श्राद्ध के लिए ज्ञानी पंडितों की दरकार

- मनीष वर्मा

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पितरों के श्राद्ध एवं तर्पण का सोलह श्राद्ध पक्ष इन दिनों चल रहा है। हिंदू परिवारों में इन दिनों अपने पूर्वजों की पुण्य तिथि पर विशेष पितृ यज्ञ किया जाता है। इसके लिए सनातन वैदिक विधि से विद्वान वेदज्ञ पंडितों द्वारा तर्पण के साथ श्राद्ध का विधान प्राचीन काल से चला आ रहा है। खीर-पूड़ी, पकवान बनाकर भोजन पात्र में पितरों की तृप्ति के लिए हाथ में तिल, जौ और कुशायुक्त जल से तर्पण किया जाता है। गो ग्रास, कौआ, श्वान (कुत्ता) और चींटियों के निमित्त उस भोजन का कुछ अंश अर्पित कर ब्रह्म भोज कराना लोग पुण्यकारक मानते हैं।

विकास के युग में समाज एक नई करवट ले रहा है। इसमें लोगों के पास समय का अभाव अपनी प्राचीन परंपराओं को मनाने में एक बड़ी समस्या बन रही है फिर भी श्रद्धालु परिवार किसी न किसी प्रकार पितरों को याद करने के लिए समय निकाल कर श्राद्ध कर्म करना जरूरी समझते हैं।

इतना ही नहीं, आपाधापी के माहौल में समय निकाल लेने पर भी एक बड़ी समस्या यह आ रही है कि श्राद्ध आदि कर्मकांड करवाने के लिए शास्त्रज्ञ, तपस्वी और कर्मनिष्ठ पंडितों का अभाव लोगों को खटक रहा है। ऐसी परिस्थिति में किसी को भी भोजन कराकर श्राद्धकर्म की इति श्री कर संतुष्ट होना पड़ता है।

यहाँ एक आश्चर्यजनक बात यह है कि देश में शास्त्रज्ञ विद्वानों की कमी नहीं है। देश में कई संस्कृत महाविद्यालय, लालबहादुर शास्त्री संस्कृत विश्वविद्यालय, राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान जैसी अंतरराष्ट्रीय संस्कृत संस्थाएँ हैं लेकिन यहाँ पढ़ाने वाले विद्वान जिन्हें मोटी तनख्वाह मिलती है। वे श्राद्ध आदि कराने में शर्म महसूस करते हैं। यहाँ पढ़ने वाले छात्र अपने नाम के आगे विश्वविद्यालय का नाम जुड़ जाने के कारण अन्य कामों में लगे रहते हैं। धोती-कुर्ता, तिलक आदि परंपरागत वेशभूषा इनसे दूर हो गई है।

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भारतीय परंपरा के श्राद्ध जैसे महत्वपूर्ण पितृ यज्ञ को करने में या तो इनके पास ज्ञान नहीं है या हीनभावना ग्रसित हो चुके हैं। अब रही बात सामान्य संस्कृत विद्यालयों में पढ़ने वाले छात्रों की वे भी कर्मकांड के ज्ञान में अल्पज्ञ ही हैं इसका कारण इन विद्यालयों में व्याकरण, साहित्य, वेदांत आदि विषय गत पाठ्यक्रम के अलावा भारतीय संस्कृति के उन मूल बिंदुओं का ज्ञान नहीं दिया जाता जिनकी हमारे परिवारों में कभी न कभी जरूरत होती है। दूसरी ओर कथा प्रवचन करने वाले मंचों पर बैठकर समाज को संस्कार, परंपरा आदि का उपदेश तो खूब देते हैं लेकिन उसका क्रियान्वयन करने में वे स्वयं समर्थ नहीं होते हैं।

अब रहे वे ब्राह्मण जो कम पढ़े-लिखे और शास्त्र विधि से अनभिज्ञ हैं। किसी मंदिर में भगवान का पूजन श्रृंगार, आरती एवं सेवा के माध्यम से अपनी आजीविका अर्जित करते हैं। वे ही श्राद्ध तर्पण आदि के समय जिसने बुलाया सौम्यता के साथ पहुँच जाते हैं। इनको भोजन कराके कुछ दक्षिणा देकर लोग अपनी परंपरा मना लेते हैं। ऐसे सरल स्वभाव पंडित समाज द्वारा प्रायः तिरस्कृत और अपमानित भी होते हैं।

कई तथाकथित संस्कृतज्ञ विद्वान उन्हें अल्पज्ञ, झोलाछाप, पौंगा आदि अलंकारों से भी विभूषित कर देते हैं लेकिन आज भी यदि समाज के अटके कार्यों को जैसे-तैसे कोई पूरा कर रहे हैं तो बेचारे वे ही पंडित करते हैं इसीलिए जब लोग श्राद्ध तर्पण कराने किसी पंडित को बुलाते हैं तो वे यह शर्त नहीं लगाते कि वह किसी विश्वविद्यालय या महाविद्यालय का प्रोफेसर होना चाहिए या अपना गोल्ड मेडल गले में लटका कर उनके घर श्राद्ध करने पहुँचे।

लोगों की आस्था इतनी गहरी है कि चाहे वे केवल गायत्री मंत्र या हनुमान चालीसा भी पढ़ दें या दो-चार टूटे-फूटे श्लोक ही पढ़कर उनके घर होने वाले कार्य को संपन्न कर दे कुछ भी नहीं तो गो ग्रास देकर पंडित जी को भोजन करा देने से भी लोग अपना ही भाग्य मानते हैं। इन दिनों पंडितों की पौ बारह है । जनता पंडितों के आधे-पौने घंटे के लिए उनकी मनुहार कर रही है । पंडित भी शॉर्टकट में काम निपटा रहे हैं।

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