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असुर गुरु शुक्राचार्य के दिए हुए तीन प्रसिद्ध शाप...

हमें फॉलो करें असुर गुरु शुक्राचार्य के दिए हुए तीन प्रसिद्ध शाप...

अनिरुद्ध जोशी

दानव और राक्षस अलग होते हैं। दैत्यों को असुर भी कहा जाता है। असुरों के गुरु शुक्राचार्य ने हमेशा असुरों का ही साथ दिया है, लेकिन एक बार उन्होंने असुरों को भी शाप दे दिया था। शुक्राचार्य में आशीर्वाद या शाप देकर विधि का विधान बदलने का सामर्थ्य था।
शिवभक्त शुक्राचार्य ने रावण का भी हर जगह साथ दिया था। असुरों के गुरु और हर समय उनकी रक्षा के लिए तत्पर रहने वाले शुक्राचार्य ने एक जगह पर असुरों को भी शाप दे दिया था। शुक्राचार्य के जितने प्रसिद्ध वरदान हैं उतने ही प्रसिद्ध शाप भी हैं। आओ जानते हैं उनके शाप के बारे में।
 
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खुद के दामाद को ययाति को दिया था शाप : इक्ष्वाकु वंश के राजा नहुष के 6 पुत्र थे- याति, ययाति, सयाति, अयाति, वियाति तथा कृति। याति परमज्ञानी थे तथा राज्य, लक्ष्मी आदि से विरक्त रहते थे इसलिए राजा नहुष ने अपने द्वितीय पुत्र ययाति का राज्याभिषेक कर दिया।
 
एक बार की बात है कि दैत्यराज वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा और गुरु शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी अपनी सखियों के साथ अपने उद्यान में घूम रही थी। शर्मिष्ठा अति सुन्दर राजपुत्री थी, तो देवयानी असुरों के महागुरु शुक्राचार्य की पुत्री थी। दोनों एक-दूसरे से सुंदरता के मामले में कम नहीं थीं। वे सबकी सब उस उद्यान के एक जलाशय में अपने वस्त्र उतारकर स्नान करने लगीं।
 
उसी समय भगवान शंकर, पार्वती के साथ उधर से निकले। भगवान शंकर को आते देख वे सभी कन्याएं लज्जावश बाहर निकलकर व दौड़कर अपने-अपने वस्त्र पहनने लगीं। शीघ्रता में शर्मिष्ठा ने भूलवश देवयानी के वस्त्र पहन लिए। इस पर देवयानी अति-क्रोधित होकर शर्मिष्ठा से बोली, 'रे शर्मिष्ठा! एक असुर पुत्री होकर तूने ब्राह्मण कन्या का वस्त्र धारण करने का साहस कैसे किया? तूने मेरे वस्त्र धारण करके मेरा अपमान किया है।' 
 
देवयानी के अपशब्दों को सुनकर शर्मिष्ठा अपने अपमान से तिलमिला गई और देवयानी के वस्त्र छीनकर उसे एक कुएं में धकेल दिया। देवयानी को कुएं में धकेलकर शर्मिष्ठा के चले जाने के पश्चात राजा ययाति आखेट करते हुए वहां पर आ पहुंचे और अपनी प्यास बुझाने के लिए वे कुएं के निकट गए तभी उन्होंने उस कुएं में वस्त्रहीन देवयानी को देखा।
 
जल्दी से उन्होंने देवयानी की देह को ढंकने के लिए अपने वस्त्र दिए और उसको कुएं से बाहर निकाला। इस पर देवयानी ने प्रेमपूर्वक राजा ययाति से कहा, 'हे आर्य! आपने मेरा हाथ पकड़ा है अतः मैं आपको अपने पति-रूप में स्वीकार करती हूं। हे क्षत्रिय-श्रेष्ठ! यद्यपि मैं ब्राह्मण पुत्री हूं किंतु बृहस्पति के पुत्र कच के शाप के कारण मेरा विवाह ब्राह्मण कुमार के साथ नहीं हो सकता इसलिए आप मुझे अपने प्रारब्ध का भोग समझकर स्वीकार कीजिए।' ययाति ने प्रसन्न होकर देवयानी के इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया।
 
देवयानी वहां से अपने पिता शुक्राचार्य के पास आई तथा उनसे समस्त वृत्तांत कहा। शर्मिष्ठा के किए हुए कर्म पर शुक्राचार्य को अत्यंत क्रोध आया और वे दैत्यों से विमुख हो गए। इस पर दैत्यराज वृषपर्वा अपने गुरुदेव के पास आकर अनेक प्रकार से मान-मनौवल करने लगे।
 
बड़ी मुश्किल से शुक्राचार्य का क्रोध शांत हुआ और वे बोले, 'हे दैत्यराज! मैं आपसे किसी प्रकार से रूष्ट नहीं हूं किंतु मेरी पुत्री देवयानी अत्यंत रूष्ट है। यदि तुम उसे प्रसन्न कर सको तो मैं पुन: तुम्हारा साथ देने लगूंगा।'
 
वृषपर्वा ने देवयानी को प्रसन्न करने के लिए उससे कहा, 'हे पुत्री! तुम जो कुछ भी मांगोगी, मैं तुम्हें वह प्रदान करूंगा।' 
 
देवयानी बोली, 'हे दैत्यराज! मुझे आपकी पुत्री शर्मिष्ठा दासी के रूप में चाहिए।' अपने परिवार पर आए संकट को टालने के लिए शर्मिष्ठा ने देवयानी की दासी बनना स्वीकार कर लिया।
 
शुक्राचार्य ने अपनी पुत्री देवयानी का विवाह राजा ययाति के साथ कर दिया। शर्मिष्ठा भी देवयानी के साथ उसकी दासी के रूप में ययाति के भवन में आ गई। देवयानी के पुत्रवती होने पर शर्मिष्ठा ने भी पुत्र की कामना से राजा ययाति से प्रणय-निवेदन किया जिसे ययाति ने स्वीकार कर लिया। राजा ययाति के देवयानी से 2 पुत्र यदु तथा तुवर्सु और शर्मिष्ठा से 3 पुत्र द्रुह्यु, अनु तथा पुरु हुए।
 
बाद में जब देवयानी को ययाति तथा शर्मिष्ठा के संबंध के विषय में पता चला तो वह क्रोधित होकर अपने पिता के पास चली गई। शुक्राचार्य ने राजा ययाति को बुलवाकर कहा, 'रे ययाति! तू स्त्री-लम्पट है इसलिए मैं तुझे शाप देता हूं कि तुझे तत्काल वृद्धावस्था प्राप्त हो।'
 
उनके शाप से भयभीत हो राजा ययाति गिड़गिड़ाते हुए बोले, 'हे दैत्य गुरु! आपकी पुत्री के साथ विषय-भोग करते हुए अभी मेरी तृप्ति नहीं हुई है। इस शाप के कारण तो आपकी पुत्री का भी अहित है।' तब कुछ विचार करके शुक्राचार्यजी ने कहा, 'अच्छा! यदि कोई तुझे प्रसन्नतापूर्वक अपनी यौवनावस्था दे तो तुम उसके साथ अपनी वृद्धावस्था को बदल सकते हो।'
 
इसके पश्चात राजा ययाति ने अपने ज्येष्ठ पुत्र से कहा, 'वत्स यदु! तुम अपने नाना द्वारा दी गई मेरी इस वृद्धावस्था को लेकर अपनी युवावस्था मुझे दे दो।' 
 
इस पर यदु बोला, 'हे पिताजी! असमय में आई वृद्धावस्था को लेकर मैं जीवित नहीं रहना चाहता इसलिए मैं आपकी वृद्धावस्था को नहीं ले सकता।'
 
ययाति ने अपने शेष पुत्रों से भी इसी प्रकार की मांग की, लेकिन सभी ने कन्नी काट ली, लेकिन सबसे छोटे पुत्र पुरु ने पिता की मांग को स्वीकार कर लिया।
 
पुन: युवा हो जाने पर राजा ययाति ने यदु से कहा, 'तूने ज्येष्ठ पुत्र होकर भी अपने पिता के प्रति अपने कर्तव्य को पूर्ण नहीं किया अतः मैं तुझे राज्याधिकार से वंचित करके अपना राज्य पुरु को देता हूं। मैं तुझे शाप भी देता हूं कि तेरा वंश सदैव राजवंशियों द्वारा बहिष्कृत रहेगा।'
 
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दंड को दिया शाप : रामचरिच मानस के अनुसार महर्षि अगस्त्य से श्‍वेत की कथा सुनकर श्री रामचन्द्र ने पूछा, 'मुनिराज! कृपया यह और बताइए कि जिस भयंकर वन में विदर्भराज श्‍वेत तपस्या करते थे, वह वन पशु-पक्षियों से रहित क्यों हो गया था?'
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रघुनाथजी की जिज्ञासा सुनकर महर्षि अगस्त्य ने बताया, 'सतयुग की बात है, जब इस पृथ्वी पर मनु के पुत्र इक्ष्वाकु राज्य करते थे। राजा इक्ष्वाकु के 100 पुत्र उत्पन्न हुए। उन पुत्रों में सबसे छोटा मूर्ख और उद्‍दंड था। इक्ष्वाकु समझ गए कि इस मंदबुद्धि पर कभी न कभी दंडपात अवश्य होगा इसलिए वे उसे 'दंड' के नाम से पुकारने लगे। जब वह बड़ा हुआ तो पिता ने उसे विन्ध्य और शैवल पर्वत के बीच का राज्य दे दिया। दंड ने उस स्थान का नाम मधुमंत रखा और शुक्राचार्य को अपना पुरोहित बनाया।
 
एक दिन राजा दंड भ्रमण करता हुआ शुक्राचार्य के आश्रम की ओर पहुंच गया। वहां उसने शुक्राचार्य की अत्यंत लावण्यमयी कन्या अरजा को देखा। वह काम-पीड़ित होकर उसके साथ बलात्कार करने लगा। जब शुक्राचार्य ने अरजा की दुर्दशा देखी तो उन्होंने शाप दिया कि दंड 7 दिन के अंदर अपने पुत्र, सेना आदि सहित नष्ट हो जाए। इन्द्र ऐसी भयंकर धूल की वर्षा करेंगे जिससे उसका संपूर्ण राज्य ही नहीं, पशु-पक्षी तक नष्ट हो जाएंगे। फिर अपनी कन्या से उन्होंने कहा कि तू इसी आश्रम में इस सरोवर के निकट रहकर ईश्‍वर की आराधना और अपने पाप का प्रायश्‍चित कर। जो जीव इस अवधि में तेरे पास रहेंगे, वे धूल की वर्षा से नष्ट नहीं होंगे। शुक्राचार्य के शाप के कारण दंड, उसका राज्य और पशु-पक्षी आदि सब नष्ट हो गए। तभी से यह भू-भाग दंडकारण्य कहलाता है।'
 
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शुक्राचार्य ने दिया असुरों को शाप : एक अबला स्त्री के वध के कारण महर्षि भृगु ने श्रीविष्णु को शाप दिया कि तुम 7 बार मनुष्य लोक में जन्म लोगे। भृगु के इस शाप के वशीभूत होकर ही श्रीविष्णु को पृथ्वी पर जन्म लेना पड़ा। भृगु ने जल छिड़ककर यह कहते हुए कहा कि विष्णु के द्वारा मारी गई अबला महिला, तुझको मैं पुन: जीवित करता हूं। यदि मैं सत्य पर हूं तो तुम अवश्य जी उठोगी। ऐसा कहते ही वह देवी पुन: जी उठी। यह चमत्कार देखकर इंद्र अत्यंत अभिभूत हो उठे। उन्होंने अपनी पुत्री जयंती को शुक्राचार्य को प्रसन्न करने के लिए भेजा ताकि उसके उनसे विवाह हो सके। जयंती ने पिता के कथनानुसार महाराज शुक्राचार्य की तप के दौरान अत्यंत सेवा की।
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भगवान शंकर शुक्राचार्य के तप से अत्यंत प्रसन्न हुए तथा उनसे बोले- 'भृगुनंदन! तुम्हारी कठोर तपस्या से मैं प्रसन्न हूं। तुम अपने तेज तथा पराक्रम से देवों पर विजय प्राप्त करोगे।' यह वरदान पाकर शुक्राचार्य ने अनेक प्रकार से शंकर महादेव की स्तुति की। देवेश के अंतरनिहित हो जाने पर अपने सामने जयंती को देखकर शुक्राचार्य ने कहा- 'सुंदरी! तुम कौन हो? मेरे दुख के समय दुख उठाने वाली तुम किसकी पुत्री हो? तुम क्या चाहती हो? मैं तुम्हारी क्या कामना पूरी करूं?'
 
जयंती ने कहा, 'देव! आप त्रिकालदर्शी हैं, आप स्वयं मेरा मनोरथ जानते हैं।'
 
यह सुनकर शुक्राचार्य ने दिव्य दृष्टि से उसे पहचानकर कहा- 'हे इन्द्र पुत्री! तुम यहां मेरी सेवार्थ आई हो, मेरे साथ 10 वर्षों तक तुम निवास करना चाहती हो। चलो हम निवास स्थान की ओर चलते हैं।' इस प्रकार शुक्राचार्य ने 10 वर्ष तक जयंती के साथ निवास किया।
 
इस 10 वर्ष के काल में इस बीच देवगुरु बृहस्पति ने शुक्राचार्य का छद्म रूप धारण कर लिया और शुक्राचार्य के दर्शनों को आए असुरों को कठोर तप के बाद प्राप्त विद्या सिखाने का बहाना करके उन्हें माया से मोहित कर लिया। सभी असुर ऋषि बृहस्पति को ही अपना गुरु शुक्राचार्य समझकर उनकी आज्ञा का पालने करते रहे।
 
जब शुक्राचार्य का जयंती से मोहभंग हुआ और उन्हें ज्ञात हुआ कि बृहस्पति ने अनेक रूपों में असुरों को ठग लिया है तो उन्होंने असुरों के समक्ष जाकर कहा, 'असुरों! शुक्राचार्य तो मैं हूं, यह तो अंगिरा पुत्र बृहस्पति है। मुझे खेद है कि मेरे रहते तुम ठगे रहे।' अपने समक्ष 2-2 शुक्राचार्य को देखकर असुर किंकर्तव्यविमूढ़-से हो गए। वे दोनों ही गुरुओं की ओर देखने लगे। 
 
बृहस्पति ने भी दैत्यों से उसी प्रकार अधिकारपूर्वक कहा, 'दैत्यों! तुम्हारे गुरु शुक्राचार्य हम ही हैं। यह जो सामने हैं यह स्वयं अंगिरा पुत्र बृहस्पति है।'
 
बृहस्पति द्वारा दृढ़ निश्चयी होकर कही गई बातें सुनकर असुरों ने समझा कि ये ही हमारे वास्तविक गुरु हैं, जो 10 वर्षों से हमें विद्याध्ययन करा रहे हैं।' 
 
तब सभी असुर वास्तविक शुक्राचार्य पर क्रोधित होकर उन्हें अनर्गल बातें कहने लगे। ऐसे में दैत्य गुरु शुक्राचार्य को मोहित हुए असुरों पर क्रोध आने लगा। जब किसी भी प्रकार से असुरों की तंद्रा भंग नहीं हुई तो उन्होंने कहा- 'अरे असुरों! तुम्हारी बुद्धि मारी गई है। जाओ, मैं शाप देता हूं कि तुम्हारी पराजय होगी।' यह कहकर शुक्राचार्य चले गए।
 
अपने उद्देश्य में सफल बृहस्पति प्रसन्न हुए तथा यह जानकर कि असुरगण अपने उद्देश्य में विफल हो गए, वे अपने वास्तविक रूप में आ गए। असुरों को गुरु बृहस्पति का वास्तविक रूप देखकर घोर पश्‍चाताप हुआ। तब वे पीछे-पीछे दौड़े-दौड़े अपने वास्तविक गुरु शुक्राचार्य की शरण में पहुंचे, लेकिन शाप का प्रभाव तो खत्म नहीं हो सकता था अतः दैत्यों को पराजय तो झेलनी ही थी।


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