विष्णु और भगवान शिव के बहुत सारे शत्रु थे। इन शत्रुओं के चलते ही धरती पर नए धर्मों और संस्कृतियों की उत्पत्ति के साथ ही युद्ध के नए-नए तरीकों और हथियारों का सृजन हुआ और इतिहास रचा गया। जलंधर, भस्मासुर, तारकासुर, त्रिपुरासुर, महिषासुर आदि शिव के द्रोही थे तो कालनेमि सहित सभी असुर भगवान विष्णु के शत्रु थे। बार-बार ये लोग जन्म लेते रहे हैं और विष्णु व शिव के खिलाफ कार्य करते रहे हैं।
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राम के काल में रावण तो कृष्ण के काल में कंस, बुद्ध के काल में देवव्रत तो कलि काल में भी कई लोग सक्रिय हैं। विद्वान लोग कहते हैं कि वे शत्रु आज भी सक्रिय हैं। आज हम आपको बताएंगे कि वे कौन हैं, जो कृष्ण के शत्रु हैं।
हालांकि भगवान कृष्ण ने यूं तो कई असुरों का वध किया जिनमें ताड़का, पूतना, शकटासुर, कालिया, नरकासुर आदि का वध किया था जिनकी उनसे कोई शत्रुता नहीं थी और वे असुर भी कोई शत्रुता नहीं रखते थे। वे सभी क्रूर थे और जनता उनसे त्रस्त थी। लेकिन कुछ ऐसे लोग थे, जो कृष्ण से सीधे-सीधे शत्रुता रखते थे। हालांकि कृष्ण ने उनसे कभी शत्रुता नहीं रखी। आओ जानते हैं उन्हीं में से ऐसे 5 बड़े लोग जो कृष्ण से शत्रुता रखते थे।
शत्रु नंबर 1, अगले पन्ने पर
कंस : भगवान कृष्ण का मामा था कंस। वह अपने पिता उग्रसेन को राज पद से हटाकर स्वयं शूरसेन जनपद का राजा बन बैठा था। कंस बेहद क्रूर था। कंस अपने पूर्व जन्म में 'कालनेमि' नामक असुर था जिसे भगवान विष्णु ने मारा था।
कालनेमि विरोचन का पुत्र था। देवासुर संग्राम में कालनेमि ने भगवान हरि पर अपने सिंह पर बैठे ही बैठे बड़े वेग से त्रिशूल चलाया, पर हरि ने उस त्रिशूल को पकड़ लिया और उसी से उसको तथा उसके वाहन को मार डाला। अन्य कथा अनुसार युद्ध में उसने अनेक प्रकार की माया फैलाई और ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया। वर तारकामय में हरि के चक्र में मारा गया।
कंस ने मथुरा को भी अपने शासन के अधीन कर लिया था और वह प्रजा को अनेक प्रकार से पीड़ित करने लगा। कंस की इस शक्ति का मुख्य कारण यह था कि उसे आर्यावर्त के तत्कालीन सर्वप्रतापी राजा जरासंध का सहारा प्राप्त था। जरासंध पौरव वंश का था और मगध के विशाल साम्राज्य का शासक था। जरासंध कंस का ससुर भी था।
कंस क्यों कृष्ण का शत्रु था? : कंस के काका शूरसेन का मथुरा पर राज था और शूरसेन के पुत्र वसुदेव का विवाह कंस की बहन देवकी से हुआ था। कंस अपनी चचेरी बहन देवकी से बहुत स्नेह रखता था, लेकिन एक दिन वह देवकी के साथ रथ पर कहीं जा रहा था, तभी आकाशवाणी सुनाई पड़ी- 'जिसे तू चाहता है, उस देवकी का आठवां बालक तुझे मार डालेगा।'
इस भयंकर आकाशवाणी को सुनकर कंस भयभीत हो गया और उसने अपनी बहन को मारने के लिए तलवार निकाल ली। वसुदेव ने उसे जैसे-तैसे समझाकर शांत किया और वादा किया कि वे अपने पुत्र उसे सौंप देंगे।
पहला पुत्र होने पर जब वसुदेव कंस के पास पहुंचे तो कंस ने कहा कि मुझे तो आठवां बेटा चाहिए। बाद में नारद ने बताया कि तुम्हें मारने के लिए देवकी के उदर से स्वयं भगवान विष्णु जन्म लेंगे तो कंस और भयभीत हो गया और उसने वसुदेव और देवकी को कैद कर लिया। बाद में कंस ने एक-एक करके देवकी के 6 बेटों को जन्म लेते ही मार डाला।
7 वें गर्भ में श्रीशेष (अनंत) ने प्रवेश किया था। भगवान विष्णु ने श्रीशेष को बचाने के लिए योगमाया से देवकी का गर्भ ब्रजनिवासिनी वसुदेव की पत्नी रोहिणी के उदर में रखवा दिया। तदनंतर 8वें बेटे की बारी में श्रीहरि ने स्वयं देवकी के उदर से पूर्णावतार लिया। कृष्ण के जन्म लेते ही माया के प्रभाव से सभी संतरी सो गए और जेल के दरवाजे अपने आप खुलते गए। वसुदेव मथुरा की जेल से शिशु कृष्ण को लेकर नंद के घर पहुंच गए।
बाद में कंस को जब पता चला तो उसने वसुदेव तथा देवकी को छोड़ दिया, लेकिन उसके मंत्रियों ने अपने प्रदेश के सभी नवजात शिशुओं को मारना प्रारंभ कर दिया। बाद में उसे कृष्ण के नंद के घर होने के पता चला तो उसने अनेक आसुरी प्रवृत्ति वाले लोगों से कृष्ण को मरवाना चाहा, पर सभी कृष्ण तथा बलराम के हाथों मारे गए।
तब योजना अनुसार कंस ने एक समारोह के अवसर पर कृष्ण तथा बलराम को आमंत्रित किया। वह वहीं पर कृष्ण को मारना चाहता था, किंतु कृष्ण ने उस समारोह में कंस को बालों से पकड़कर उसकी गद्दी से खींचकर उसे भूमि पर पटक दिया और इसके बाद उसका वध कर दिया। कंस को मारने के बाद देवकी तथा वसुदेव को मुक्त किया और उन्होंने माता-पिता के चरणों में वंदना की।
शत्रु नंबर 2, अगले पन्ने पर...
जरासंध : कंस के मारे जाने के बाद उसका ससुर जरासंध कृष्ण का कट्टर शत्रु बन गया। जरासंध मगध का अत्यंत क्रूर एवं साम्राज्यवादी प्रवृत्ति का शासक था। हरिवंश पुराण अनुसार उसने काशी, कोशल, चेदि, मालवा, विदेह, अंग, वंग, कलिंग, पांडय, सौबिर, मद्र, काश्मीर और गांधार के राजाओं को परास्त कर सभी को अपने अधीन बना लिया था। इसी कारण पुराणों में जरासंध की बहुत चर्चा मिलती है। जरासंध कंस का ससुर था।
पुराणों के अनुसार जरासंध के नाम का अर्थ भी उसके जन्म की कहानी में छुपा हुआ है। वह बृहद्रथ नाम के राजा का पुत्र था और जन्म के समय दो टुकड़ों में विभक्त था। जरा नाम की राक्षसी ने उसे जोड़ा था तभी उसका नाम जरासंध पड़ा। महाभारत युद्ध में जरासंध कौरवों के साथ था।
कंस के मारे जाने के बाद शूरसेन जनपद के सिंहासन पर श्रीकृष्ण बैठे थे। जरासंध ने पूरे दल-बल के साथ शूरसेन जनपद (मथुरा) पर एक बार नहीं, कई बार चढ़ाई की, लेकिन हर बार वह असफल रहा। पुराणों के अनुसार जरासंध ने 18 बार मथुरा पर चढ़ाई की। 17 बार वह असफल रहा। अंतिम चढ़ाई में उसने एक विदेशी शक्तिशाली शासन कालयवन को भी मथुरा पर आक्रमण करने के लिए प्रेरित किया।
कालयवन की सेना ने मथुरा को घेर लिया। उसने मथुरा नरेश के नाम संदेश भेजा और कालयवन को युद्ध के लिए एक दिन का समय दिया। श्रीकृष्ण ने उत्तर में भेजा कि युद्ध केवल कृष्ण और कालयवन में हो, सेना को व्यर्थ क्यूं लड़ाएं? कालयवन ने स्वीकार कर लिया।
कृष्ण और कालयवन का युद्ध हुआ और कृष्ण रण की भूमि छोड़कर भागने लगे, तो कालयवन भी उनके पीछे भागा। भागते-भागते कृष्ण एक गुफा में चले गए। कालयवन भी वहीं घुस गया। गुफा में कालयवन ने एक दूसरे मनुष्य को सोते हुए देखा। कालयवन ने उसे कृष्ण समझकर कसकर लात मार दी और वह मनुष्य उठ पड़ा।
उसने जैसे ही आंखें खोली और इधर-उधर देखने लगे, तब सामने उसे कालयवन दिखाई दिया। कालयवन उसके देखने से तत्काल ही जलकर भस्म हो गया। कालयवन को जो पुरुष गुफा में सोए मिले। वे इक्ष्वाकु वंशी महाराजा मांधाता के पुत्र राजा मुचुकुन्द थे, जो तपस्वी और प्रतापी थे।
जरासंध के कई साथी राजा थे- कामरूप का राजा दंतवक, चेदिराज, शिशुपाल, कलिंगपति पौंड्र, भीष्मक पुत्र रुक्मी, काध अंशुमान तथा अंग, बंग कोसल, दषार्ण, भद्र, त्रिगर्त आदि के राजा थे। इनके अतिरिक्त शाल्वराज, पवनदेश का राजा भगदत्त, सौवीरराज गंधार का राजा सुबल नग्नजित का मीर का राजा गोभर्द, दरद देश का राजा आदि। महाभारत युद्ध में भीम ने जरासंध के शरीर को 2 हिस्सों में विभक्त कर उसका वध कर दिया था।
शत्रु नंबर 3, अगले पन्ने पर...
कालयवन : यह जन्म से ब्राह्मण लेकिन कर्म से असुर था और अरब के पास यवन देश में रहता था। पुराणों में इसे म्लेच्छों का प्रमुख कहा गया है। कालयवन ऋषि शेशिरायण का पुत्र था। गर्ग गोत्र के ऋषि शेशिरायण त्रिगत राज्य के कुलगुरु थे।
उन्होंने भगवान शिव की तपस्या की और उनसे एक अजेय पुत्र की मांग की। शिव ने कहा- 'तुम्हारा पुत्र संसार में अजेय होगा। कोई अस्त्र-शस्त्र से हत्या नहीं होगी। सूर्यवंशी या चंद्रवंशी कोई योद्धा उसे परास्त नहीं कर पाएगा।'
वरदान प्राप्ति के पश्चात ऋषि शेशिरायण एक झरने के पास से जा रहे थे कि उन्होंने एक स्त्री को जल नहाते हुए देखा, जो अप्सरा रम्भा थी। दोनों एक-दूसरे पर मोहित हो गए और उनका पुत्र कालयवन हुआ। 'रंभा' समय समाप्ति पर स्वर्गलोक वापस चली गई और अपना पुत्र ऋषि को सौंप गई।
काल जंग नामक एक क्रूर राजा मलीच देश पर राज करता था। उसे कोई संतान न थी जिसके कारण वह परेशान रहता था। उसका मंत्री उसे आनंदगिरि पर्वत के बाबा के पास ले गया। बाबा ने उसे बताया की वह ऋषि शेशिरायण से उनका पुत्र मांग ले।
ऋषि शेशिरायण ने बाबा के अनुग्रह पर पुत्र को काल जंग को दे दिया। इस प्रकार कालयवन यवन देश का राजा बना। उसके समान वीर कोई न था। एक बार उसने नारदजी से पूछा कि वह किससे युद्ध करे, जो उसके समान वीर हो। नारदजी ने उसे श्रीकृष्ण का नाम बताया।
राम के कुल के राजा शल्य ने जरासंध को यह सलाह दी कि वे कृष्ण को हराने के लिए कालयवन से दोस्ती करें। कालयवन ने मथुरा पर आक्रमण के लिए सब तैयारियां कर लीं। दूसरी ओर जरासंध भी सेना लेकर निकल गया।
कालयवन की सेना ने मथुरा को घेर लिया। उसने मथुरा नरेश कृष्ण के नाम संदेश भेजा और कालयवन को युद्ध के लिए एक दिन का समय दिया। श्रीकृष्ण ने उत्तर में संदेश भेजा कि युद्ध केवल कृष्ण और कालयवन में हो, सेना को व्यर्थ क्यूं लड़ाएं। कालयवन ने स्वीकार कर लिया।
अक्रूरजी और बलरामजी ने कृष्ण को इसके लिए मना किया, तब श्रीकृष्ण ने उन्हें कालयवन को शिव द्वारा दिए वरदान के बारे में बताया और यह भी कहा कि उसे कोई भी हरा नहीं सकता। श्रीकृष्ण ने यह भी बताया कि कालयवन राजा मुचुकुंद द्वारा मृत्यु को प्राप्त होगा।
एक बार इक्ष्वाकुवंशी मांधाता के पुत्र राजा मुचुकुंद देवताओं की सहायता के लिए दानवों से युद्ध करने देवलोक पहुंच गए थे। उन्होंने देवताओं का साथ देकर और दानवों का संहार किया जिसके कारण देवता युद्ध जीत गए, तब इन्द्र ने उन्हें वर मांगने को कहा।
मुचुकुंद ने वापस पृथ्वीलोक जाने की इच्छा व्यक्त की, तब इन्द्र ने उन्हें बताया कि पृथ्वी और देवलोक में समय का बहुत अंतर है जिस कारण अब वह समय नहीं रहा। अब तक तो तुम्हारे सभी बंधु-बांधव मर चुके हैं। उनके वंश का भी कोई नहीं बचा।
यह जानकर मुचुकुंद बहुत दु:खी हुए और वर मांगा कि उन्हें कलियुग के अंत तक सोना है। तब इन्द्र ने मुचुकुंद को वरदान दिया कि किसी धरती के निर्जन स्थान पर जाकर सो जाएं और यदि कोई तुम्हें उठाएगा तो तुम्हारी दृष्टि पड़ते ही वह भस्म हो जाएगा। इसी वरदान का प्रयोग श्रीकृष्ण कालयवन को मृत्यु देने के लिए करना चाहते थे।
श्रीकृष्ण और कालयवन का संघर्ष : जब कालयवन और कृष्ण में द्वंद्व युद्ध का जय हो गया तब कालयवन श्रीकृष्ण की ओर दौड़ा। श्रीकृष्ण तुरंत ही दूसरी ओर मुंह करके रणभूमि से भाग चले और कालयवन उन्हें पकडऩे के लिए उनके पीछे-पीछे दौडऩे लगा।
श्रीकृष्ण लीला करते हुए भाग रहे थे, कालयवन पग-पग पर यही समझता था कि अब पकड़ा, तब पकड़ा। इस प्रकार भगवान बहुत दूर एक पहाड़ की गुफा में घुस गए। उनके पीछे कालयवन भी घुसा। वहां उसने एक दूसरे ही मनुष्य को सोते हुए देखा।
उसे देखकर कालयवन ने सोचा, मुझसे बचने के लिए श्रीकृष्ण इस तरह भेष बदलकर छुप गए हैं:- 'देखो तो सही, मुझे मूर्ख बनाकर साधु बाबा बनकर सो रहा है।' उसने ऐसा कहकर उस सोए हुए व्यक्ति को कसकर एक लात मारी।
वह पुरुष बहुत दिनों से वहां सोया हुआ था। पैर की ठोकर लगने से वह उठ पड़ा और धीरे-धीरे उसने अपनी आंखें खोलीं। इधर-उधर देखने पर पास ही कालयवन खड़ा हुआ दिखाई दिया। वह पुरुष इस प्रकार ठोकर मारकर जगाए जाने से कुछ रुष्ट हो गया था।
उसकी दृष्टि पड़ते ही कालयवन के शरीर में आग पैदा हो गई और वह क्षणभर में जलकर राख का ढेर हो गया। कालयवन को जो पुरुष गुफा में सोए मिले, वे इक्ष्वाकुवंशी महाराजा मांधाता के पुत्र राजा मुचुकुंद थे। इस तरह कालयवन का अंत हो गया।
शत्रु नंबर 4, अगले पन्ने पर...
शिशुपाल : शिशुपाल 3 जन्मों से श्रीकृष्ण से बैर-भाव रखे हुआ था। इस जन्म में भी वह विष्णु के पीछे पड़ गया। दरअसल, शिशुपाल भगवान विष्णु का वही द्वारपाल था जिसे कि सनकादि मुनियों ने शाप दिया था।
वे जय और विजय अपने पहले जन्म में हिरण्यकश्यपु और हिरण्याक्ष, दूसरे जन्म में रावण और कुम्भकर्ण तथा अंतिम तीसरे जन्म में कंस और शिशुपाल बने। कृष्ण ने प्रण किया था कि मैं शिशुपाल के 100 अपमान क्षमा करूंगा अर्थात उसे सुधरने के 100 मौके दूंगा।
शिशुपाल का वध : एक बार की बात है कि जरासंघ का वध करने के बाद श्रीकृष्ण, अर्जुन और भीम इन्द्रप्रस्थ लौट आए, तब धर्मराज युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ की तैयारी करवा दी। उस यज्ञ के ऋतिज आचार्य होते थे।
यज्ञ में युधिष्ठिर ने भगवान वेद व्यास, भारद्वाज, सुनत्तु, गौतम, असित, वशिष्ठ, च्यवन, कण्डव, मैत्रेय, कवष, जित, विश्वामित्र, वामदेव, सुमति, जैमिन, क्रतु, पैल, पाराशर, गर्ग, वैशम्पायन, अथर्वा, कश्यप, धौम्य, परशुराम, शुक्राचार्य, आसुरि, वीतहोत्र, मधुद्वंदा, वीरसेन, अकृतब्रण आदि सभी को आमंत्रित किया। इसके अलावा सभी देशों के राजाधिराज को भी बुलाया गया।
यज्ञ पूजा के बाद यज्ञ की शुरुआत के लिए समस्त सभासदों में इस विषय पर विचार होने लगा कि सबसे पहले किस देवता की पूजा की जाए? तब सहदेवजी उठकर बोले- श्रीकष्ण ही सभी के देव हैं जिन्हें ब्रह्मा और शंकर भी पूजते हैं, उन्हीं को सबसे पहले पूजा जाए।
पांडु पुत्र सहदेव के वचन सुनकर सभी ने उनके कथन की प्रशंसा की। भीष्म पितामह ने स्वयं अनुमोदन करते हुए सहदेव का समर्थन किया। तब धर्मराज युधिष्ठिर ने शास्त्रोक्त विधि से भगवान श्रीकृष्ण का पूजन आरंभ किया।
इस कार्य से चेदिराज शिशुपाल अपने आसन से उठ खड़ा हुआ और बोला, 'हे सभासदों! मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि कालवश सभी की मति मारी गई है। क्या इस बालक सहदेव से अधिक बुद्धिमान व्यक्ति इस सभा में नहीं है, जो इस बालक की हां में हां मिलाकर अयोग्य व्यक्ति की पूजा स्वीकार कर ली गई है? क्या इस कृष्ण से आयु, बल तथा बुद्धि में और कोई भी बड़ा नहीं है? क्या इस गाय चराने वाल ग्वाले के समान कोई और यहां नहीं है? क्या कौआ हविश्यान्न ले सकता है? क्या गीदड़ सिंह का भाग प्राप्त कर सकता है? न इसका कोई कुल है, न जाति, न ही इसका कोई वर्ण है। राजा ययाति के शाप के कारण राजवंशियों ने इस यदुवंश को वैसे ही बहिष्कृत कर रखा है। यह जरासंघ के डर से मथुरा त्यागकर समुद्र में जा छिपा था। भला यह किस प्रकार अग्रपूजा पाने का अधिकारी है?'
इस प्रकार शिशुपाल श्रीकृष्ण को अपमानित कर गाली देने लगा। यह सुनकर शिशुपाल को मार डालने के लिए पांडव, मत्स्य, केकय और सृचयवर्षा नरपति क्रोधित होकर हाथों में हथियार ले उठ खड़े हुए, किंतु श्रीकृष्ण ने उन सभी को रोक दिया। वहां वाद-विवाद होने लगा, परंतु शिशुपाल को इससे कोई घबराहट न हुई। कृष्ण ने सभी को शांत कर यज्ञ कार्य शुरू करने को कहा।
किंतु शिशुपाल को इससे कोई फर्क नहीं पड़ा। उसने फिर से श्रीकृष्ण को ललकारते हुए गाली दी, तब श्रीकृष्ण ने गरजते हुए कहा, 'बस शिशुपाल! मैंने तेरे एक सौ अपशब्दों को क्षमा करने की प्रतिज्ञा की थी इसीलिए अब तक तेरे प्राण बचे रहे। अब तक सौ पूरे हो चुके हैं। अभी भी तुम खुद को बचा सकने में सक्षम हो। शांत होकर यहां से चले जाओ या चुप बैठ जाएं, इसी में तुम्हारी भलाई है।'
लेकिन शिशुपाल पर श्रीकृष्ण की चेतावनी का कोई असर नहीं हुआ अतः उसने काल के वश होकर अपनी तलवार निकालते हुए श्रीकृष्ण को फिर से गाली दी। शिशुपाल के मुख से अपशब्द के निकलते ही श्रीकृष्ण ने अपना सुदर्शन चक्र चला दिया और पलक झपकते ही शिशुपाल का सिर कटकर गिर गया। उसके शरीर से एक ज्योति निकलकर भगवान श्रीकृष्ण के भीतर समा गई।
वचन क्यों दिया था? : शिशुपाल कृष्ण की बुआ का लड़का था। जब शिशुपाल का जन्म हुआ तब उसके 3 नेत्र तथा 4 भुजाएं थीं। वह गधे की तरह रो रहा था। माता-पिता उससे घबराकर उसका परित्याग कर देना चाहते थे, लेकिन तभी आकाशवाणी हुई कि बालक बहुत वीर होगा तथा उसकी मृत्यु का कारण वह व्यक्ति होगा जिसकी गोद में जाने पर बालक अपने भाल स्थित नेत्र तथा दो भुजाओं का परित्याग कर देगा।
इस आकाशवाणी और उसके जन्म के विषय में जानकर अनेक वीर राजा उसे देखने आए। शिशुपाल के पिता ने बारी-बारी से सभी वीरों और राजाओं की गोद में बालक को दिया। अंत में शिशुपाल के ममेरे भाई श्रीकृष्ण की गोद में जाते ही उसकी 2 भुजाएं पृथ्वी पर गिर गईं तथा ललाटवर्ती नेत्र ललाट में विलीन हो गया। इस पर बालक की माता ने दु:खी होकर श्रीकृष्ण से उसके प्राणों की रक्षा की मांग की।
श्रीकृष्ण ने कहा कि मैं इसके 100 अपराधों को क्षमा करने का वचन देता हूं। कालांतर में शिशुपाल ने अनेक बार श्रीकृष्ण को अपमानित किया और उनको गाली दी, लेकिन श्रीकृष्ण ने उन्हें हर बार क्षमा कर दिया।
शिशुपाल क्यों करता था अपमान? : क्योंकि शिशुपाल रुक्मणि से विवाह करना चाहता था। रुक्मणि के भाई रुक्म का वह परम मित्र था। रुक्म अपनी बहन का विवाह शिशुपाल से करना चाहता था और रुक्मणि के माता-पिता रुक्मणि का विवाह श्रीकृष्ण के साथ करना चाहते थे, लेकिन रुक्म ने शिशुपाल के साथ रिश्ता तय कर विवाह की तैयारियां शुरू कर दी थीं। कृष्ण रुक्मणि का हरण कर ले आए थे।
शत्रु नंबर 5, अगले पन्ने पर...
पौंड्रक : चुनार देश का प्राचीन नाम करुपदेश था। वहां के राजा का नाम पौंड्रक था। कुछ मानते हैं कि पुंड्र देश का राजा होने से इसे पौंड्रक कहते थे। कुछ मानते हैं कि वह काशी नरेश ही था। चेदि देश में यह ‘पुरुषोत्तम’ नाम से सुविख्यात था। इसके पिता का नाम वसुदेव था। यह द्रौपदी स्वयंवर में उपस्थित था। कौशिकी नदी की तट पर किरात, वंग, एवं पुंड्र देशों पर इसका स्वामित्व था। यह मूर्ख एवं अविचारी था।
पौंड्रक को उसके मूर्ख और चापलूस मित्रों ने यह बताया कि असल में वही परमात्मा वासुदेव और वही विष्णु का अवतार है, मथुरा का राजा कृष्ण नहीं। पुराणों में उसके नकली कृष्ण का रूप धारण करने की कथा आती है।
राजा पौंड्रक नकली चक्र, शंख, तलवार, मोर मुकुट, कौस्तुभ मणि, पीले वस्त्र पहनकर खुद को कृष्ण कहता था। एक दिन उसने भगवान कृष्ण को यह संदेश भी भेजा था कि ‘पृथ्वी के समस्त लोगों पर अनुग्रह कर उनका उद्धार करने के लिए मैंने वासुदेव नाम से अवतार लिया है। भगवान वासुदेव का नाम एवं वेषधारण करने का अधिकार केवल मेरा है। इन चिह्रों पर तेरा कोई भी अधिकार नहीं है। तुम इन चिह्रों को एवं नाम को तुरंत ही छोड़ दो, वरना युद्ध के लिए तैयार हो जाओ।’
बहुत समय तक श्रीकृष्ण उसकी बातों और हरकतों को नजरअंदाज करते रहे, बाद में उसकी ये सब बातें अधिक सहन नहीं हुईं। उन्होंने प्रत्युत्तर भेजा, ‘तेरा संपूर्ण विनाश करके, मैं तेरे सारे गर्व का परिहार शीघ्र ही करूंगा।'
यह सुनकर, पौंड्रक कृष्ण के विरुद्ध युद्ध की तैयारी शुरू करने लगा। अपने मित्र काशीराज की सहायता प्राप्त करने के लिए यह काशीनगर गया। यह सुनते ही कृष्ण ने ससैन्य काशीदेश पर आक्रमण किया।
कृष्ण आक्रमण कर रहे हैं- यह देखकर पौंड्रक और काशीराज अपनी अपनी सेना लेकर नगर की सीमा पर आए। युद्ध के समय पौंड्रक ने शंख, चक्र, गदा, धनुष, वनमाला, रेशमी पीतांबर, उत्तरीय वस्त्र, मूल्यवान आभूषण आदि धारण किया था एवं यह गरूड़ पर आरूढ़ था।
नाटकीय ढंग से युद्धभूमि में प्रविष्ट हुए इस ‘नकली कृष्ण’ को देखकर भगवान कृष्ण को अत्यंत हंसी आई। इसके बाद युद्ध हुआ और पौंड्रक का वध कर श्रीकृष्ण पुन: द्वारिका चले गए।
बाद में बदले की भावना से पौंड्रक के पुत्र सुदक्षण ने कृष्ण का वध करने के लिए मारण-पुरश्चरण किया, लेकिन द्वारिका की ओर गई वह आग की लपटरूप कृत्या ही पुन: काशी में आकर सुदक्षणा की मौत का कारण बन गई। उसने काशी नरेश पुत्र सुदक्षण को ही भस्म कर दिया।