जब चंद्रगुप्त हार गया धनानंद से...

चाणक्य का जीवन और भारत का निर्माण- भाग तीन

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गतांक से आगे...

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... राक्षस ने सभी को संबोधित करते हुए कहा- ऐसे किसी भी कृत्य को सख्ती से कुचलना सभी संघों और सेनापतियों की जिम्मेदारी है। सभी को यह सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि अब इस तरह की किसी भी प्रकार की धार्मिक गतिविधियों को राज्य में संचालित नहीं किया जाए।

और इस तरह राज्य में षड्‍यंत्र और हत्याओं का दौर शुरू हो गया... अब आगे

चाणक्य की कहानी- भाग एक

और वह दिन भी आ गया जिसके लिए 'राष्ट्रीय सेना' का गठन किया गया था। चाणक्य के इशारे पर चंद्रगुप्त ने विद्रोह का बिगुल बजा दिया। तक्षशिला के सीमांत क्षेत्रों से विद्रोह के समाचार आने लगे। एक और चंद्रगुप्त ने 'राष्ट्रीय सेना' के साथ मगध को चारों और से घेर लिया था तो दूसरी ओर चाणक्य ने अन्य राजाओं से मिलकर मगध के खिलाफ राष्ट्रीय स्तर पर समर्थन जुटाने का कार्य शुरू कर दिया। अमात्य राक्षस और कात्यायन को समझ में नहीं आ रहा था कि यह अचानक हो क्या रहा है। चाणक्य की कूटनीति के कारण उनके गुप्तचर चंद्रगुप्त तक पहुंच नहीं पा रहे थे और उन्हें न तो चाणक्य की कोई सूचना मिलती और न ही चंद्रगुप्त की।

दूसरा भाग पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें..कैसे ढूंढा चाणक्य ने चंद्रगुप्त को


अंतत: राक्षस के सचेत रहने से नंद की सेना भी सेनापति वक्रराज एवं उनके अधीन राजाओं सन्नधराज और सिंहनाद के नेतृत्व में युद्धभूमि में आ डटी। उन्होंने चंद्रगुप्त की सेना से मुकाबला करना शुरू कर दिया। मगध की विशाल और अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित सेना के आगे चंद्रगुप्त की अल्प लेकिन साहसी सेना मुकाबला कर रही थी। लेकिन जब चंद्रगुप्त ने देखा कि मैं किसी भी समय मगध की सेना से घिर सकता हूं तो उसने भागने का निश्चय किया।

और वह अपने घोड़े को तेज गति से दौड़ाता हुआ, सैनिकों से बीच से बचता हुआ अंतत: अपने अज्ञात शिविर में लौट गया।

अगले पन्ने पर, शिविर में लौटने के बाद उसने क्या देखा...


शिविर में पहुंचकर उसने देखा कि वहां पहले से ही विराजमान थे चाणक्य। चाणक्य ने चंद्रगुप्त को हताश देखकर सांत्वनाभरे स्वर में कहा- 'वीर पुरुष, जय-पराजय पर आंसू नहीं बहाते। उनका कार्य मात्र लक्ष्य का पीछा करना होता है। इस पराजय से शिक्षा लो और क्यों पराजित हुए, इसकी खोज करो।'

कुछ देर रुकने के बाद चाणक्य ने चंद्रगुप्त की ओर पीठ करके कहा- अपनी शक्ति पुन: एकत्रित करो, पुन: लोगों में उत्साह भरो, किंतु चुप और गुपचुप रहकर, क्योंकि राक्षस अब चुप नहीं बैठेगा। उसके गुप्तचर चारों ओर फैल गए हैं। अब तुम्हारे लिए चुनौती बढ़ गई है। तुम्हारी गुप्तचर व्यवस्था को और सुदृढ़ करो।

फिर पुन: चंद्रगुप्त की ओर मुड़कर चाणक्य ने कहा- सावधान! रणक्षेत्र में तो मेरी युक्ति काम कर गई थी जिसके चलते तुम बच निकलने में सफल रहे, क्योंकि मैंने तुम्हारे ही दो समरूप को युद्ध के अग्रिम मोर्चे पर भेज दिया था। राक्षस उस समरूप के जाल में फंस गया और उसमें से एक वीरगति को प्राप्त हुआ दूसरा बंदी बना लिया गया है। अब तुम्हें और सावधान रहने की जरूरत है। इस शिविर तक राक्षस के सैनिक कभी भी पहुंच सकते हैं।

चाणक्य की बात सुनकर चंद्रगुप्त अवाक् रह गया।

अगले पन्ने पर...चाणक्य और चंद्रगुप्त एक आदिवासी महिला की सीख...


चंद्रगुप्त और चाणक्य ने शिविर को छोड़ा और जंगल की ओर निकल पड़े। दोनों वेश बदल-बदलकर ग्रामीण इलाकों में या जंगलों में आदिवासियों के बीच रहते। एक शाम दोनों को भूख सता रही थी तो वे एक झोपड़ी के पास रुके। उन्होंने झोपड़ी के भीतर झांककर देखा।

झोपड़ी के भीतर एक बालक बैठा था। वह भोजन कर रहा था। उसके सामने कुछ रोटियां रखी थीं। वो रोटियों को मध्‍य से खाता और किनारे सुरक्षित छोड़ देता था। शायद किनारे कुछ मोटे होने कारण उसे खाने में दिक्कत हो रही थी। यह देख उसकी मां ने कहा- बेटा खाना ठीक से खाओ। उस चंद्रगुप्त की तरह मत करो।

बेटे ने कहा- मां! मैं तो ठीक तरह से ही तो खा रहा हूं।

मां ने कहा- नहीं बेटा। तुम चंद्रगुप्त की तरह ही भूल कर रहे हो।

इस बात को सुनकर चाणक्य से न रहा गया। वे भूल गए अपनी भूख को और उन्हें यह जानने की तीव्र इच्छा होने लगी कि चंद्रगुप्त ने ऐसी क्या भूल की है कि जो मैं भी नहीं समझ पाया। यह सोचते हुए वे झोपड़ी में भीतर आ गए।

एक आगंतुक को आया देख स्त्री ने खड़े होकर उन्हें कहा- जी! कहिए...?

चाणक्य बोले- बहिन! इधर से जा रहे थे कि प्यास लगी तो यहां चले आए। यहां आकर देखा कि आप अपने बालक को डांट रही हैं और डांटते वक्त चंद्रगुप्त का उदाहरण दे रही हैं। ऐसी क्या भूल कर दी उस वीर पुरुष ने, जो कि उसकी भूल आपको इतनी चुभ रही है।

उस स्त्री ने पहले तो चाणक्य को घूरकर देखा फिर कहा- हमने उससे बहुत आस लगाई थी। सोचा था कि अब अच्छा राज आएगा। क्रूर शासन का अंत होगा लेकिन उसकी भूल के कारण वह हारा ही नहीं, बल्कि उसने हम सभी के सपने तोड़ दिए।

कुछ देर रुकने के बाद वह बोली- उसने उतावलेपन से काम किया और सीधे पाटलीपुत्र पर ही आक्रमण कर दिया। उसे पहले तक्षशिला के आसपास के क्षेत्रों पर विजय प्राप्त कर उनको अपने अधीन रखना था फिर शक्ति बढ़ाकर अंत में तक्षशिला पर आक्रमण करना था अर्थात वह किनारे को छोड़कर मध्य में आक्रमण करने लगा था।

उस स्त्री के वाक्य चाणक्य के हृदय में तीर की तरह उतर गए और उन्होंने फिर से अपनी रणनीति पर विचार करना शुरू कर दिया।

चाणक्य और चंद्रगुप्त की अगली योजना, अगले पन्ने पर..


इधर चंद्रगुप्त ने सीमावर्ती नगरों के वासियों को विश्वास दिलाया कि धनानंद का हटाया जाना कितना और क्यों अनिवार्य है और उधर चाणक्य कैकेय नरेश पुरु से मिलने पहुंच गए। पुरु भी अपने साम्राज्य विस्तार की योजना बना रहे थे और वे धनानंद से मन ही मन शत्रुता रखते थे, लेकिन उनकी कभी मगध पर आक्रमण करने की हिम्मत नहीं हुई।

चाणक्य ने पुरुराज को विश्वास में लिया और उन्होंने कहा कि मगध के नए शासक के रूप में मैंने चंद्रगुप्त को तैयार किया। अंतत: दोनों के बीच भारत के विशाल क्षेत्र के बंटवारे को लेकर भी चर्चा हुई। उन्होंने कहा कि मगध का कुछ भाग आपको दे दिया जाएगा, क्योंकि मगध बहुत ही विशाल क्षेत्र था।

पुरु ने बहुत सोच-विचार के बाद पूछा- लेकिन हम किस तरह से धनानंद से लड़ेंगे? तब चाणक्य ने कहा कि हम सिकंदर की बची हुई सेना, आदिवासियों और विशाल जनसमर्थन के सहारे आगे बढ़ेंगे। आपकी सेना इन सभी को प्रशिक्षण देगी।

पुरु ने चाणक्य की बात स्वीकार कर ली और अपने मंत्री को बुलाकर सैन्य तैयारी किए जाने का आदेश दिया।

अगले पन्ने पर, जब पुरु की सेना मगध की ओर कूच कर गई...


पुरु की विशाल सेना व्यास नदी पार कर चंद्रगुप्त की सेना से मिल गई और एक विशालकाय क्षेत्र में सैन्य छावनी बन गई। विशाल सेना को देख चंद्रगुप्त ने अपने गुरु चाणक्य को प्रणाम किया और वे हर्षित हो उठे।

चाणक्य ने उत्साह के साथ कहा- आर्य! अब समय आ गया है कि तुम मगध पर आक्रमण करो।

उन्होंने कहा- तुम्हारे मार्ग को सरल बनाने के लिए पुरु की सेना लेकर आया हूं। इन सबका संचालन करो।

चंद्रगुप्त ने कहा- गुरु श्रेष्ठ! सचमुच आप महान हैं। आप तो हमारे वर्तमान और भविष्य के संचालक हैं। आपके होते यह चंद्रगुप्त कभी निराश नहीं हुआ। आज आपने चंद्रगुप्त की भुजाओं में हाथियों का बल भर दिया है।

उस रात सैन्य शिविर में युद्ध की रणनीति बनाई गई। सेना को चार भागों में विभक्त किया और मुख्‍य सेना का संचालन स्वयं चंद्रगुप्त ने संभाला और शेष का संचालन कुशल योद्धाओं को सौंप दिया। इसमें से एक का संचालन कुमार मलय ने किया, दूसरे का सिंहाक्ष ने और तीसरी टुकड़ी का संचालन आदिवासियों के प्रमुख ने संभाला।

अगले अंक में मगध पर आक्रमण और...


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