से कही जाती है। भूमि को बेध कर यह पर्वतमाला भारत के मध्य में स्थित है। यही मूल कल्पना इस नाम में निहित जान पड़ती है। विंध्य की गणना सप्तकुल पर्वतों में है। विंध्य का नाम पूर्व वैदिक साहित्य में नहीं है। इस पर्वत श्रंखला का वेद, महाभारत, रामायण और पुराणों में कई जगह उल्लेख किया गया है।
 
 
विंध्य पहाड़ों की रानी विंध्यवासिनी माता है। मां विंध्यवासिनी देवी मंदिर (मिरजापुर, उ.प्र.) श्रद्धालुओं की आस्था का प्रमुख केन्द्र है। देश के 51 शक्तिपीठों में से एक है विंध्याचल।
 
 
विध्यांचल पर्वतश्रेणी पहाड़ियों की टूटी-फूटी श्रृंखला है, जो भारत की मध्यवर्ती उच्च भूमि का दक्षिणी कगार बनाती है। यह पर्वतमाल भारत के पश्चिम-मध्य में स्थित प्राचीन गोलाकार पर्वतों की श्रेणियां है, जो भारत उपखंड को उत्तरी भारत व दक्षिणी भारत में बांटती है। इस पर्वतमाला का विस्तार उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात, बिहार तक लगभग 1,086 कि.मी. तक विस्तृत फैला है। हालांकि इसकी कई छोटी बड़ी पहाड़ियों को विकास का नाम पर काट दिया गया है। इन श्रेणियों में बहुमूल्य हीरे युक्त एक भ्रंशीय पर्वत भी हैं।
 
 
इसकी प्रमुख नदियां : पहाड़ों के कटने से यहां से निकलने वाली नदियों का अस्तित्व भी संकट में है। विंध्य पर्वत में से उद्गम पाने वाली नदियां- शिप्रा या भद्रा (सिप्रा), पयोष्णी, निर्विध्या (नेबुज), तापी निषधा या निषधावती (सिंद), वेण्वा या वेणा (वेणगंगा), वैतरणी (बैत्रणी), सिनीवाली या शिति बाहू , कुमुद्वती (स्वर्ण रेखा), करतोया या तोया (ब्राह्मणी), महागौरी (दामोदर), और पूर्णा, शोण (सोन), महानद (महानदी, और नर्मदा। मध्यप्रदेश और गुजरात की सरकार ने मिलकर सबसे बड़ी नर्मदा नदी की हत्या कर दी है। इस एक नदी के कारण संपूर्ण मध्यप्रदेश और गुजरात के जंगल हरे भरे और पशु पक्षी जीवंत रहते थे। लेकिन अब बांध बनाकर एक ओर जहां नदी के जलचर जंतु मर गए है।
 
 
प्राकृति संपदा : भारत में पर्यावरण विनाश की सीमा अरावली पर्वत श्रेणियों और पश्चिम के घाटों तक ही सीमित नहीं हैं, मध्यक्षेत्र में भी बेतरतीब ढंग से जारी रहकर प्राकृतिक संपदाओं के दोहन के कारण सतपुड़ा और विंध्याचल की पर्वत श्रेणियां तो खतरे में हैं ही अनेक जीवनदायी नदियों का वजूद भी संकट में है। वे लोग देशद्रोही है जो अपनी ही धरती को छलनी कर उसे विकास के नाम पर नष्ट कर रहे हैं।
 
 
पुराणों अनुसार :  इसके अंतर्गत रोहतासगढ़, चुनारगढ़, कलिंजर आदि अनेक दुर्ग हैं तथा चित्रकूट, विन्ध्याचल आदि अनेक पावन तीर्थ हैं। पुराणों के अनुसार इस पर्वत ने सुमेरू सेर् ईष्या रखने के कारण सूर्यदेव का मार्ग रोक दिया था और आकाश तक बढ़ गया था, जिसे अगस्त्य ऋषि ने नीचे किया। यह शरभंग, अगस्त्य इत्यादि अनेक श्रेष्ठ ऋषियों की तप:स्थली रहा है। हिमालय के समान इसका भी धर्मग्रंथों एवं पुराणों में विस्तृत उल्लेख मिलता है।
 
 
अगस्‍त्‍य मुनि : दक्षिण भारत और हिदु महासागर से संबंधि अगस्ति (अगस्‍त्‍य) मुनि की गाथा है। उन्‍होंने विंध्‍याचल के बीच से दक्षिण का मार्ग निकाला। किंविंदंती है कि विंध्‍याचलपर्वत ने उनके चरणों पर झुककर प्रणाम किया। उन्‍होंने आशीर्वाद देकर कहा कि जब तक वे लौटकर वापस नहीं आते, वह इसी प्रकार झुका खड़ा रहे। वह वापस लौटकर नहीं आए और आज भी विंध्‍याचल पर्वत वैसे ही झुका उनकी प्रतीक्षा कर रहा है।
 
 
विंध्यांचल के जंगल : विंध्यांचल पर्वत श्रेणियों के दोनों तरफ घने जंगल हैं, जो अब शहरी आबादी और विकास के चलते काट दिए गए हैं। अन जंगलों में शेर, चीते, भालु, बंदर, हिरणों के कई झुंड होते थे ‍जो अब दर बदर हैं। अब चंबल, सतपुड़ा और मालवा के पठारी इलाके में ही कुछ जंगल बचे हैं। यहां की पर्वतों की कंदराओं में कई प्राचीन ऋषियों के आश्रम आज भी मौजूद हैं। यह क्षेत्र पहले ऋषि मुनियों का तप स्थल हुआ करता था। पर्वतों की कंदराओं में साधना स्थल, दुर्लभ शैल चित्र, पहा़ड़ों से अनवरत बहती जल की धारा, गहरी खाईयां और चारों ओर से घिरे घनघोर जंगलों पर अब संकट के बादल घिर गए हैं। यहीं पर भीम बैठका जैसी गुफाएं हैं।
 

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