जामवंत की बात सुनकर घबरा गया रावण और बन गया पुरोहित

अनिरुद्ध जोशी
तमिल भाषा में लिखी महर्षि कम्बन की रामायण 'इरामावतारम्' में एक कथा का उल्लेख मिलता है। यह कथा हमें वाल्मिकी रामायण और तुलसीदासकृत रामचरित मानस में नहीं मिलती है। वाल्मिकी रामायण के इतर भी रामायण काल की कई घटनाओं का जिक्र हमें इरामावतारम्, अद्भुत रामायण और आनंद रामायण में मिलता है।
 
 
'इरामावतारम्' रामायण की कथा अनुसार भगवान श्रीराम ने तमिलनाडु के एक विशेष स्थान पहुंचकर युद्ध की तैयारी की और रावण से युद्ध करने के पूर्व वहां पर भगवान शिव के 'शिवलिंग' की स्थापना करने का विचार किया। आज उस स्थान को रामेवश्वरम नाम से जाना जाता है। रामेश्वरम में शिवलिंग की स्थापना करने हेतु किसी योग्य आचार्य या पुरोहित की आवश्यकता था। ऐसे में विद्वानों ने श्रीराम को रावण को बुलाने के लिए कहा, क्योंकि रावण विद्वान पंडित और पुरोहित था और वह शिवभक्त भी था।
 
 
अंत में श्रीराम ने जामवंतजी को रावण को आचार्यत्व का निमंत्रण देने के लिए लंका भेजा। जामवंतजी भी कुंभकर्ण की तरह आकार में बहुत बड़े थे। वे जब लंका पहुंचे तो लंका के प्रहरी भी हाथ जोड़कर उनको रावण के महल की ओर जाने वाला मार्ग दिखा रहे थे। महल के द्वार पर स्वंय रावण उनके अभिनंदन के लिए पहुंचा।
 
तब जामवंत जी ने मुस्कुराते हुए कहा कि मैं इस अभिनंदन का पात्र नहीं हूं। मैं वनवासी श्री राम का दूत बनकर आया हूं। उन्होंने तुम्हें सादर प्रणाम कहा है। यह सुनकर रावण ने कहा, 'आप हमारे पितामह के भाई हैं। इस नाते आप हमारे पूज्य हैं। आप कृपया आसन ग्रहण करें। यदि आप मेरा निवेदन स्वीकार कर लेंगे, तभी संभवतः मैं भी आपका संदेश सावधानी से सुन सकूंगा।'
 
 
जामवन्त ने आसन ग्रहण करने के बाद पुनः कहा, 'हे रावण! वनवासी प्रभु श्री राम ने सागर सेतु निर्माण के उपरांत अब यथाशीघ्र महेश्वर लिंग विग्रह की स्थापना करने का विचार प्रकट किया है। इस अनुष्ठान को सम्पन्न कराने के लिए उन्होंने ब्राह्मण, वेदज्ञ और शैव रावण को आचार्या पद पर वरण करने की इच्छा प्रकट की है। मैं उनकी ओर से आपको आमंत्रित करने आया हूं।'
 
रावण ने जामवंत की यह बात सुनकर हंसते हुए पूछा, 'क्या राम द्वारा शिवलिंग स्थापना लंका विजय की कामना से किया जा रहा है?
 
 
जामवंत ने कहा, 'आपका अनुमान सही है। श्रीराम की महेश्वर के चरणों में पूर्ण भक्ति है। जीवन में प्रथम बार किसी ने रावण को आचार्य बनने योग्य जाना है। क्या रावण इतना अधिक मूर्ख कहलाना चाहेगा कि वह भारतवर्ष के प्रथम प्रशंसित महर्षि पुलस्त्य के सगे भाई महर्षि वशिष्ठ के यजमान का आमंत्रण और अपने आराध्य की स्थापना हेतु आचार्य पद अस्वीकार कर दे?..कुछ देर रुकने के बाद जामवंत जी ने कहा, लेकिन हां। यह जांच तो नितांत आवश्यक है ही कि जब वनवासी श्री राम ने इतना बड़े आचार्य पद पर पदस्थ होने हेतु आमंत्रित किया है तब वह भी यजमान पद हेतु उचित अधिकारी हैं भी अथवा नहीं।
 
 
जामवंतजी के इस तरह बात पर रावण थोड़ा क्रुद्ध हो गया और उसने कहा, 'जामवंत जी। आप जानते ही हैं कि त्रिभुवन विजयी अपने इस शत्रु की लंकापुरी में आप पधारे हैं। यदि हम आपको यहां बंदी बना लें और आपको यहां से लौटने न दें तो आप क्या करेंगे?
 
रावण के ये वचन सुनकर जामवंत खुलकर हंसे और कहा, 'मुझे निरुद्ध करने की शक्ति समस्त लंका के दानवों के संयुक्त प्रयास में नहीं है, किन्तु मुझे किसी भी प्रकार की कोई विद्वत्ता प्रकट करने की न तो अनुमति है और न ही आवश्यकता।' 
 
कुछ देर रुकने के बाद जामवंत जी बोले, हे रावण! ध्यान रहे, मैं अभी एक ऐसे उपकरण के साथ यहां उपस्थित हूं, जिसके माध्यम से धनुर्धारी लक्ष्मण यह हम दोनों की यह वार्ता देख और सुन रहे हैं। जब मैं वहां से चलने लगा था तभी से धनुर्वीर लक्ष्मण वीरासन में बैठे हुए हैं। उन्होंने आचमन करके अपने त्रोण से पाशुपतास्त्र निकाल कर संधान कर लिया है और मुझसे कहा है कि जामवन्तजी! रावण से कह देना कि यदि आप में से किसी ने भी मेरा विरोध प्रकट करने की चेष्टा की तो यह पाशुपतास्त्र समस्त दानव कुल के संहार का संकल्प लेकर तुरन्त छूट जाएगा। इस कारण भलाई इसी में है कि आप मुझे अविलम्ब वांछित प्रत्युत्तर के साथ सकुशल और आदर सहित धनुर्धर लक्ष्मण के दृष्टिपथ तक वापस पहुंचने की व्यवस्था करें।'
 
 
जामवंत के ये वचन सुनकर उपस्थित सभी दानवगण भयभीत हो गए। रावण भी सोच में पड़ गया। वह भयभीत होकर सोचने लगा, पाशुपतास्त्र! महेश्वर का यह अमोघ अस्त्र तो सृष्टि में एक साथ दो धनुर्धर प्रयोग ही नहीं कर सकते। अब भले ही वह रावण पुत्र मेघनाथ के त्रोण में भी हो। जब लक्ष्मण ने उसे संधान स्थिति में ला ही दिया है, तब स्वयं भगवान शिव भी अब उसे रोक नहीं सकते। उसका तो कोई प्रतिकार है ही नहीं।'
 
 
यह सोचते हुए रावण ने अपने क्रोध को संभालते हुए जामवंत से सविनय कहा, 'आप पधारें। यजमान उचित अधिकारी है। उसे अपने दूत को संरक्षण देना आता है। प्रभु श्री राम से कहिएगा कि मैंने उसका आचार्यत्व स्वीकार कर लिया है। मैं समय पर पहुंच जाऊंगा।'
 
रामेश्वरम : चार दिशाओं में स्थित चार धाम हिंदुओं की आस्था के केंद्र ही नहीं बल्कि पौराणिक इतिहास का आख्यान भी हैं। इन्हीं चार धामों में से एक है दक्षिण भारत का काशी माना जाने वाला रामेश्वरम। यह सिर्फ चार धामों में एक प्रमुख धाम ही नहीं है बल्कि यहां स्थापित शिवलिंग को 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक माना जाता है। इस शिवलिंग की स्थापना भगवान श्रीराम ने की थी इसलिए इसे रामेश्वरम कहा जाता है।
 
 
रामेश्वर की अन्य कथा :
1. पहली कथा : पौराणिक ग्रंथों के अनुसार जब भगवान श्री राम ने लंका पर चढ़ाई की तो विजय प्राप्त करने के लिए उन्होंने समुद्र के किनारे शिवलिंग बनाकर भगवान शिव की पूजा की थी। इससे प्रसन्न होकर भगवान भोलेनाथ ने श्री राम को विजयश्री का आशीर्वाद दिया था। आशीर्वाद मिलने के साथ ही श्री राम ने अनुरोध किया कि वे जनकल्याण के लिए सदैव इस ज्योतिर्लिंग रूप में यहां निवास करें उनकी इस प्रार्थना को भगवान शंकर ने सहर्ष स्वीकार कर लिया था।
 
 
2.दूसरी कथा : इस कथा अनुसार जब भगवान श्री राम लंका पर विजय प्राप्त कर लौट रहे थे तो उन्होंने गंधमादन पर्वत पर विश्राम किया वहां पर ऋषि मुनियों ने श्री राम को बताया कि उन पर ब्रह्महत्या का दोष है जो शिवलिंग की पूजा करने से ही दूर हो सकता है। इसके लिए भगवान श्री राम ने हनुमान से शिवलिंग लेकर आने को कहा। हनुमान तुरंत कैलाश पर पहुंचें लेकिन वहां उन्हें भगवान शिव नजर नहीं आए अब हनुमान भगवान शिव के लिए तप करने लगे उधर मुहूर्त का समय बीता जा रहा था। अंतत: भगवान शिवशंकर ने हनुमान की पुकार को सुना और हनुमान ने भगवान शिव से आशीर्वाद सहित शिवलिंग प्राप्त किया लेकिन तब तक देर हो चुकी मुहूर्त निकल जाने के भय से माता सीता ने बालु से ही विधिवत रूप से शिवलिंग का निर्माण कर श्री राम को सौंप दिया जिसे उन्होंने मुहूर्त के समय स्थापित किया।
 
 
जब हनुमान वहां पहुंचे तो देखा कि शिवलिंग तो पहले ही स्थापित हो चुका है इससे उन्हें बहुत बुरा लगा। श्री राम हनुमान की भावनाओं को समझ रहे थे उन्होंने हनुमान को समझाया भी लेकिन वे संतुष्ट नहीं हुए तब श्री राम ने कहा कि स्थापित शिवलिंग को उखाड़ दो तो मैं इस शिवलिंग की स्थापना कर देता हूं। लेकिन लाख प्रयासों के बाद भी हनुमान ऐसा न कर सके और अंतत: मूर्छित होकर गंधमादन पर्वत पर जा गिरे होश में आने पर उन्हें अपनी गलती का अहसास हुआ तो श्री राम ने हनुमान द्वारा लाए शिवलिंग को भी नजदीक ही स्थापित किया और उसका नाम हनुमदीश्वर रखा।
 

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