श्रावण मास में सिर्फ सोमवार को व्रत रखें या पूरे माह?

अनिरुद्ध जोशी
हिन्दुओं के 10 प्रमुख कर्तव्य हैं- संध्योपासन, व्रत-उपवास (श्रावण, एकादशी, प्रदोष, पूर्णिमा और अमावस्या), तीर्थ (चारधाम और सप्तपुरी), दान, उत्सव-त्योहार (संक्रांति, जन्माष्टमी, रामनवमी, नवरात्रि, शिवरात्रि और कुंभ), यज्ञ (पंच यज्ञ), 16 संस्कार, सेवा (गरीब, वृद्ध, अपंग, अनाथ, विधवा महिला आदि की सेवा), वेदपाठ और धर्म प्रचार। उक्त में से व्रत की बात करें तो यहां श्रावण मास में व्रत रखना सबसे श्रेष्ठ माना गया है। यह पाप को मिटाने वाला और मनोकामना की पूर्ति करने वाला माह है।
 
 
जिस तरह गुड फ्राइडे के पहले ईसाइयों में 40 दिन के उपवास चलते हैं और जिस तरह इस्लाम में रमजान माह में रोजे (उपवास) रखे जाते हैं, उसी तरह हिन्दू धर्म में श्रावण मास को पवित्र और व्रत रखने वाला माह माना गया है। सिर्फ सोमवार ही नहीं, पूरे श्रावण माह में निराहारी या फलाहारी रहने की हिदायत दी गई है। इस माह में शास्त्र अनुसार ही व्रतों का पालन करना चाहिए। मन से या मनमानों व्रतों से दूर रहना चाहिए।
 
 
श्रावण सोमवार या पूरा मास : श्रावण माह को कालांतर में 'श्रावण सोमवार' कहने लगे, इससे यह समझा जाने लगा कि श्रावण माह में सिर्फ सोमवार को ही व्रत रखना चाहिए जबकि श्रावण माह से चातुर्मास की शुरुआत होती है। इस पूरे माह ही व्रत रखने का प्रचलन है। लेकिन जो लोग व्रत नहीं रख सकते, वे कम से कम सोमवार को तो रख ही सकते हैं, क्योंकि श्रावण के सोमवार महत्वपूर्ण होते हैं।
 
 
वैसे संपूर्ण सावन का माह पवित्र माना गया है। इस माह से व्रत रखने के दिन शुरू होते हैं, जो 4 माह तक चलते हैं। जो व्यक्ति चातुर्मास में खानपान का अच्छे से ध्यान रखकर चातुर्मास का पालन कर लेता है, उसके जीवन में कभी भी किसी भी प्रकार का रोग और शोक नहीं होता है।
 
 
श्रावण व्रत : व्रत ही तप है। यह उपवास भी है। हालांकि दोनों में थोड़ा फर्क है। व्रत में मानसिक विकारों को हटाया जाता है, तो उपवास में शारीरिक। इन व्रतों या उपवासों को कैसे और कब किया जाए, इसका अलग नियम है। नियम से हटकर जो मनमाने व्रत या उपवास करते हैं, उनका कोई धार्मिक महत्व नहीं। व्रत से जीवन में किसी भी प्रकार का रोग और शोक नहीं रहता। व्रत से ही मोक्ष प्राप्त किया जाता है। श्रावण माह को व्रत के लिए नियुक्त किया गया है। श्रावण मास में उपाकर्म व्रत का महत्व ज्यादा है, इसे 'श्रावणी' भी कहते हैं।
 
 
श्रावण मास से हिन्दुओं के व्रतों के 4 माह अर्थात चतुर्मास की शुरुआत होती है। श्रावण माह में व्रत रखना जरूरी है। यह हिन्दुओं का सबसे पवित्र माह है। इस माह में प्रत्येक हिन्दू का कर्तव्य है कि वह व्रत रखे और नियमों का पालन करे। यदि वह ऐसा नहीं करता है तो वह जीवन में संकटों से घिरा रहेगा और यह भी माना जाएगा कि उसे हिन्दू धर्म की परवाह ही नहीं। यदि वह गंभीर रोग से ग्रस्त है, कमजोर है या किसी विशेष यात्रा पर है, तब ऐसे में व्रत नहीं रखना क्षमायोग्य है।
 
 
*संकल्पपूर्वक किए गए कर्म को 'व्रत' कहते हैं। किसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए दिनभर के लिए अन्न या जल या अन्य तरह के भोजन या इन सबका त्याग व्रत कहलाता है। व्रत धर्म का साधन माना गया है। उपवास का अर्थ होता है ऊपर वाले का मन में निवास। उपवास को व्रत का अंग भी माना गया है।
 
 
*उपवास के प्रकार- 1. प्रात: उपवास, 2. अद्धोपवास, 3. एकाहारोपवास, 4. रसोपवास, 5. फलोपवास, 6. दुग्धोपवास, 7. तक्रोपवास, 8. पूर्णोपवास, 9. साप्ताहिक उपवास, 10. लघु उपवास, 11. कठोर उपवास, 12. टूटे उपवास, 13. दीर्घ उपवास।
 
 
*उपवास के लाभ : किसी भी प्रकार का गंभीर रोग इस उपवास से समाप्त किया जा सकता है। शरीर सहित मन और मस्तिष्क को हमेशा संतुलित और स्वस्थ बनाए रखा जा सकता है। इससे व्यक्ति की आयु बढ़ती है तथा व्यक्ति जीतेन्द्रिय कहलाता है।
 
 
व्रत का विधान : श्रावण सोमवार व्रत सूर्योदय से प्रारंभ कर तीसरे पहर तक किया जाता है। व्रत में एक समय भोजन करने को एकाशना कहते हैं और पूरे समय व्रत करने को पूर्णोपवा कहते हैं। ये व्रत कठिन होते हैं। ऐसा नहीं कर सकते कि आप सुबह फलाहार ले लें और फिर शाम को भोजन कर लें या दोनों ही समय फलाहार लेकर समय गुजार दें। बहुत से लोग साबूदाने की खिचड़ी दोनों समय डटकर खा लेते हैं, तो फिर व्रत या उपवास का कोई मतलब नहीं। व्रत या उपवास का अर्थ ही यही है कि आप भोजन को त्याग दें।
 
 
पुराणों और शास्त्रों के अनुसार सोमवार के व्रत 3 तरह के होते हैं- सावन सोमवार, सोलह सोमवार और सोम प्रदोष। हालांकि महिलाओं के लिए सावन सोमवार की व्रत विधि का उल्लेख मिलता है। उन्हें उस विधि के अनुसार ही व्रत रखने की छूट है।
 
 
शिवपुराण के अनुसार जिस कामना से कोई इस मास के सोमवारों का व्रत करता है, उसकी वह कामना अवश्य एवं अतिशीघ्र पूरी हो जाती है। जिन्हें 16 सोमवार व्रत करने हैं, वे भी सावन के पहले सोमवार से व्रत करने की शुरुआत कर सकते हैं। इस मास में भगवान शिव की बेलपत्र से पूजा करना श्रेष्ठ एवं शुभ फलदायक है।
 
 
क्यों है सावन की विशेषता?:- 
पहला कारण : इस माह में पतझड़ से मुरझाई हुई प्रकृति पुनर्जन्म लेती है। लाखों-करोड़ों वनस्पतियों, कीट-पतंगों आदि का जन्म होता है। अन्न और जल में भी जीवाणुओं की संख्या बढ़ जाती है जिनमें से कई तो रोग पैदा करने वाले होते हैं। ऐसे में उबला और छना हुआ जल ग्रहण करना चाहिए, साथ ही व्रत रखकर कुछ अच्छा ग्रहण करना चाहिए। श्रावण माह से वर्षा ऋतु का प्रारंभ होता है। प्रकृति में जीवेषणा बढ़ती है। मनुष्य के शरीर में भी परिवर्तन होता है। चारों ओर हरियाली छा जाती है। ऐसे में यदि किसी पौधे को पोषक तत्व मिलेंगे, तो वह अच्छे से पनप पाएगा और यदि उसके ऊपर किसी जीवाणु का कब्जा हो गया, तो जीवाणु उसे खा जाएंगे। इसी तरह मनुष्य यदि इस मौसम में खुद के शरीर का ध्यान रखते हुए उसे जरूरी रस, पौष्टिक तत्व आदि दे तो उसका शरीर नया जीवन और यौवन प्राप्त करता है
 
 
दूसरा कारण : साल का सबसे पाक और पवित्र महीना सावन को ही माना जाता है। ऐसा माना जाता है कि इस महीने में प्रत्येक दिन भक्तिभाव के लिए होता है। जिस भी भगवान को आप मानते हैं, आप उसकी पूरे मन से आराधना कर सकते हैं। लेकिन सावन के महीने में विशेषकर भगवान शिव, मां पार्वती और श्रीकृष्णजी की पूजा का काफी महत्व होता है।
 
 
हिन्दू धर्म की पौराणिक मान्यता के अनुसार सावन महीने को खासकर देवों के देव महादेव भगवान शंकर का महीना माना जाता है। इस संबंध में पौराणिक कथा है कि जब सनत कुमारों ने महादेव से उन्हें सावन महीना प्रिय होने का कारण पूछा, तो महादेव भगवान शिव ने बताया कि जब देवी सती ने अपने पिता दक्ष के घर में योगशक्ति से शरीर त्याग किया था, उससे पहले देवी सती ने महादेव को हर जन्म में पति के रूप में पाने का प्रण किया था। अपने दूसरे जन्म में देवी सती ने पार्वती के नाम से हिमाचल और रानी मैना के घर में पुत्री के रूप में जन्म लिया। पार्वती ने युवावस्था के सावन महीने में निराहार रहकर कठोर व्रत किया और उन्हें प्रसन्न कर विवाह किया जिसके बाद से ही महादेव के लिए यह माह विशेष हो गया।
 
 
श्रावणी उपाकर्म के 3 पक्ष हैं- प्रायश्चित संकल्प, संस्कार और स्वाध्याय। पूरे माह किसी नदी के किनारे किसी गुरु के सान्निध्य में रहकर श्रावणी उपाकर्म करना चाहिए।
 
प्रायश्चित : प्रायश्चित रूप में नदी किनारे गाय के दूध, दही, घी, गोबर, गोमूत्र तथा पवित्र कुशा से स्नान कर वर्षभर में जाने-अनजाने में हुए पापकर्मों का प्रायश्चित करना चाहिए।
 
संस्कार : प्रायश्चित करने के बाद यज्ञोपवीत या जनेऊ धारण कर आत्मसंयम का संस्कार करना चाहिए। इस संस्कार से व्यक्ति का दूसरा जन्म हुआ माना जाता है और वह द्विज कहलाता है।
 
स्वाध्याय : इसकी शुरुआत सावित्री, ब्रह्मा, श्रद्धा, मेधा, प्रज्ञा, स्मृति, सदसस्पति, अनुमति, छंद और ऋषि को घी की आहुति से होती है। जौ के आटे में दही मिलाकर ऋग्वेद के मंत्रों से आहुतियां दी जाती हैं। इस यज्ञ के बाद वेद-वेदांग का अध्ययन आरंभ होता है। श्रावण माह में श्रावण शुक्ल पूर्णिमा को श्रावणी उपाकर्म प्रत्येक हिन्दू के लिए जरूरी बताया गया है। इसमें दसविधि स्नान करने से आत्मशुद्धि होती है व पितरों के तर्पण से उन्हें भी तृप्ति होती है। श्रावणी पर्व वैदिक काल से शरीर, मन और इन्द्रियों की पवित्रता का पुण्य पर्व माना जाता है।
 

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