श्राद्ध पक्ष : दिवंगत आत्मा की शांति हेतु तर्पण का पर्व

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शास्त्रों में अश्विन मास कृष्ण पक्ष प्रतिपदा से अमावस्या तक की सब तिथियां श्राद्ध पक्ष में शुमार की गई हैं। कभी-कभी किसी एक तिथि का क्षय होने से दो श्राद्ध एक दिन भी आ जाते हैं। अनादिकाल में अश्विन मास के श्राद्ध पक्ष में भाद्रपद मास की पूर्णिमा का श्राद्ध शामिल नहीं था।


 
ग्रंथों में अश्विन मास के कृष्ण पक्ष को ही श्राद्ध पक्ष माना गया है जो विशेष रूप से पितरों को सम्मानित करने के लिए निर्धारित किया गया है। जहां तक अश्विन मास के शुक्ल पक्ष का सवाल है इसे देवपक्ष माना गया है। श्राद्ध पक्ष में भाद्रपद पूर्णिमा का श्राद्ध जोड़ना अपेक्षाकृत आधुनिक कहा जा सकता है।
 
चूंकि माह के एक पक्ष में अमावस्या व दूसरे पक्ष में पूर्णिमा आती है, इसलिए अश्विन मास कृष्ण पक्ष के पहले की भाद्रपद की पूर्णिमा को श्राद्ध पक्ष में जोड़ा गया है। इसके पीछे यह तर्क दिया जाता है कि जो पूर्वज पूर्णिमा को दिवंगत हुए हैं, उनकी तिथि की कृष्ण पक्ष वाले श्राद्धपक्ष में कोई व्यवस्था नहीं है। वैसे सर्वपितृ अमावस्या में सभी पितरों के श्राद्ध की व्यवस्था है।
 
 
 

वाराहपुराण में पितरों की यशोगाथा का उल्लेख मिलता है, जिसमें उनके स्मरण के महत्व और माहात्म्य को रेखांकित किया गया है। श्राद्ध में श्रद्धा का संपूर्ण अंश जुड़ा हुआ है। वस्तुतः श्राद्ध उस कर्मकांड को कहते हैं जो श्रद्धा से किया जाता है। पितरों तथा मृत व्यक्तियों केलिए किया गया संपूर्ण कार्य श्राद्ध की श्रेणी में आता है। श्राद्ध पितरों की तृप्ति के लिए शास्त्रीय विधि से किया गया एक धार्मिक कृत्य है। शास्त्रों में मनुष्यों के लिए तीन ऋण बताए गए हैं जो देव ऋण, ऋषि ऋण और पितृ ऋण कहलाते हैं।
 
ऋषि ऋण ही गुरु ऋण का पर्याय है। परंतु श्राद्ध का संबंध पितृ ऋण से है। कर्मकांड मार्गप्रदीप में उल्लेखित है कि पितृ ऋण और पितृव्रत पूर्ण करने के लिए पूरे श्राद्ध पक्ष में पितरों का तर्पण और विशेष तिथि को श्राद्ध करने से पितृ ऋण शांत हो जाता है। पूरे पक्ष में ज्ञात-अज्ञात सभी पितरों का स्मरण किया जाता है।
 
पूर्वजों की स्मृति को अक्षुण्ण रखने का यह एक धार्मिक साधन है। पूर्वजों का स्मरण और उनकी पूजा, जिसे श्राद्ध कहते हैं, वैदिक युग से ही प्रचलन में है। वेद की अनेक ऋचाओं में देवी-देवताओं के आह्वान के साथ पितरों की भी प्रशस्ति गाई गई है। श्राद्धों को गतिशील करने में निमि ऋषि का योगदान उल्लेखनीय माना गया है। निमि ऋषि अत्रिकुल में उत्पन्न एक ऋषि थे।
 
वे दत्तात्रेय के पुत्र थे और उन्होंने पितरों का श्राद्ध करने के पक्ष में अनेक कारणों पर प्रकाश डाला था। निमि के अनुसार श्राद्ध पक्ष में पितरों से प्रार्थना की जानी चाहिए कि वे अपने वंशजों के करीब आएं, अदृश्य आत्मिक स्वरूप होते हुए भी पितर आसन ग्रहण करें, हमारी पूजा स्वीकार करें और हमारे अपराधों को क्षमा करें। पके हुए चावलों का या आटे का गोला श्राद्ध में पितरों को अर्पित किया जाता है।
 
इसमें तीन पीढ़ियों को पिंडदान किया जाता है : पितृ, पितामह और प्रपितामह। ऐसी मान्यता है कि मंत्र शक्ति से पितरों तक वंशजों की यह प्रार्थना पहुंच जाती है। मंत्रों का उच्चारण गोत्र उच्चारण के साथ करने से पितृ प्रार्थना स्वीकार करते हैं। श्रवण नक्षत्र में पितरों का श्राद्ध करने वाले मनुष्य का गृह कलह तुरंत नष्ट हो जाता है।
 
इसी संदर्भ में पितृव्रत भी किया जाता है जिसमें एक वर्ष तक प्रति अमावस्या को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। वर्ष के पूर्ण होने पर श्राद्ध कर वस्त्र, जलपूर्ण कलश और श्रद्धा हो तो गौ दान किया जाता है। इस प्रक्रिया से अनेक पीढ़ियां क्लेशमुक्त होकर तर जाती हैं। फिर पितृ तृप्त होने के बाद कामना करते हैं कि उनके कुल में ऐसे पुरुष की उत्पत्ति हो जो सदाचारी, दयावान, धर्म में आस्था रखने वाला और लोकोपकारी हो।
 
शास्त्रों के नियमों के अनुसार श्राद्ध का अधिकार केवल पुत्र को है। हो सकता है कि पुत्र की कामना के पीछे यह परंपरा भी एक वजह रही हो। पुत्र के अभाव में विधवा स्त्री को अपने पति का श्राद्ध करने का अधिकार दिया गया है। पुत्री के पुत्र यानी नाती को भी श्राद्ध करने के योग्य माना गया है। 

व्यावहारिक कठिनाइयों को देखते हुए गोत्र भाई या किसी भी सगोत्री को श्राद्ध का अधिकार दिया गया है। श्राद्ध की प्रथा पूर्वज-पूजा का ही एक विशिष्ट रूप है और दिवंगत प्रियजनों की आत्मा की शांति हेतु एक तर्पण है।

- डॉ. आर.सी. ओझा
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