श्री शनि जयंती : श्री शनिदेव के जीवन की कहानी आपको यहां मिलेगी

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-शरच्चन्द्र दिघे, मुंबई
 
नीलांजन समाभासं रविपुत्रं यमाग्रजम्।
छायामार्तंड संभूतं तं नमामि शनैश्चरम्|
 
कोणोऽन्तको रौद्रयमोऽथ बभ्रु:। कृष्ण: शनि: पिंगलमन्दसौरि:।
नित्यं स्मृतो यो हरते च पीक्राम्। तस्मै नमः श्रीरविनन्दनाय।।
 
ये सर्वपरिचित ऐसे स्रोत हैं कि जिनमें श्री शनिदेवजी का वर्णन तथा नामजप दिया गया है। इनके पठन या रटन से श्री शनि महाराज प्रसन्न हो जाते हैं। प्रश्न यह अनुपस्थित होता है कि एक से बढ़कर एक नवग्रहों में श्री शनि महाराज की ही पूजा, उपासना या स्तवन सर्वसामान्य लोग ज्यादा क्यों करते हैं?

क्या श्री शनिदेव एक अत्यंत क्रोधी होने के कारण उनकी अवकृपा उनको न मानने वालों पर ज्यादा और बारंबार होती है इसलिए हम उनका नामजप, नाम स्मरण करते हैं या भविष्य में अनिष्ट घटनाओं के संपन्न होने के डर से हम उनको शांत करने की चेष्टाएं करते हैं। यह एक अहम् तथा बड़ा भ्रामक सवाल है। सवाल पेचीदा ही नहीं, अपितु भक्त भावनाओं को झकझोरकर हिलाने वाला भी है। हमारे मन में स्थित‍ संशय-आशंकाओं का पूरा निराकरण होना लाजिमी है, जरूरी है इसलिए प्रथम हम श्री शनि महाराज के बारे में पूरी जानकारी लेने की कोशिश करेंगे।
 
श्री शनिदेव की जीवन कहानी
 
उपरोक्त पहले स्रोत में बताया गया है कि श्री शनैश्चर रविपुत्र हैं और मृत्यु देवता यमराज उनके ज्येष्ठ सहोदर हैं।
 
जी हां, इस समूची पृथ्वी को अपने तेजोनिधि से प्रकाशित करने वाले, सारी सृष्टि को अपनी किरणों से जीवन प्रदान करने वाले, पानी का परिवर्तन बादलों में करके बादलों से धरती को जलामृत देने वाले, आदित्य के, सूर्यदेव के श्री शनिजी पुत्र हैं। सूर्यदेव की पत्नी का नाम संज्ञा है। श्री ब्रह्मदेव के पुत्र दक्षराज की संज्ञा अतिरूपवती पुत्री थी। सूर्यदेव (सूरज) और संज्ञा को यमराज और शनैश्चर ये दो पुत्र और तपती, भद्रा, कालिंदी और सावित्री नाम की 4 कन्याएं थीं। 
 
सूर्य की महान और तीव्रतम आभा व तेज को संज्ञा बर्दाश्त नहीं कर पाई। उसने मायके जाना ठान लिया। संज्ञा ने अपनी एक हूबहू प्रतिमा, अपना एक प्रतिरूप जैसी स्त्री का निर्माण किया और उसका नाम संवर्णा (एक ही वर्ण की) रखा। संज्ञा ने संवर्णा से कहा कि वह सूर्य के साथ पत्नी का रिश्ता निभाए, किंतु सूर्य या अन्य किसी को भी उसकी असलियत का पता न लगने पाए। यदि कोई संकट का समय आए तो उसका स्मरण करते ही वह उसके पास तुरंत आ जाएगी। इतना कह संज्ञा अपने पिता दक्ष के घर चली गई। 
 
दक्षराज को अपनी विवाहित कन्या का मायके आना पसंद नहीं था। उसका उसूल था, धारणा थी कि विवाहित स्त्री को अपने पति के घर कुछ भरा-बुरा अनुभव आने के बावजूद अपने पति के घर रहना ही पतिव्रता धर्म का पालन होता है। वह उसका परम श्रेष्ठ कर्तव्य है। भावना के अधीन होकर अपने कर्तव्य को भूलना सदाचरण नहीं कहलाता और दूसरी बात यह भी है कि माता-पिता के मत्थे दोष मढ़ा जाता। अपितु संज्ञा को सूर्य के पास जाने की आज्ञा दक्ष ने की। 
 
पिताश्री की आज्ञा सुनकर संज्ञा आग-बबूला हो गई। उसे तीव्र क्रोध आया। उसने अश्व रूप धारण कर लिया और वह हिमालय पर्वत पर तीव्र तपश्चर्या करने चली गईं। 
 
यहां सूर्यदेवजी के घर संवर्णा संज्ञा की आज्ञा के अनुसार सूर्य की पत्नी के रूप में गृहस्‍थी संभालती रही। यथाकाल संवर्णा को सूरज से श्राद्धदेव, मनु, व्यतिपात, कुलिका अर्धयाम और 5 पुत्र और भद्रा तथा वैधृति नाम की 2 कन्याएं- इस प्रकार संतानें हुईं। सूर्य के मन में जिस संबंध के बारे में कदापि संदेह नहीं हुआ। 
 
एक दिन श्री शनिजी को कड़ी भूख लगी और उन्होंने मां संवर्णा के पास खाने को कुछ मांगा, किंतु संवर्णा ने कहा कि 'भगवान को भोग चढ़ाने के बाद ही मैं तुझे खाने खिलाऊंगी।' शनिजी को क्रोध आया और उन्होंने संवर्णा को लात प्रहार करने हेतु अपना पांव ऊपर उठाया। संवर्णा भी क्रोधित हुईं और उसने शनि को अभिशाप दिया कि उसका ऊपर उठा हुआ पांव टूट जाएगा। 
 
शनिजी डर के मारे अपने पिता सूर्यदेव के पास चल पड़े। उन्होंने पिता को सारा किस्सा सुनाया। सूर्यदेव ने कहा कि 'माता कभी कुमाता नहीं होती। मां अपने पुत्र को बददुआ नहीं दे सकती, वह तो ममताभरी माता होती है। ऐसा होना अधर्म है।' सूर्यदेव ने ध्यान लगाकर ज्ञात कर लिया कि शनिदेव को शाप देने वाली संज्ञा नहीं, बल्कि कोई दूसरी औरत है। उन्होंने आपे से बाहर जाकर संवर्णा से पूछा कि वह कौन है? सूर्य का संतप्त तेज देखकर संवर्णा सहम गई, खूब घबरा गई और उसने बताया कि मैं संज्ञा का प्रतिरूप, प्रतिछाया संवर्णा हुं। संज्ञा हिमालय पर तपस्या करने गई है। उसकी आज्ञा से ही मैं यह गृहस्थी चलाती थी इसलिए दोष का उत्तरदायित्व उस पर नहीं हो सकता।
 
सूर्यदेव ने श्री शनिदेव से कहा कि संवर्णा तुम्हारी माता के समान पूजनीय है अतएव उसका अभिशाप व्यर्थ नहीं हो सकता। किंतु मैं तुझे आशीर्वाद देता हूं कि वह अतिबाधाकारी नहीं होगा अत: तुम्हारा पांव टूटेगा नहीं, परंतु वह आजीवन टेढ़ा जरूर रह जाएगा। तब से शनिदेव का एक पांव टेढ़ा है। 
 
उसके पश्चात सूर्यदेव ने अंतरदृष्टि से देखा कि उसकी पत्नी संज्ञा मादा अश्व के रूप में हिमालय पर अति तीव्र साधना कर रही है। संज्ञा दिन-रात सूर्य का ही ध्यान करती थी। सूर्य ने भी अश्व रूप लिया और वे संज्ञा के पास पहुंचे। तपस्या में मग्न संज्ञा ने वह अश्व देखा और मन ही मन वह कहने लगी कि सूर्यदेव के सिवा मुझे अन्य कोई मर्द दृष्टिगोचर नहीं हो सकता, दिख नहीं सकता। इसका मतलब है कि यह अश्व सूर्यदेव ही है। 
 
अश्वरूपी सूर्यदेव को देखकर वह फूली नहीं समाई और वह प्रसन्न तथा प्रभावित हुई। उनकी आंखें चार होते ही उन्होंने अपनी नाकों से एक-दूसरे को सूंघ लिया। उस समय संज्ञा ऋतुमती होने की वजह से उसने सूर्य का तेजोमयी वीर्य अपनी नाक से ग्रहण किया। आगे यथावकाश वह जच्चा होकर उसने अपनी नाक से ही अश्वीदेव और वैवस्वत नाम के दो पुत्रों को जन्म दिया।
 
(उपरोक्त कथासार 'काशीखंड' से अध्याय 20 पर आधारित है।) 
 

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