श्राद्ध पक्ष की प्रासंगिकता पर पढ़ें विशेष आलेख...

सुशील कुमार शर्मा
यह शब्द 'श्रद्धा' से बना है। ब्रह्म पुराण (उपर्युक्त उद्धृत), मरीचि एवं बृहस्पति की परिभाषाओं से यह स्पष्ट है कि श्राद्ध एवं श्रद्धा में घनिष्ठ संबंध है। श्राद्ध में श्राद्धकर्ता का यह अटल विश्वास रहता है कि मृत या पितरों के कल्याण के लिए ब्राह्मणों को जो कुछ भी दिया जाता है, वह उसे या उन्हें किसी प्रकार अवश्य ही मिलता है। 


 
स्कंद पुराण का कथन है कि 'श्राद्ध' नाम इसलिए पड़ा है कि उस कृत्य में श्रद्धा मूल (मूल स्रोत) है। इसका तात्पर्य यह है कि इसमें न केवल विश्वास है, प्रत्युत एक अटल धारणा है कि व्यक्ति को यह करना ही है। 
 
ॠग्वेद में श्रद्धा को 'देवत्व' नाम दिया गया है। मनु व याज्ञवल्क्य ऋषियों ने धर्मशास्त्र में नित्य व नैमित्तिक श्राद्धों की अनिवार्यता को रेखांकित करते हुए कहा कि श्राद्ध करने से कर्ता पितृ ऋण से मुक्त हो जाता है तथा पितर संतुष्ट रहते हैं जिससे श्राद्धकर्ता व उसके परिवार का कल्याण होता है।
 
श्राद्ध महिमा में कहा गया है- 'आयु: पूजां धनं विद्यां स्वर्ग मोक्ष सुखानि च। प्रयच्छति तथा राज्यं पितर: श्राद्ध तर्पिता।।' - अर्थात जो लोग अपने पितरों का श्राद्ध श्रद्धापूर्वक करते हैं, उनके पितर संतुष्ट होकर उन्हें आयु, संतान, धन, स्वर्ग, राज्य मोक्ष व अन्य सौभाग्य प्रदान करते हैं। 
 
हमारी संस्कृति में माता-पिता व गुरु को विशेष श्रद्धा व आदर दिया जाता है, उन्हें देवतुल्य माना जाता है। 'पितरं प्रीतिमापन्ने प्रियन्ते सर्वदेवता:' - अर्थात पितरों के प्रसन्न होने पर सारे ही देवता प्रसन्न हो जाते हैं।
 
आत्मिक प्रगति के लिए सबसे महत्वपूर्ण तथ्य है- 'श्रद्धा।' श्रद्धा में शक्ति भी है। वह पत्थर को देवता बना देती है और मनुष्य को नर से नारायण स्तर तक उठा ले जाती है। किंतु श्रद्धा मात्र चिंतन या कल्पना का नाम नहीं है। उसके प्रत्यक्ष प्रमाण भी होना चाहिए। यह उदारता, सेवा, सहायता, करुणा आदि के रूप में ही हो सकती है। इन्हें चिंतन तक सीमित न रखकर कार्यरूप में, परमार्थपरक कार्यों में ही परिणत करना होता है। यही सच्चे अर्थों में श्राद्ध है।
 
संसार के सभी देशों, सभी धर्मों व सभी जातियों में किसी न किसी रूप में मृतकों का श्राद्ध होता है। मृतकों के स्मारक, कवच, मकबरे संसारभर में देखे जाते हैं। पूर्वजों के नाम पर नगर, मुहल्ले, संस्थाएं, मकान, कुएं, तालाब, मंदिर, मीनार आदि बनाकर उनके नाम तथा यश को चिरस्थायी रखने का प्रयत्न किया जाता है। उनकी स्मृति में पर्वों एवं जयंतियों का आयोजन किया जाता है। यह अपने-अपने ढंग के श्राद्ध ही हैं। 
 
 

 


'क्या फायदा?' वाला तर्क केवल हिन्दू श्राद्ध पर ही नहीं, समस्त संसार की मानव प्रवृत्ति पर लागू होता है। असल बात यह है कि प्रेम, उपकार, आत्मीयता एवं महानता के लिए मनुष्य स्वभावत: कृतज्ञ होता है और जब तक उस कृतज्ञता के प्रकट करने का प्रत्युपकारस्वरूप कुछ प्रदर्शन न कर ले, तब तक उसे आंतरिक बेचैनी रहती है, इस बेचैनी को वह श्राद्ध द्वारा ही पूरी करता है। 
 
उपकारी के प्रति कृतज्ञता का प्रत्युपकार का भाव रखना भावना क्षेत्र की पवित्रता एवं उत्कृष्टता का प्राणवान चिन्ह है। इसके लिए धनदान आवश्यक नहीं, समय, धन, श्रमदान, भाव दान भी असमर्थता की स्थिति में इसी प्रयोजन की पूर्ति करते हैं। उन्हीं सब बातों पर विचार करते हुए भारतीय धर्म-परंपरा में श्राद्ध-कर्म की महत्ता बताई गई है। सत्पात्र न मिलने या अपनी आर्थिक स्थिति अच्छी न होने की स्थिति में इसे जलांजलि देकर तर्पण के रूप में भी संपन्न किया जा सकता है।
 
यह सोचना उचित नहीं कि जो मर गए, उन तक हमारी दी हुई वस्तु कैसे पहुंचेगी? पहुंचती तो केवल श्रद्धा है। मरे हुए व्यक्तियों को श्राद्ध-कर्म से कुछ लाभ होता है कि नहीं? इसके उत्तर में यही कहा जा सकता है कि- 'होता है, अवश्य होता है।'
 
संसार एक समुद्र के समान है जिसमें जल कणों की भांति हर एक जीव है। विश्व एक शिला है तो व्यक्ति उसका एक परमाणु। हर एक आत्मा, जो जीवित या मृत रूप से इस विश्व में मौजूद है, अन्य समस्त आत्माओं से संबद्ध है। संसार में कहीं भी अनीति, युद्ध, कष्ट, अनाचार, अत्याचार हो रहे हैं तो सुदूर देशों के निवासियों के मन में भी उद्वेग उत्पन्न होता है। 
 
जब जाड़े का प्रवाह आता है, तो हर चीज ठंडी होने लगती है और गर्मी की ऋतु में हर चीज की ऊष्णता बढ़ जाती है। छोटा-सा यज्ञ करने से उसकी दिव्य गंध तथा दिव्य भावना समस्त संसार के प्राणियों को लाभ पहुंचाती है। इसी प्रकार कृतज्ञता की भावना प्रकट करने के लिए किया हुआ श्राद्ध समस्त प्राणियों में शांतिमयी सद्भावना की लहरें पहुंचाता है। ये सूक्ष्म भाव तरंगें सुगंधित पुष्पों की सुगंध की तरह तृप्तिकारक आनंद और उल्लासवर्धक होती हैं। 
 
सद्भावना की सुगंध जीवित और मृतक सभी को तृप्त करती है। इन सभी में अपने स्वर्गीय पितर भी आ जाते हैं। उन्हें भी श्राद्ध यज्ञ की दिव्य तरंगें आत्मशांति प्रदान करती हैं। श्राद्ध करना चाहिए जीवितों का भी, मृतकों का भी। जिन्होंने अपने साथ में किसी भी प्रकार की कोई भलाई की है उसे बार-बार प्रकट करना चाहिए, क्योंकि इससे उपकार करने वालों को संतोष तथा प्रोत्साहन प्राप्त होता है। वे अपने ऊपर अधिक प्रेम करते हैं और अधिक घनिष्ठ बनते हैं, साथ-साथ अहसान स्वीकार करने से अपनी नम्रता एवं मधुरता बढ़ती है। उपकारों का बदला चुकाने के लिए किसी न किसी रूप में सदा ही प्रयत्न करते रहना चाहिए।
 
 

श्राद्ध क्या है?
 

 
'पितरों का उद्देश्य करके (उनके कल्याण के लिए) श्रद्धापूर्वक किसी वस्तु का या उससे संबंधित किसी द्रव्य का त्याग श्राद्ध है।'
 
उचित समय पर शास्त्रसम्मत विधि द्वारा पितरों के लिए श्रद्धाभाव से मंत्रों के साथ जो दान-दक्षिणा आदि दिया जाए, वही श्राद्ध कहलाता है। 20 अंश रेतस (सोम) को 'पितृॠण' कहते हैं। 28 अंश रेतस के रूप में 'श्रद्धा' नामक मार्ग से भेजे जाने वाले 'पिंड' तथा 'जल' आदि के दान को 'श्राद्ध' कहते हैं। 
 
मनुष्य के 3 पूर्वजों यथा- पिता, पितामह एवं प्रपितामह क्रम से पितृदेवों अर्थात वसुओं, रुद्रों एवं आदित्य के समान हैं और श्राद्ध करते समय उनको पूर्वजों का प्रतिनिधि मानना चाहिए। कुछ लोगों के मत से श्राद्ध से इन बातों का निर्देश होता है- होम, पिंडदान एवं ब्राह्मण तर्पण (ब्राह्मण संतुष्टि भोजन आदि से), किंतु 'श्राद्ध' शब्द का प्रयोग इन तीनों के साथ गौण अर्थ में उपयुक्त समझा जा सकता है।
 
पितरों के लिए कृष्ण पक्ष उत्तम होता है। कृष्ण पक्ष की अष्टमी को उनके दिनों का उदय होता है। अमावस्या उनका मध्याह्न है तथा शुक्ल पक्ष की अष्टमी अंतिम दिन होता है। धार्मिक मान्यता है कि अमावस्या को किया गया श्राद्ध, तर्पण, पिंडदान उन्हें संतुष्टि व ऊर्जा प्रदान करते हैं। 
 
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार पृथ्वीलोक में देवता उत्तर गोल में विचरण करते हैं और दक्षिण गोल भाद्रपद मास की पूर्णिमा को चन्द्रलोक के साथ-साथ पृथ्वी के नजदीक से गुजरता है। इस मास की प्रतीक्षा हमारे पूर्वज पूरे वर्षभर करते हैं। वे चन्द्रलोक के माध्यम से दक्षिण दिशा में अपनी मृत्यु तिथि पर अपने घर के दरवाजे पर पहुंच जाते है और वहां अपना सम्मान पाकर प्रसन्नतापूर्वक अपनी नई पीढ़ी को आशीर्वाद देकर चले जाते हैं।
 
 

तर्पण क्यों
 

 
जो पितृगण दिवंगत हो चुके हैं उनके लिए तर्पण श्राद्ध का विधान है। श्रद्धांजलि पूजा-उपचार का सरलतम प्रयोग है। अन्य उपचारों में वस्तुओं की जरूरत पड़ती है तथा वे कभी उपलब्ध होती हैं, कभी नहीं। किंतु जल ऐसी वस्तु है जिसे हम दैनिक जीवन में अनिवार्यत: प्रयोग करते हैं। वह सर्वत्र सुविधापूर्वक मिल भी जाता है इसलिए पुष्पांजलि आदि श्रमसाध्य श्रद्धांजलियों में जलांजलि को सर्वसुलभ माना गया है। उसके प्रयोग में आलस्य और अश्रद्धा के अतिरिक्त और कोई व्यवधान नहीं हो सकता इसलिए सूर्य नारायण को अर्घ्य, तुलसी वृक्ष में जलदान, अतिथियों को अर्घ्य तथा पितरगणों को तर्पण का विधान है। 
 
प्रश्न यह नहीं कि इस पानी की उन्हें आवश्यकता है या नहीं? प्रश्न केवल अपनी अभिव्यक्ति-भर का है। उसे निर्धारित मंत्र बोलते हुए, गायत्री महामंत्र में अथवा बिना मंत्र के भी जलांजलि दी जा सकती है। यही है उनके प्रति पूजा-अर्चा का सुगमतम विधान। शास्त्रीय भाषा में इसे 'तर्पण' कहा जाता है। इसमें यह तर्क करने की गुंजाइश नहीं है कि यह पानी उन पूर्वजों या सूर्य तक पहुंचा या नहीं?
 
1. इसके पीछे अपनी कृतज्ञताभरी भावनाओं को सींचते रहने की अभिव्यक्ति की ही प्रमुखता है।

2. पितृऋण को चुकाने के लिए दूसरा कृत्य आता है- 'श्राद्ध'। श्राद्ध का प्रचलित रूप तो 'ब्राह्मण भोजन' मात्र रह गया है, पर बात ऐसी है नहीं। अपने साधनों का एक अंश पितृ प्रयोजनों के निमित्त ऐसे कार्यों में लगाया जाना चाहिए जिससे लोक-कल्याण का प्रयोजन भी सधता हो।
 
ऐसे श्राद्ध कृत्यों में समय की आवश्यकता को देखते हुए वृक्षारोपण ऐसा कार्य हो सकता है जिसे ब्रह्मभोज से भी कहीं अधिक महत्व का माना जा सके। किसी व्यक्ति को भोजन करा देने से उसकी एक समय की भूख बुझती है। दूसरा समय आते ही फिर वह आवश्यकता जाग पड़ती है। उसे कोई दूसरा व्यक्ति कहां तक कब तक पूरा करता रहे। फिर यदि कोई व्यक्ति अपंग, मुसीबतग्रस्त या लोकसेवी नहीं है तो उसे मुफ्त में भोजन कराते रहने के पीछे किसी उच्च उद्देश्य की पूर्ति नहीं होती।

3. वृक्ष वायुशोधन करते हैं। छाया देते हैं। फल-फूल भी मिलते हैं। हरे पत्ते पशुओं का भोजन बन सकते हैं। सूखे पत्तों से जमीन को खाद मिलती है। लकड़ी के अनेक उपयोग हैं। वृक्षों से बादल बरसते हैं। भूमि का कटाव रुकता है। पक्षी घोंसले बनाते हैं। उनकी छाया में मनुष्यों व पशुओं को विश्राम मिलता है। इस प्रकार वृक्षारोपण भी एक उपयोगी प्राणी के पोषण के समान है।


श्राद्ध रूप में ऐसे वृक्ष लगाए जाएं, जो किसी न किसी रूप में प्राणियों की आवश्यकता पूरी करते हों। अपने पास कृषियोग्य भूमि से थोड़ी भी जमीन बचती हो, कम उपयोगी हो तो उसमें आम, पीपल, महुआ आदि के वृक्ष लगा देने चाहिए। केवल सींचने, रखवाली करने आदि की जिम्मेदारी अपने कंधे पर लेकर दूसरों की जमीन में वृक्ष लगा देने में भी पुण्य फल की प्राप्ति हो सकती है।

4. वृक्षों की भांति ही जलाशयों के निर्माण का भी उपयोग है। तालाबों में हर साल वर्षा के पानी के साथ मिट्टी भर जाती है और उनकी सतह ऊंची हो जाने से कम पानी समाता है, जो जल्दी ही सूख जाता है। इन्हें यदि हर साल श्रमदान से गहरे करते रहा जाए तो पशुओं को पानी, सिंघाड़ा, कमल जैसी बेलें तथा तल में जमने वाली चिकनी मिट्टी से मकानों की मरम्मत हो सकती है।

 

श्राद्ध पक्ष की वर्तमान में प्रासंगिकता
 

 
हम लोग हमेशा बदलाव चाहते हैं। हमारी सोच दशा व समय के साथ बदल जाती है, लेकिन कुछ वस्तुएं हमेशा प्रासंगिक होती हैं। पितृपक्ष हमारे परिवार से जुड़ी एक परंपरा है व अपनों को याद करने का एक अवसर है। जो हमसे जुड़े हैं या जुड़े थे, वो हम सबके लिए हमेशा प्रासंगिक होते हैं। श्राद्ध पक्ष के वर्तमान में प्रासंगिक होने के कई कारण हैं-
 
1. हमारा समाज अत्यंत भौतिकवादी होता जा रहा है। बगैर स्वार्थ के कोई किसी की सहायता नहीं करना चाहता है। पितृपक्ष में अपने पूर्वजों के लिए जो भी दान या भोजन हम दूसरों को देते हैं, उससे समाज के गरीब एवं जरूरतमंदों की सहायता होती है तथा समाज में सहयोग एवं समन्वय की भावना जाग्रत होती है।

2. जो कभी हमारे परिवार का हिस्सा रहे हैं जिनका खून हमारी रगों में दौड़ रहा है, कम से कम एक पखवाड़ा हम उन्हें याद करते हैं। इस बहाने हम अपने पूर्वजों को याद करके अपने परिवार, समाज एवं धर्म में अपनी आस्था व्यक्त करते हैं।

3. हमारे पूर्वज एवं बुजुर्ग हमारी धरोहर हैं। वर्तमान में बुजुर्ग समाज की मुख्य धारा से कटते जा रहे हैं। इस एक पखवाड़े में हम सभी उनके प्रति सम्मान एवं सद्भाव व्यक्त करते हैं।

4. परंपराओं से समाज एवं परिवार में एकनिष्ठा पनपती है। पितृपक्ष को मनाने से हमारी नई पीढ़ी में सांस्कृतिक सोच के साथ बुजुर्गों के सम्मान की भावना का जागरण होता है। श्राद्ध से श्रद्धा जीवित रहती है। श्रद्धा को प्रकट करने का जो प्रदर्शन होता है, वह 'श्राद्ध' कहा जाता है। 

जीवित पितरों व गुरुजनों के लिए श्रद्धा प्रकट करने व श्रद्धा करने के लिए उनकी अनेक प्रकार से सेवा, पूजा तथा संतुष्टि की जा सकती है, परंतु स्वर्गीय पितरों के लिए श्रद्धा प्रकट करने व अपनी कृतज्ञता को प्रकट करने का कोई निमित्त निर्माण करना पड़ता है। यह निमित्त श्राद्ध है। स्वर्गीय गुरुजनों के कार्यों, उपकारों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने से ही छुटकारा नहीं मिल जाता। 
 
हम अपने अवतारों, देवताओं, ऋषियों, महापुरुषों और पूजनीय पूर्वजों की जयंतियां धूमधाम से मनाते हैं, उनके गुणों का वर्णन करते हैं, उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं और उनके चरित्रों एवं विचारों से प्रेरणा ग्रहण करते हैं। यदि कहा जाए कि मृत व्यक्तियों ने तो दूसरी जगह जन्म ले लिया होगा तो उनकी जयंतियां मनाने से क्या लाभ? तो यह तर्क बहुत अविवेकपूर्ण होगा। श्राद्ध और तर्पण का मूल आधार अपनी कृतज्ञता और आत्मीयता व सात्विक वृत्तियों को जागृत रखना है। इन प्रवृत्तियों का जीवित, जागृत रहना संसार की सुख-शांति के लिए नितांत आवश्यक है। 
 
इसलिए मैं आपसे आग्रह करता हूं कि आप उपरोक्त कारणों में से कम से कम एक के लिए पितृ पक्ष को जरूर मानें। इससे आप और आपके परिवार को और अधिक शांति और खुशी पाने में लिए मदद मिलेगी। 
 
अब सवाल यह है कि आप इन दिनों के महत्व को जानते हैं तो यह सुनिश्चित करें कि आप इस वर्ष पितृपक्ष में पितरों की पूजा करेंगे और अपने पूर्वजों का आशीर्वाद प्राप्त करेंगे। यह आशीर्वाद निश्चित रूप से आपके जीवन को प्रभावशाली एवं सुखमय बना देगा।

 
 
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