देवराज इन्द्र के जीवन का रहस्य, जानिए

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हिन्दुधर्म में मूलत: 33 प्रमुख देवताओं का उल्लेख मिलता है। सभी देवताओं के कार्य और उनका चरित्र भिन्न भिन्न है। हिन्दू देवताओं में इन्द्र बहुत बदनाम है। इन्द्र के किस्से रोचक है। इन्द्र के जीवन से मनुष्यों को शिक्षा मिलती है कि भोग से योग की ओर कैसे चलें।

इन्द्र बदनाम इसलिए कि वे इन्द्रिय सुखों अर्थात भोग और ऐश्वर्य में ही डुबे रहते हैं और उनको हर समय अपने सिंहासन की ही चिंता सताती रहती है। हर कोई उनका सिंहासन क्यों हथियाना चाहता है? क्योंकि वह स्वर्ग के राजा हैं। देवताओं के अधिपति हैं और उनके दरबार में सुंदर अप्सराएं नृत्य कर और गंधर्व संगीत से उनका मनोरंजन करते हैं। इन्द्र की अपने सौतेले भाइयों से लड़ाई चलती रहती है जिसे पुरणों में देवासुर संग्राम के नाम से जाना जाता है। देवताओं को सुर इसलिए कहा जाता है क्योंकि वे सुरापान करते थे और असुर नहीं।
हम जिस इन्द्र की बात कर रहे हैं वह अदिति पुत्र और शचि के पति देवराज हैं। उनसे पहले पांच इन्द्र और हो चुके हैं। इन इन्द्र को सुरेश, सुरेन्द्र, देवेन्द्र, देवेश, शचीपति, वासव, सुरपति, शक्र, पुरंदर भी कहा जाता है। क्रमश: 14 इन्द्र हो चुके हैं:- यज्न, विपस्चित, शीबि, विधु, मनोजव, पुरंदर, बाली, अद्भुत, शांति, विश, रितुधाम, देवास्पति और सुचि। उपरोक्त में से शचिपति इन्द्र पुरंदर के पूर्व पांच इन्द्र हो चुके हैं।
 
कौन हैं इन्द्र देवता, जानिए उनका सच...
हिन्दू इतिहास के कालक्रम को जानिए...
 
सुर और असुर : देवताओं के अधिपति इन्द्र, गुरु बृहस्पति और विष्णु परम ईष्ट हैं। दूसरी ओर दैत्यों के अधिपति हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप के बाद विरोचन बने जिनके गुरु शुक्राचार्य और शिव परम ईष्ट हैं। एक ओर जहां देवताओं के भवन, अस्त्र आदि के निर्माणकर्ता विश्‍वकर्मा थे तो दूसरी ओर असुरों के मयदानव। इन्द्र के भ्राताश्री वरुणदेव देवता और असुर दोनों को प्रिय हैं। 
 
आखिर स्वर्ग कहां है? : आज से लगभग 12-13 हजार वर्षं पूर्व तक संपूर्ण धरती बर्फ से ढंकी हुई थी और बस कुछ ही जगहें रहने लायक बची थी उसमें से एक था देवलोक जिसे इन्द्रलोक और स्वर्गलोक भी कहते थे। यह लोक हिमालय के उत्तर में था। सभी देवता, गंधर्व, यक्ष और अप्सरा आदि देव या देव समर्थक जातियां हिमालय के उत्तर में ही रहती थी। 
 
भारतवर्ष जिसे प्रारंभ में हैमवत् वर्ष कहते थे यहां कुछ ही जगहों पर नगरों का निर्माण हुआ था बाकि संपूर्ण भारतवर्त समुद्र के जल और भयानक जंगलों से भरा पड़ा था, जहां कई अन्य तरह की जातियां प्रजातियां निवास करती थी। सुर और असुर दोनों ही आर्य थे। इसके अलावा नाग, वानर, किरात, रीछ, मल्ल, किन्नर, राक्षस आदि प्रजातियां भी निवास करती थी। उक्त सभी ऋषि कश्यप की संतानें थी। 
 
इन्द्र के भाई : उस काल में धरती हिमयुग की चपेट में थी तो निश्‍चित ही तब मेघ और जल दोनों ही तत्व सबसे भयानक माने जाते थे। मेघों के देव इन्द्र थे जो जल के देवता इन्द्र के भाई वरुण थे। दोनों ही दोनों तत्व को संचालित करते थे। इस तरह इन्द्र के और भी भाई थे जिनका नाम क्रमश: विवस्वान्, अर्यमा, पूषा, त्वष्टा, सविता, भग, धाता, विधाता, वरुण, मित्र, इन्द्र और त्रिविक्रम (भगवान वामन) था। ये सभी भाई सुर या देव कहलाते थे।
 
माना जाता है कि इन्द्र के भाई विवस्वान् ही सूर्य नाम से जाने जाते थे और विष्णु इन्द्र के सखा थे। इन्द्र के एक अन्य भ्राता अर्यमा को पितरों का देवता माना जाता है, जबकि भ्राता वरुण को जल का देवता और असुरों का साथ देने वाला माना गया है। इसी तरह विधाता, पूषा, त्वष्टा, भग, सविता, धाता, मित्र और त्रिविक्रम आदि के बारे में वेदों में उल्लेख मिलता है।
 
इन्द्र के सौतेले भाई : इन्द्र के सौतेले को असुर कहते थे। इन्द्र के सौतेले भाई का नाम हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष था जबकि बहिन का नाम सिंहिका था। हिरण्याक्ष का तो विष्णु ने वराह अवतार लेकर वध कर दिया था जबकि हिरण्यकश्यप का बाद में नृसिंह अवतार लेकर वध कर दिया था। हिरण्यकश्यप के मरने के बाद प्रह्लाद ने सत्ता संभाली। प्रहलाद के बाद उनके पुत्र विरोचन को असुरों का अधिपति बना दिया गया। विरोचन के बाद उसका पुत्र महाबलि असुरों का अधिपति बना।
 
इन्द्र के माता-पिता : इन्द्र की माता का नाम अदिति था और पिता का नाम कश्यप। इसी तरह इन्द्र के सौतेले भाइयों की माता का नाम दिति और पिता कश्यप थे। ऋषि कश्यप की कई पत्नियां थीं जिसमें से 13 प्रमुख थीं। उन्हीं में से प्रथम अदिति के पुत्र आदित्य कहलाए और द्वितीय दिति के पुत्र दैत्य। आदित्यों को देवता और दैत्यों को असुर भी कहा जाता था। इसके अलावा दनु के 61 पुत्र दानव, अरिष्टा के गंधर्व, सुरसा के राक्षस, कद्रू के नाग आदि कहलाए।
 
इन्द्र की पत्नी और पुत्र : इन्द्र का विवाह असुरराज पुलोमा की पुत्री शचि के साथ हुआ था। इन्द्र की पत्नी बनने के बाद उन्हें इन्द्राणी कहा जाने लगा। इन्द्राणी के पुत्रों के नाम भी वेदों में मिलते हैं। उनमें से ही दो वसुक्त तथा वृषा ऋषि हुए जिन्होंने वैदिक मंत्रों की रचना की। 
 
इन्द्र की वेशभूषा और शक्ति : सफेद हाथी पर सवार इन्द्र का अस्त्र वज्र है और वे अपार शक्तिशाली देव हैं। इन्द्र मेघ और बिजली के माध्यम से अपने शत्रुओं पर प्रहार करने की क्षमता रखते थे।
 
इन्द्र का जन्म : ऋग्वेद के चौथे मंडल के 18वें सूक्त से इन्द्र के जन्म और जीवन का पता चलता है। उनकी माता का नाम अदिति था। कहते हैं कि इन्द्र अपनी मां के गर्भ में बहुत समय तक रहे थे जिससे अदिति को पर्याप्त कष्ट उठाना पड़ा था। लेकिन अधिक समय तक गर्भ में रहने की वजह से ही वे अत्यधिक बलशाली और पराक्रमी हुए। जब इन्द्र ने जन्म लिया, तब कुषवा नामक राक्षसी ने उनको अपना ग्रास बनाने की चेष्टा की थी लेकिन इन्द्र में उन्हें सूतिकागृह में मार डाला।
 
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इन्द्रपद : इन्द्र के बल, पराक्रम और अन्य कार्यों के कारण उनका नाम ही एक पद बन गया था। अब जो भी स्वर्ग पर अधिकार प्राप्त कर लेता था उसे इन्द्र की उपाधि प्रदान कर दी जाती थी। विभिन्न कालों में विभिन्न व्यक्ति उस पर आसीन होते थे। इन्द्र के निर्वाचन की पद्धति क्या थी इसका कुछ पता नहीं, लेकिन जो भी व्यक्ति उस पद पर आरूढ़ हो जाता था उसके हाथ में सर्वोच्च सत्ता आ जाती थी। 
 
अब तक हुए 14 इन्द्र : स्वर्ग पर राज करने वाले 14 इन्द्र माने गए हैं। इन्द्र एक काल का नाम भी है, जैसे 14 मन्वंतर में 14 इन्द्र होते हैं। 14 इन्द्र के नाम पर ही मन्वंतरों के अंतर्गत होने वाले इन्द्र के नाम भी रखे गए हैं। प्रत्येक मन्वंतर में एक इन्द्र हुए हैं जिनके नाम इस प्रकार हैं- यज्न, विपस्चित, शीबि, विधु, मनोजव, पुरंदर, बाली, अद्भुत, शांति, विश, रितुधाम, देवास्पति और सुचि। उपरोक्त में से शचिपति इन्द्र पुरंदर के पूर्व पांच इन्द्र हो चुके हैं।
 
कहा जाता है कि एक इन्द्र 'वृषभ' (बैल) के समान था। असुरों के राजा बली भी इन्द्र बन चुके हैं और रावण पुत्र मेघनाद ने भी इन्द्रपद हासिल कर लिया था। इन्द्र की पत्नी इन्द्राणी कहलाती है।
 
इन्द्रपद पर आसीन देवता किसी भी साधु और राजा को अपने से शक्तिशाली नहीं बनने देता था इसलिए वह कभी तपस्वियों को अप्सराओं से मोहित कर पथभ्रष्ट कर देता है तो कभी राजाओं के अश्वमेघ यज्ञ के घोड़े चुरा लेता है। इन्द्र और वरुण नामक दोनों देवता एक दूसरे की सहायता करते हैं। वरुण शान्ति का देवता है, जबकि इन्द्र युद्ध का देव है एवं मरूतों के साथ सम्मान की खोज में रहता है।
 
वैदिक काल में युद्ध-विद्या अत्यंत विकसित थी। सैनिकगण घोड़े की सवारी करते थे और धनुष-बाण उन दिनों के सर्वाधिक प्रचलित अस्त्र थे। इन्द्र नाम से वेदों में कई युद्धों और कार्यों का वर्णन मिलता है। संभव है कि यह एक ही इन्द्र नामधारी व्यक्ति द्वारा संपन्न न होकर विभिन्न इन्द्रों द्वारा विभिन्न कालों में संपन्न किए गए हों। जो भी हो, इतना निश्चित है कि इन्द्र तत्कालीन आर्य सभ्यता की रक्षा करने वाला एक महत्वपूर्ण नेतृत्व था। शायद यही कारण है कि विजयादशमी के पावन पर्व पर भगवान राम के साथ ही हम इन्द्र का भी स्मरण करते हैं।
 
क्यों इन्द्र को मेघों का देवता कहा जाता है...
 

वेदों में इन्द्र : वेदों में इन्द्र की स्तुति में गाए गए मंत्रों की संख्या सबसे अधिक है। इन्द्र के बाद अग्नि, सोम, सूर्य, चंद्र, अश्विन, वायु, वरुण, उषा, पूषा आदि के नाम आते हैं। अधिकांश मंत्रों में इन्द्र एक पराक्रमी योद्धा की भांति प्रकट होते हैं और सोमपान में उनकी अधिक रुचि है। अग्नि, सोम आदि देवगण सोमपान तो करते हैं लेकिन इन्द्र को छोड़कर वेदों में वार्तलाप करते और खुद के कार्यों की प्रशंसा करते हुए उन्हें कभी नहीं प्रस्तुत किया गया।
 
मेघों के इन्द्र : बादलों के कई प्रकार हैं उनमें से एक बादल का नाम भी इन्द्र है। कुछ प्रसंगों में इन्द्र को मेघों के देवता के रूप में प्रस्तुत किया गया है, लेकिन ऐसी कल्पना इसलिए है क्योंकि वे पार्वत्य प्रदेश के निवासी थे और पर्वतों पर ही मेघों का निर्माण होता है। इसके अलावा यह भी माना जाता है कि उनके पास एक ऐसा अस्त्र था जिसके प्रयोग के बल पर वे मेघों और बिजलियों को कहीं भी गिराने की क्षमता रखते थे। माना जाता है कि इन्द्र ने अपने काल में कई नदियों की रचना की थीं और उन्होंने सिंधु नदी की दिशा भी थी। 
 
।।सोदञ्चं सिन्धुमरिणात् महित्वा वज्रेणान उषसः संपिपेव।
अजवसो जविनीभिः विवृश्चन् सोमस्य ता मद इन्द्रश्चकार॥- (ऋग्वेद द्वितीय मण्डल 15वां सूक्त)
 
अर्थात् : इन्द्र ने अपनी महत्ता से सिन्धु-नदी को उत्तर की ओर बहा दिया तथा उषा के रथ को अपनी प्रबल तीव्र सेना से निर्बल कर दिया। इन्द्र यह तब करते हैं, जब वह सोम मद से मत्त हो जाते हैं।
 
उल्लेखनीय है कि सिन्धु नदी अपने उद्गम-स्थान मानसरोवर से काश्मीर तक उत्तर-मुंह होकर बहती है। काश्मीर के बाद दक्षिण-पश्चिम-मुखी होकर बहती है। सम्भवतः इन्द्र ने पहाड़ी दुर्गम मार्ग को काटकर, सिन्धु-नदी के संकीर्ण मार्ग को विस्तीर्ण कर उत्तर की ओर नदी की धारा स्वच्छन्द कर दी हो। इससे आर्यों का मार्ग बहुत सुगम हो गया होगा। इस तथ्‍य को निम्नलिखित ऋचा से भी समझे:-
 
।।इन्द्रस्य नु वीर्याणि प्रवोचं यानि चकार प्रथमानि वज्री।
अहन् अहि मन्वपस्ततर्द प्रवक्षणा अभिनत् पर्व्वतानाम्।। (ऋ.मं. 1/32/1)
 
अर्थात् : इन्द्र के उन पुरुषार्थपूर्ण कार्यों का वर्णन करूंगा जिनको उन्होंने पहले-पहल किया। उन्होंने अहि यानी मेघ को मारा; (अपः) जल को नीचे लाए और पर्वतों को जलमार्ग बनाने के निमित्त काटा (अभिनत्)।
 
इसके बाद ही इसी सूक्त की आठवीं ऋचा इस प्रकार है-
।।नदं न भिन्नममुया शयानं मनो रुहाणा अतियन्ति आपः।
याः चित् वृत्रो महिना पर्यतिष्ठत् त्रासामहिः यत्सुतः शीर्बभूव॥ (ऋग्वेद 1/32/8)
 
अर्थात् : ठीक जिस प्रकार नदी ढहे हुए कगारों पर उमड़कर बहती है, उसी प्रकार प्रसन्न जल पड़े हुए वृत्र (बादल) पर बह रहा है। जिस वृत्रा ने अपनी शक्ति से जल को जीते-जी रोक रखा था, वही (आज) उनके पैरों तले पड़ा हुआ है।
 
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इन्द्र और विरोचन : छान्दोग्य उपनिषद के अनुसार इन्द्र और विरोचन दोनों 'आत्मज्ञान' की अभिलाषा से प्रजापति ब्रह्मा के पास शिक्षा लेने गए थे और कई वर्षों तक दोनों से साथ में ही अध्ययन किया था, क्योंकि दोनों ने सुन रखा था कि आत्मज्ञान प्राप्त करने के बाद व्यक्ति अजर-अमर हो जाता है। दोनों ईर्ष्या भाव से इस ज्ञान को प्राप्त करने की होड़ करने लगे थे।
 
दोनों ने 32 वर्ष तक ब्रह्मचर्य पालन किया, तदुपरांत प्रजापति ने उनके आने का प्रयोजन पूछा। उनकी जिज्ञासा जानकर प्रजापति ने उन्हें जल से आपूरित सकोरे में देखने के लिए कहा और कहा कि वही आत्मा है। दोनों सकोरों में अपना-अपना प्रतिबिंब देखकर संतुष्ट होकर चल पड़े। प्रजापति ने सोचा कि देव हों या असुर, आत्मा का साक्षात्कार किए बिना उसका पराभव होगा। विरोचन संतुष्ट मन से असुरों के पास पहुंचे और उन्हें बताया कि आत्मा (देह) ही पूजनीय है। उसकी शक्ति बढ़ाकर और उसको संतुष्‍ट करके मनुष्य दोनों लोक प्राप्त कर लेता है।
 
देवताओं के पास पहुंचने से पूर्व ही इन्द्र ने सोचा कि सकोरे में आभूषण पहनकर सज्जित रूप दिखता है, खंडित देह का खंडित रूप, अंधे का अंधा रूप, फिर यह अजर-अमर आत्मा कैसे हुई? वे पुन: प्रजापति के पास पहुंचे। प्रजापति ने इन्द्र को पुन: 32 वर्ष अपने पास रखा तथा इसके पश्‍चात बताया- 'जो स्वप्न में पूजित होता हुआ विचरता है, वही आत्मा, अमृत, अभय तथा ब्रह्म है।' इन्द्र पुन: शंका लेकर प्रजापति की सेवा में प्रस्तुत हुए। इस प्रकार 3 बार 32-32 वर्ष तक तथा 1 बार 5 वर्ष तक (कुल 101 वर्ष तक) इन्द्र को ब्रह्मचर्य रखकर प्रजापति ने उन्हें आत्मा के स्वरूप का पूर्ण ज्ञान इन शब्दों में करवाया।
 
यह आत्मा स्वरूप स्थित होने पर अविद्याकृत देह तथा इन्द्रियां मन से युक्त हैं। सर्वात्मभाव की प्राप्ति के उपरांत वह आकाश के समान विशुद्ध हो जाता है। आत्मा के ज्ञान को प्राप्त कर मनुष्य कर्तव्य-कर्म करता हुआ अपनी आयु की समाप्ति कर ब्रह्मलोक को प्राप्त होता है और फिर नहीं लौटता।
 
इस तरह इन्द्र ने आत्मज्ञान के माध्यम से अपनी शक्तियों को दिव्य बनाया और विरोचन ने देह को ही सब कुछ मानकर अपनी शक्तियों को मायावी बनाया। मायावी और दिव्य शक्तियों में फर्क होता है। दरअसल, विरोचन ने प्रजापति की शिक्षा को गलत समझा और असुरों को आत्मा की जगह शरीर को पूजने की शिक्षा दी। यही कारण है कि आज भी असुर परंपरा को मानने वाले लोग अपने मृतक की देह को सुगंध, माला तथा आभूषणों से सुसज्जित करते थे।
 
ऋग्वेद के दसवें मंडल के सत्ताईसवें सूक्त में इन्द्र ने अपने बल तथा पराक्रम का स्वयं वर्णन किया है। उस सूक्त में उन्होंने कहा है कि वह केवल यज्ञकर्म-शून्य व्यक्तियों का ही विनाश करते हैं। कोई भी यह नहीं कह सकता कि उन्होंने कभी किसी सात्विक पुरुष का वध किया है।
 
स्वयं इन्द्र के ही शब्दों में- ''मेरी वीरता की सभी प्रशंसा करते हैं और ऋषिगणों तक ने मेरी स्तुति की है। युद्ध में कोई मुझे निरुद्ध नहीं कर सकता, पर्वतों में भी इतनी शक्ति नहीं कि वह मेरा रास्ता अवरुद्ध करने में सफल हो सकें। जब मैं शब्द करता हूं तो बहरे लोग भी कांपना शुरू कर देते हैं। जो लोग मुझे नहीं मानते और मेरे लिए अर्पित सोमरस का पान करने की घृष्ठता करते हैं उनको अपने वज्र से मैं मृत्यु के घाट उतार देता हूं।''
 
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इन्द्र-वृत्रासुर युद्ध : यह सतयुग की बात है जब कालकेय नाम के एक राक्षस का संपूर्ण धरती पर आतंक था। वह वत्रासुर के अधीन रहता था। दोनों से त्रस्त होकर सभी देवताओं ने मिलकर सोचा वृत्रासुर का वध करना अब जरूरी हो गया। वे इन्द्र को आगे लेकर ब्रह्माजी के पास आए।
 
ब्रह्मा ने यह देखकर उनसे कहा मैं तुम्हे वत्रासुर के वध का उपाय बताता हूं। पृथ्वी पर दधीच नाम के एक ऋषि रहते हैं जो स्वभाव से बहुत उदार हैं। तुम सब उनसे जाकर वर मांगो। जब वे तुम्हें वर देने को तैयार हो जाएं। तब उनसे कहना कि तीनों लोक के हित के लिए आप हमें अपनी हड्डियां दे दीजिए। तब वे देह त्यागकर तुम्हें अपनी हड्डिया दे देंगे। तुम एक छ: दांतों वाला एक बहुत भयानक वज्र बनाना। उस वज्र से इन्द्र वत्रासुर का वध कर सकेगा।
 
ब्रह्माजी के इस प्रकार कहने के बाद सभी देवता सरस्वती के दूसरे तट पर ऋषि दधीच के पास गए। देवताओं ने दधीच से प्रार्थना की। सभी की प्रार्थना पर दधीची ने शरीर त्याग किया। ब्रह्मा के आदेश के अनुसार उनकी हड्डियां सभी देवता विश्वकर्मा के पास ले गए। विश्वकर्मा ने उनकी हड्डियों से वज्र तैयार किया और उस वज्र को इन्द्र को देकर कहा कि आप लोग वत्रासुर को भस्म कर डालिए। उसके बाद देवताओं ने वत्रासुर पर हमला बोल दिया। इन्द्र ने अपनी पूर्ण शक्ति के साथ जब वत्रासुर पर प्रहार किया तो वह गिर पड़ा। वज्र की चोट से वह कुछ ही समय बाद मारा गया।
 
वृत्रासुर एक शक्तिशाली असुर था जिसने आर्यों के नगरों पर कई बार आक्रमण करके उनकी नाक में दम कर रखा था। अंत में इन्द्र ने मोर्चा संभाला और उससे उनका घोर युद्ध हुआ जिसमें वृत्रासुर का वध हुआ। इन्द्र के इस वीरतापूर्ण कार्य के कारण चारों ओर उनकी जय-जयकार और प्रशंसा होने लगी थी।
 
शोधकर्ता मानते हैं कि वृत्रासुर का मूल नाम वृत्र ही था, जो संभवतः असीरिया का अधिपति था। पारसियों की अवेस्ता में भी उसका उल्लेख मिलता है। वृत्र ने आर्यों पर आक्रमण किया था तथा उन्हें पराजित करने के लिए उसने अद्विशूर नामक देवी की उपासना की थी।
 
इन्द्र और वृत्रासुर के इस युद्ध का सभी संस्कृतियों और सभ्यताओं पर गहरा असर पड़ा था। तभी तो होमर के इलियड के ट्राय-युद्ध और यूनान के जियॅस और अपोलो नामक देवताओं की कथाएं इससे मिलती-जुलती हैं। इससे पता चलता है कि तत्कालीन विश्व पर इन्द्र-वृत्र युद्ध का कितना व्यापक प्रभाव पड़ा था।
 
उल्लेखनीय है कि प्रसिद्ध पौराणिक पात्र वृत्र (प्रथम मेघ) के वंशज हिरण्यकश्यप का पुत्र प्रहलाद था और प्रहलाद का पुत्र विरोचन था और विरोचन का पुत्र बाली था। मोटे तौर पर वृत्र या मेघ ऋषि के वंशजों को मेघवंशी कहा जाता है। पौराणिक कथाओं में जिन मानव समूहों को असुर, दैत्य, राक्षस, नाग आदि कहा गया, वे सिंधु घाटी सभ्यता के मूल निवासी थे और मेघवंशी थे। आर्यों और अन्य के साथ पृथ्वी (भूमि) पर अधिकार हेतु संघर्ष में वे पराजित हुए थे।
 
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राजा बलि और इन्द्र का युद्ध : संभवत: यह 9078 ईसा पूर्व की बात है, जब असुरों के राजा बलि ने स्वर्ग पर चढ़ाई कर दी थी और इन्द्र सहित सभी देवताओं को वहां से भगा दिया था। उल्लेखनीय है कि वृत्र (प्रथम मेघ) के वंशज हिरण्यकश्यप का पुत्र प्रहलाद था। प्रहलाद के पुत्र विरोचन का पुत्र महाबली था। राजा बलि की सहायता से ही देवराज इन्द्र ने समुद्र मंथन किया था।
 
इन्द्र-बलि युद्ध : समुद्र मंथन से प्राप्त जब अमृत पीकर देवता अमर हो गए, तब फिर से देवासुर संग्राम छिड़ा और इन्द्र द्वारा वज्राहत होने पर बलि की मृत्यु हो गई। ऐसे में तुरंत ही शुक्राचार्य के मंत्रबल से वह पुन: जीवित हो गया। लेकिन उसके हाथ से इन्द्रलोक का बहुत बड़ा क्षेत्र जाता रहा और फिर से देवताओं का साम्राज्य स्थापित हो गया।
 
बलि ने देवताओं से बदला लेने के लिए घोर तपस्या की और फिर विश्वविजय की सोचकर अश्वमेध यज्ञ किया और इस यज्ञ के चलते उसकी प्रसिद्धि चारों ओर फैलने लगी। अग्निहोत्र सहित उसने 98 यज्ञ संपन्न कराए थे और इस तरह उसके राज्य और शक्ति का विस्तार होता ही जा रहा था, तब उसने इन्द्र के राज्य पर चढ़ाई करने की सोची।
 
इस तरह राजा बलि ने 99वें यज्ञ की घोषणा की और सभी राज्यों और नगरवासियों को निमंत्रण भेजा। हिरण्यकशिपु के पुत्र प्रहलाद और उनके पुत्र राजा बलि के साथ इन्द्र का युद्ध हुआ और देवता हार गए, तब संपूर्ण जम्बूद्वीप पर असुरों का राज हो गया था।
 
इसके बाद इन्द्र ने भगवान विष्णु की सहायता ली। विष्णु ने वामन अवतार लिया और वे पहुंच गए राजा बलि से दान मांगने। राजा बलि बड़े ही दानवीर और पराक्रमी थे उन्होंने भी दान देना सहर्ष स्वीकार कर लिया जबकि शुक्राचार्य ने समझाया था कि जिसे तू दान देने का सोच रहा है, वह कोई साधारण मानव नहीं है। लेकिन बलि ने शुक्राचार्य की बातों को नजरअंदाज कर दिया और अंत में भगवान वामन ने एक पग में भूमंडल नाप लिया। दूसरे में स्वर्ग और तीसरे के लिए बलि से पूछा कि तीसरा पग कहां रखूं? पूछने पर बलि ने मुस्कराकर कहा- इसमें तो कमी आपके ही संसार बनाने की हुई, मैं क्या करूं भगवान? अब तो मेरा सिर ही बचा है। इस प्रकार विष्णु ने उसके सिर पर तीसरा पैर रख दिया। उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर विष्णु ने उसे पाताल में रसातल का कलयुग के अंत तक राजा बने रहने का वरदान दे दिया।
 
अगले पन्ने पर इन्द्र का तीसरा युद्ध...
 

इन्द्र-शम्बर युद्ध : इन्द्र का दूसरा महत्वपूर्ण युद्ध शम्बर के साथ हुआ था। इन्द्र ने शम्बर के साथ युद्ध क्यों किया था? दरअसल, दक्षिण में दण्डक वन में सम्बर का राज्य था और शम्बर मायावी युद्ध में विशेष रूप पारंगत था। उसे शम्बासुर कहते थे।
 
देवराज इन्द्र ने राजा दशरथ से शम्बासुर को मारने के लिए सहायता का अनुरोध किया था। रानी कैकयी ने भी इस युद्ध में दशरथ का साथ दिया था। इसी युद्ध में रानी कैकयी ने राजा दशरथ की जान बचाई थी जिसके एवज में दशरथ ने उनसे कोई एक वर मांगने को कहा था लेकिन कैकयी ने यह कहकर टाल दिया था कि जब वक्त पड़ेगा तब मांग लूंगी। अंत में उन्होंने भगवान राम को 14 वर्ष वनवास भेजने का वर मांग लिया था।
 
मान्यता है कि शम्बर ने असुर सभ्यता के विस्तार के लिए निन्यानवे नगरों की रचना की थी और वे नगर अत्यंत समृद्ध तथा ऐश्वर्यशाली थे। नगरों को पहले पुरियां कहते थे। इन्द्र का जब उससे युद्ध हुआ तो उसकी समस्त पुरियां नष्ट हो गईं। इन्द्र ने सौवीं पुरी को अपने निवास के लिए रखकर शेष सबको अपने वज्र से नष्ट कर दिया था। इसी कारण इन्द्र को पुरन्दर कहा जाने लगा।
 
अगले पन्ने पर इन्द्र का चौथा युद्ध...
 

दाशराज्ञ का युद्ध : ऋग्वेद के सप्तम मंडल के 18वें सूक्त में इस युद्ध का उल्लेख मिलता है। इसे 10 राजाओं का युद्ध कहा जाता है। इस युद्ध में एक ओर सूर्यवंशी राजा सुदास थे तो दूसरी ओर अन्य जनपदों के 10 नरेश। सुदास के सहायक तथा पुरोहित ऋषि वशिष्ठ थे। वशिष्ठ के कहने से ही देवराज इन्द्र ने इस युद्ध में सुदास का साथ दिया था।
 
ऋग्वेद के तीसरे मण्डल के वर्णनानुसार विश्वामित्र के प्रार्थना करने पर इन्द्र ने विपाशा (व्यास) तथा शतद्रु नदियों के अथाह जल को सुखा दिया, जिससे भरतों की सेना आसानी से इन नदियों को पार कर गयी।
 
महाभारत से पहले हुई थी एक और 'महाभारत'
 
यह युद्ध परुष्णी अर्थात रावी नदी के तट पर हुआ था। सुदास के शत्रुओं ने परुष्णी के बांध को तोड़ दिया था जिसकी वजह से उसका जल चारों ओर बहकर समस्त भू-प्रदेश को डुबाने लगा। फलस्वरूप उनके साथ युद्ध करना पड़ा जिसमें प्रतिपक्ष के 66 हजार से अधिक व्यक्ति मारे गए। अंततः उन लोगों को इन्द्र का वर्चस्व स्वीकार करने के लिए बाध्य होना पड़ा।
 
सुदास दिवोदास के पुत्र थे, जो स्वयं सृंजय के पुत्र थे। सृंजय के पिता का नाम देवव्रत था। सुदास के युद्ध में सलाहकार ऋषि वशिष्ठ थे। सुदास के विरुद्ध 10 राजा युद्ध लड़ रहे थे जिनका नेतृत्व पुरु कबीला के राजा संवरण कर रहे थे जिनके सैन्य सलाहकार ऋषि विश्वामित्र थे।
 
ऋग्वेद के तीसरे मंडल के वर्णनानुसार इन्द्र ने विपाशा (व्यास) तथा शतद्रु नदियों के अथाह जल को सुखा दिया जिससे भरतों की सेना आसानी से इन नदियों को पार कर गई। दशराज्य युद्ध में इन्द्र ने भरतों का साथ दिया था। 
 
अगले पन्ने पर इन्द्र का पांचवां युद्ध...
 

भगवान श्रीकृष्ण के काल में जो इन्द्र थे वे शचिपति इन्द्र थे या अन्य कोई यह शोध का विषय हो सकता है। हालांकि ऐसा मान जाता है कि महाभारत काल तक देवतागण धरती पर ही रहते थे। कलियुग की शुरुआत के साथ ही सभी आकाशमार्ग से कहीं चले गए। देवताओं ने वैसे भी अमृतपान किया था इसलिए वे अजर अमर हो गए थे।
 
इन्द्र के प्रभाव, प्रसिद्धि और भय के चलते भगवान कृष्ण के पहले 'इन्द्रोत्सव' नामक उत्तर भारत में एक बहुत बड़ा त्योहार मनाया जाता था। भगवान कृष्ण ने इन्द्र की पूजा बंद करवाकर गोपोत्सव, रंगपंचमी और होलीका उत्सव का आयोजन करना शुरू किया।
 
श्रीकृष्ण के निवेदन पर स्वर्ग के सभी देवी और देवताओं की पूजा बंद हो गई। धूमधाम से गोवर्धन पूजा शुरू हो गई। जब इन्द्र को इस बारे में पता चला, तो उन्होंने प्रलय कालीन बादलों को आदेश दिया कि ऐसी वर्षा करो कि ब्रजवासी डूब जाएं और मेरे पास क्षमा मांगने पर विवश हो जाएं।
 
जब वर्षा नहीं थमी और ब्रजवासी कराहने लगे तो भगवान श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को अपनी अंगुली पर धारण कर उसके नीचे ब्रजवासियों को बुला लिया। गोवर्धन पर्वत के नीचे आने पर ब्रजवासियों पर वर्षा और गर्जन का कोई असर नहीं हो रहा यह देखकर इन्द्र का अभिमान चूर चूर हो गया। बाद में भगवान श्रीकृष्ण का इन्द्र से युद्ध भी हआ और अंतत: इन्द्र हार गए। 
 
गौरतलब है कि इन्द्र हिमालय की वादियों में रहते थे और वे अर्जुन के पिता थे। अर्जुन को बचाने के लिए इन्द्र ने श्रीकृष्ण के कहने पर ही कर्ण के साथ छल करके उसके कवच और कुंडल उससे दान में मांग लिए थे।
 
अगले पन्ने पर अन्य युद्ध...
 

अन्य युद्ध : उपरोक्त महायुद्धों के अतिरिक्त भी अनेक बार इन्द्र युद्ध के मैदान में उतरे। उन्होंने शरत नामक असुर की 7 पुरियों का विध्वंस किया, नमुचि का संहार किया और सुश्रुवा को पराजित किया। सुश्रुवा के साथ 20 अन्य राजा भी इन्द्र से लड़ने आए थे। अंत में इन्द्र ने सबको परास्त कर दिया। शुष्ण और कुयव नामक राजाओं से भी इन्द्र का युद्ध हुआ और उन्होंने उन दोनों का वध कर कुत्स की रक्षा की। इसी प्रकार एक समय उन्होंने त्रसदस्यु और पुरु की भी रक्षा की और दभीति के लिए दस्यु, चमुरि और धुनि का संहार किया।
 
एक बार वानरेंद्र इन्द्र के वैभव के विषय में सुनकर लंका के अधिपति माली ने अपने छोटे भाई सुमाली के साथ इन्द्र पर आक्रमण किया। अनेक सैनिकों के साथ माली मारा गया। सुमाली ने भागकर पाताल लंकापुरी में प्रवेश किया तदनंतर इन्द्र वास्तव में 'इन्द्रवत' हो गया।
 
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अहिल्या के साथ छल : देवी अहिल्या की कथा का वर्णन वाल्मीकि रामायण के बालकांड में मिलता है। अहिल्या अत्यंत ही सुंदर, सुशील और पतिव्रता नारी थी। उनका विवाह ऋषि गौतम से हुआ था। दोनों ही वन में रहकर तपस्या और ध्यान करते थे। ऋषि गौतम ही न्यायसूत्र के रचयिता हैं। शास्त्रों के अनुसार शचिपति इन्द्र ने गौतम की पत्नी अहिल्या के साथ छल से सहवास किया था।
 
अहिल्या की सुंदरता के कारण सभी ऋषि-मुनि, देव और असुर उन पर मोहित थे। देवताओं के राजा इन्द्र तो कुछ ज्यादा ही मोहित हो चले थे। इन्द्र के मन में अहिल्या को पाने का लोभ हो आया। बस फिर क्या था। एक दिन ऋषि के आश्रम के बाहर देवराज इन्द्र रात्रि के समय मुर्गा बनकर बांग देने लगे। गौतम मुनि को लगा कि सुबह हो गई है। मुनि उसी समय उठकर प्रात: स्नान के लिए आश्रम से निकल गए। इन्द्र ने मौका देखकर गौतम मुनि का वेश धारण कर लिया और देवी अहिल्या के पास आ गया।
 
इधर, जब गौतम मुनि को अनुभव हुआ कि अभी रात्रि शेष है और सुबह होने में समय है, तब वे वापस आश्रम की तरफ लौट चले। मुनि जब आश्रम के पास पहुंचे तब इन्द्र उनके आश्रम से बाहर निकल रहा थे। इन्होंने इन्द्र को पहचान लिया। इन्द्र द्वारा किए गए इस कुकृत्य को जानकर मुनि क्रोधित हो उठे और इन्द्र तथा देवी अहिल्या को शाप दे दिया। देवी अहिल्या द्वारा बार-बार क्षमा-याचना करने और यह कहने पर कि 'इसमें मेरा कोई दोष नहीं है', पर गौतम मुनि ने कहा कि तुम शिला बनकर यहां निवास करोगी। त्रेतायुग में जब भगवान विष्णु राम के रूप में अवतार लेंगे, तब उनके चरण रज से तुम्हरा उद्धार होगा। 
 
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भगवान कृष्ण यह भली-भांति जानते थे कि जब तक कर्ण के पास उसका कवच और कुंडल है, तब तक उसे कोई नहीं मार सकता। ऐसे में अर्जुन की सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं। उधर देवराज इन्द्र भी चिंतित थे, क्योंकि अर्जुन उनका पुत्र था। भगवान कृष्ण और देवराज इन्द्र दोनों जानते थे कि जब तक कर्ण के पास पैदायशी कवच और कुंडल हैं, वह युद्ध में अजेय रहेगा।
 
तब कृष्ण ने देवराज इन्द्र को एक उपाय बताया और फिर देवराज इन्द्र एक ब्राह्मण के वेश में पहुंच गए कर्ण के द्वार। देवराज भी सभी के साथ लाइन में खड़े हो गए। कर्ण सभी को कुछ न कुछ दान देते जा रहे थे। बाद में जब देवराज का नंबर आया तो दानी कर्ण ने पूछा- विप्रवर, आज्ञा कीजिए! किस वस्तु की अभिलाषा लेकर आए हैं? 
 
विप्र बने इन्द्र ने कहा, हे महाराज! मैं बहुत दूर से आपकी प्रसिद्धि सुनकर आया हूं। कहते हैं कि आप जैसा दानी तो इस धरा पर दूसरा कोई नहीं है। तो मुझे आशा ही नहीं विश्‍वास है कि मेरी इच्छित वस्तु तो मुझे अवश्य आप देंगे ही।‍ फिर भी मन में कोई शंका न रहे इसलिए आप संकल्प कर लें तब ही मैं आपसे मांगूंगा अन्यथा आप कहें तो में खाली हाथ चला जाता हूं?
 
तब ब्राह्मण के भेष में इन्द्र ने और भी विनम्रतापूर्वक कहा- नहीं-नहीं राजन! आपके प्राण की कामना हम नहीं करते। बस हमें इच्छित वस्तु मिल जाए, तो हमें आत्मशांति मिले। पहले आप प्रण कर लें तो ही मैं आपसे दान मांगू।
 
कर्ण ने तैश में आकर जल हाथ में लेकर कहा- हम प्रण करते हैं विप्रवर! अब तुरंत मांगिए। तब क्षद्म इन्द्र ने कहा- राजन! आपके शरीर के कवच और कुंडल हमें दानस्वरूप चाहिए। एक पल के लिए सन्नाटा छा गया। कर्ण ने इन्द्र की आंखों में झांका और फिर दानवीर कर्ण ने बिना एक क्षण भी गंवाएं अपने कवच और कुंडल अपने शरीर से खंजर की सहायता से अलग किए और ब्राह्मण को सौंप दिए।
 
इन्द्र ने तुंरत वहां से दौड़ ही लगा दी और दूर खड़े रथ पर सवार होकर भाग गए। इसलिए क‍ि कहीं उनका राज ‍खुलने के बाद कर्ण बदल न जाए। कुछ मील जाकर इन्द्र का रथ नीचे उतरकर भूमि में धंस गया। तभी आकाशवाणी हुई, 'देवराज इन्द्र, तुमने बड़ा पाप किया है। अपने पुत्र अर्जुन की जान बचाने के लिए तूने छलपूर्वक कर्ण की जान खतरे में डाल दी है। अब यह रथ यहीं धंसा रहेगा और तू भी यहीं धंस जाएगा।'
 
तब इन्द्र ने आकाशवाणी से पूछा, इससे बचने का उपाय क्या है? तब आकाशवाणी ने कहा- अब तुम्हें दान दी गई वस्तु के बदले में बराबरी की कोई वस्तु देना होगी। इन्द्र क्या करते, उन्होंने यह मंजूर कर लिया। तब वे फिर से कर्ण के पास गए। लेकिन इस बार ब्राह्मण के वेश में नहीं। कर्ण ने उन्हें आता देखकर कहा- देवराज आदेश करिए और क्या चाहिए?
 
इन्द्र ने झेंपते हुए कहा, हे दानवीर कर्ण अब मैं याचक नहीं हूं बल्कि आपको कुछ देना चाहता हूं। कवच-कुंडल को छोड़कर मांग लीजिए, आपको जो कुछ भी मांगना हो।
 
कर्ण ने कहा- देवराज, मैंने आज तक कभी किसी से कुछ नही मांगा और न ही मुझे कुछ चाहिए। कर्ण सिर्फ दान देना जानता है, लेना नहीं।
 
तब इन्द्र ने विनम्रतापूर्वक कहा- महाराज कर्ण, आपको कुछ तो मांगना ही पड़ेगा अन्यथा मेरा रथ और मैं यहां से नहीं जा सकता हूं। आप कुछ मांगेंगे तो मुझ पर बड़ी कृपा होगी। आप जो भी मांगेंगे, मैं देने को तैयार हूं।
 
कर्ण ने कहा- देवराज, आप कितना ही प्रयत्न कीजिए लेकिन मैं सिर्फ दान देना जानता हूं, लेना नहीं। मैंने जीवन में कभी कोई दान नहीं लिया।
 
तब लाचार इन्द्र ने कहा- मैं यह वज्ररूपी शक्ति आपको बदले में देकर जा रहा हूं। तुम इसको जिसके ऊपर भी चला दोगे, वो बच नहीं पाएगा। भले ही साक्षात काल के ऊपर ही चला देना, लेकिन इसका प्रयोग सिर्फ एक बार ही कर पाओगे।
 
कर्ण कुछ कहते उसके पहले ही देवराज वह वज्र शक्ति वहां रखकर तुरंत भाग लिए। कर्ण के आवाज देने पर भी वे रुके नहीं। बाद में कर्ण को उस वज्र शक्ति को अपने पास मजबूरन रखना पड़ा। लेकिन जैसे ही दुर्योधन को मालूम पड़ा कि कर्ण ने अपने कवच-कुंडल दान में दे दिए हैं, तो दुर्योधन को तो चक्कर ही आ गए। उसको हस्तिनापुर का राज्य हाथ से जाता लगने लगा। लेकिन जब उसने सुना कि उसके बदले वज्र शक्ति मिल गई है तो फिर से उसकी जान में जान आई।
 
अब इसे भी कर्ण की गलती नहीं मान सकते। यह उसकी मजबूरी थी। लेकिन उसने यहां गलती यह की कि वह इन्द्र से कुछ मांग ही लेता। नहीं मांगने की गलती तो गलती ही है। अरे, वज्र शक्ति को तीन बार प्रयोग करने की इच्छा ही व्यक्त कर देता।
 
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दुर्वासा ऋषि का श्राप : एक बार इन्द्र उन्मत्त होकर सुरापान करने के बाद एकांत में रंभा के साथ क्रीड़ा कर रहे थे, तभी दुर्वासा मुनि अपने शिष्यों के साथ उनके यहां पहुंचे। इन्द्र ने अतिथिसत्कार किया।
 
दुर्वासा ने आशीर्वाद के साथ एक पारिजात पुष्प इन्द्र को दिया। वह पुष्प विष्णु से उपलब्ध हुआ था। ऐश्‍वर्य के चलते अभिमानी इन्द्र ने वह पुष्प अपने हाथी के मस्तक पर रख दिया। पुष्प के प्रभाव से हाथी अलौकिक गरिमायुक्त होकर जंगल में चला गया। इन्द्र उसे संभालने में असमर्थ रहे।
 
जब दुर्वासा ने देखा की इन्द्र ने मेरे द्वारा दिए गए फूल की उपेक्षा की तब वे क्रोधित हो उठे और उन्होंने इन्द्र को श्रीहीन होने का शाप दे डाला। उनके शाप के चलते असुरों ने स्वर्ग पर आक्रमण कर दिया और इन्द्र की सत्ता और उसका ऐश्‍वर्य नष्ट हो गया। 
 
इन्द्र घबराकर पहले बृहस्पति की और फिर ब्रह्मा की शरण में पहुंचे। अंत में समस्त देवता विष्णु के पास गए। तब विष्णु ने अमृत को चखने का विकल्प बताया औ समुद्र मंथन करने की बात कही। तब विष्णु ने इन्द्र को बलि के साथ समुद्र मंथन करने की तैयारी की आज्ञा दी और लक्ष्मी को समुद्र की पुत्री होने की आज्ञा दी। अत: लक्ष्मी समुद्र में चली गई। विष्णु ने लक्ष्मी के परित्याग की विभिन्न स्थितियों का वर्णन करके सभी देवताओं को समुद्र-मंथन करने का आदेश दिया। मंथन से जो अनेक रत्न निकले, उनमें लक्ष्मी भी थी।
 
इस प्रकार जब अंत में अमृत निकला तो उसे लेने और पीने के लिए सुर और असुरों में लड़ाई शुरू हो गए। अंत में मोहिनी बनकर भगवान विष्णु ने सभी अमृत देवताओं को पीला दिया और वे अजर अमर हो गए जिसमें इन्द्र भी शामिल थे। 
 
सहस्त्रार की पत्नी : सहस्त्रार नामक राजा की पत्नी मानस सुंदरी जब गर्भवती हुई तो उदास रहने लगी। राजा के पूछने पर उसने बताया कि इन्द्र का वैभव देखने की उसकी उत्कट अभिलाषा थी। राजा ने उसे तुरंत इन्द्र की ऋद्धि के दर्शन कराए। फलस्वरूप उसकी कोख से जिस बालक ने जन्म लिया उसका नाम इन्द्र ही रखा गया। 
 
* राम के काल में इन्द्र : देवताओं का राजा इन्द्र कहलाता था। उसे मेषवृषण भी कहते हैं। राम-रावण युद्ध देखकर किन्नरों ने कहा कि यह युद्ध समान नहीं है क्योंकि रावण के पास तो रथ है और राम पैदल हैं। अत: इन्द्र ने अपना रथ राम के लिए भेजा, जिसमें इन्द्र का कवच, बड़ा धनुष, बाण तथा शक्ति भी थे। विनीत भाव से हाथ जोड़कर मातलि ने रामचंद्र से कहा कि वे रथादि वस्तुओं को ग्रहण करें। युद्ध-समाप्ति के बाद राम ने मातलि को आज्ञा दी कि वह इन्द्र का रथ आदि लौटाकर ले जाय।
 
इन्द्र- मार्कण्डेय ऋषि संवाद : मार्कण्डेय ऋषि की तपस्या से घबराकर इन्द्र ने उर्वसी को उनकी तपस्या भंग करने के लिए भेजा। कहते हैं कि इन्द्र का शासन काल बहत्तर चैकड़ी (चतुर्युगी) युग का होता है और वह तब तक अपने पद की रक्षा के लिए कुछ भी करता है।
 
इसी उद्देश्य से इन्द्र ने मार्कण्डेय ऋषि के पास एक उर्वसी स्वर्ग से भेजी गई। उर्वसी ने अपनी सिद्धि शक्ति से सुहावना मौसम बनाया तथा खूब नृत्य और गान किया। अंत में निवस्त्र हो गई। तब मार्कण्डेय ऋषि ने कहा कि हे देवी! आप यहां किसलिए आई? इस पर उर्वसी ने कहा कि हे ऋषि। आप जीत गए मैं हार गई। आप टस से मस नहीं हुए आप सचमुच ब्रह्मज्ञानी है। लेकिन यदि में आपसे हार कर स्वर्ग गई तो मेरा मजाक उड़ाया जाएगा। इन्द्र की उलाहना का सामान करना होगा। उर्वसी ने कहा कि इन्द्र की पटरानी मैं ही हूं।
 
इस पर मार्कण्डेय ऋषि ने कहा कि जब इन्द्र मरेगा तब क्या करेगी? उर्वसी बोली मैं चैदह इन्द्र तक बनी रहूंगी मेरे सामने चैदह इन्द्र अपनी-अपनी इन्द्र पदवी भोग कर मर जाएंगे। मेरी आयु स्वर्ग की पटरानी के रूप में है। इसी तरह एक ब्रह्मा के दिन (एक कल्प) की आयु एक इन्द्र की पटरानी शचि की है।  
 
अंत में इस संवाद के बीच ही फिर इन्द्र आया तथा कहने लगा कि हे ऋषि आप जीत गए हम हार गए। चलो आप अब इन्द्र के सिंहासन पर विराजमान होओ। इस पर मार्कण्डे ऋषि बोले- रे इन्द्र क्या कह रहा है? इन्द्र का राज मेरे किस काम का। मैं तो ब्रह्म ज्ञान की साधना कर रहा हूं। वहां पर तेरे जैसे लाखों इन्द्र हैं। तू भी अनन्य मन से (नीचे की साधना- ब्रह्मा, विष्णु, शिव तथा देवी-देवताओं का त्याग करने को अनन्य मन कहते हैं) ब्रह्म की साधना कर ले। ब्रह्म लोक में साधक कल्पों तक मुक्त हो जाता है।
 
इस पर इन्द्र ने कहा ऋषिजी, फिर कभी देखेंगे। अभी तो मौज करने दो यदि आप मेरे सिंहासन पर नहीं बैठना चाहते तो ठीक है यह अच्‍छी बात है आप साधना करते रहें। अब यह तो कम से कम स्पष्ट हो गया कि आप इन्द्र पद के लिए साधना नहीं कर रहे हैं तो मैं नि‍श्चिंत हूं।

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यवक्रीत का हठ : महाभारत काल में भरद्वाज और रैभ्य दो बड़े तपस्वी थे। दोनों जंगल में पास-पास बने आश्रमों में रहते थे। दोनों में गहरी मित्रता थी। रैभ्य के दो पुत्र थे। परावसु और अर्वावसु। दोनों वेदज्ञ थे और उनकी विद्वता की चर्चा दूर-दूर तक होती थी।
 
भरद्वाज ज्यादातर तपस्या में ही समय बिताते थे। उनका एक पुत्र था, जिसका नाम था यवक्रीत। यवक्रीत ने देखा कि ब्राह्मण लोग, रैभ्य का जितना आदर करते हैं उतना मेरे पिता का नहीं करते। रैभ्य और उनके पुत्रों की विद्वता और चर्चा अधिक होने के कारण यवक्रीत को ठीक नहीं लगा।
 
अपनी इस समस्या से छुटकारा पाने के लिए यवक्रीत ने देवराज इंद्र की तपस्या करना शुरू कर दी। यवक्रीत ने कठिन तप किया। उसके तप को देखते हुए देवराज इंद्र उसके पास अवतरित हुए। उन्होंने यवक्रीत से पूछा, 'यवक्रीत तुम किस उद्देश्य के लिए तप कर रहे थे।'
 
तब यवक्रीत ने कहा कि, 'देवराज मुझे संपूर्ण वेदों का ज्ञान अचानक हो जाए और वह भी इतना की अभी तक किसी ने अध्ययन भी नहीं किया हो। मैं गुरु के यहां सीख तो सकता हूं पर परेशानी यह है कि एक-एक छंद को रटना पड़ता है। इसलिए आप मुझे ऐसा वरदान दें की वेद मुझे कंठस्थ हो जाए।
 
यह सुनकर इंद्र, हंस पड़े, उन्होंने कहा कि, 'ऋषिकुमार। तुम उल्टे रास्ते पर चल पड़े हो, अच्छा यही है कि किसी योग्य आचार्य के यहां उसके शिष्य बनकर रहो और अपने परिश्रम से वेदों का अध्ययन करो और विद्वान बनो', यह कहकर देवराज इंद्र चले गए।
 
किंतु यवक्रीत ने अपना हठ नहीं छोड़ा। वह फिर से तप करने लगा। उसके तप से निकलने वाले तेज के कारण देवताओं को काफी परेशानी होने लगी। उसकी कठिन तपस्या को देखते हुए देवराज इंद्र फिर से यवक्रीत के पास उपस्थित हुए।
 
उन्होंने कहा कि मुनिकुमार तुमने बिना सोचे-समझे यह हठ ठाना है। तुम्हारे पिता वेदों के ज्ञाता हैं। उनसे तुम वेद सीख सकते हो। जाओ और आचार्य से वेद सीखकर बहर्षि बनो। शरीर को व्यर्थ कष्ट न पहुंचाओ। ऐसा कह कर इंद्र फिर चले गए।
 
यवक्रीत अभी भी नहीं माना और तपस्या करता रहा। एक दिन जब वह गंगा स्नान करने जा रहा था तो एक बूढ़े व्यक्ति को किनारे पर बालू को गंगा में फेंकते देखा। उसने आश्चर्य से पूछा। यह क्या कर रहे हैं बाबा। उस व्यक्ति ने उत्तर दिया कि लोगों को गंगा नदी पर पुल न होने की दशा में, उस पार जाने में बड़ी कठिनाई होती है, इसलिए सोच रहा हूं कि एक पुल बना दूं।
 
यह सुनकर यवक्रीत हंस पड़ा। वह बोला इस तरह कभी पुल नहीं बन सकता। आप बेकार का परिश्रम कर रहे हैं। तब उस वृद्ध व्यक्ति ने कहा कि जिस तरह तुम वेदों के ज्ञान के लिए तपस्या कर रहे हो उसी तरह में गंगा नदी में रेत डालकर पुल बनाने की कोशिश कर रहा हूं।
 
यवक्रीत समझ गया कि यह वृद्ध कोई और नहीं देवराज इंद्र हैं। उसे ज्ञान हो गया। यवक्रीत ने अपनी गलती के लिए देवराज से मांफी मांगी और वह वेदों के अध्ययन के लिए लौट आया।

इस तरह इंद्र के संबंध में सैंकड़ों कहानियां और कथाएं हैं जो किसी एक इंद्र से जुड़ी न होकर अलग अलग काल में हुए 14 इंद्रों के संबंध में है। भगवान ब्रह्मा, विष्णु और महेश से हिन्दू धर्म के इतिहास की शुरुआत होती है और देवराज इन्द्र उन्हीं के काल में हुए थे जिन्होंने अमरावती नाम से कई नगर बसाए थे और वे हमेशा सुरों की ओर से दैत्यों, दानवों और राक्षसों से लड़ाई करते रहते थे। इन्द्र की कथा हिमालय के दक्षिण में बसने आए आर्यों की कथा है। दक्षिण में उनका सामना दैत्यों, दाववों और राक्षसों से हुआ था। यहीं बसने वाले वानर, किन्नर और नागों आदि ने देवताओं का साथ दिया था। इति।

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