जब भगवान राम और प्रभु शंकर में हुआ युद्ध

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बात उन दिनों की है जब श्रीराम का अश्वमेघ यज्ञ चल रहा था। श्रीराम के अनुज शत्रुघ्न के नेतृत्व में असंख्य वीरों की सेना सारे प्रदेश को विजित करती जा रही थी। यज्ञ का अश्व प्रदेश-प्रदेश जा रहा था।  

इस क्रम में कई राजाओं के द्वारा यज्ञ का घोड़ा पकड़ा गया लेकिन अयोध्या की सेना के आगे उन्हें झुकना पड़ा। शत्रुघ्न के अलावा सेना में हनुमान, सुग्रीव और भरत पुत्र पुष्कल सहित कई महारथी उपस्थित थे जिन्हें जीतना देवताओं के लिए भी संभव नहीं था। कई जगह भ्रमण करने के बाद यज्ञ का घोड़ा देवपुर पहुंचा जहां राजा वीरमणि का राज्य था। राजा वीरमणि अति धर्मनिष्ठ तथा श्रीराम एवं महादेव के अनन्य भक्त थे। उनके दो पुत्र रुक्मांगद और शुभंगद वीरों में श्रेष्ठ थे। 

राजा वीरमणि के भाई वीरसिंह भी एक महारथी थे। राजा वीरमणि ने भगवान शंकर की तपस्या कर उन्हें प्रसन्न किया था और महादेव ने उन्हें उनकी और उनके पूरे राज्य की रक्षा का वरदान दिया था। महादेव के द्वारा रक्षित होने के कारण कोई भी उनके राज्य पर आक्रमण करने का साहस नहीं करता था।

जब अश्व उनके राज्य में पहुंचा तो राजा वीरमणि के पुत्र रुक्मांगद ने उसे बंदी बना लिया और अयोध्या के सैनिकों से कहा कि यज्ञ का घोड़ा उनके पास है इसलिए वे जाकर शत्रुघ्न से कहें कि विधिवत युद्ध कर वो अपना अश्व छुड़ा लें।. जब रुक्मांगद ने ये सूचना अपने पिता को दी तो वो बड़े चिंतित हुए और अपने पुत्र से कहा की अनजाने में तुमने श्रीराम के यज्ञ का घोड़ा पकड़ लिया है। श्रीराम हमारे मित्र हैं और उनसे शत्रुता करने का कोई औचित्य नहीं है इसलिए तुम यज्ञ का घोड़ा वापस लौटा आओ। इसपर रुक्मांगद ने कहा कि हे पिताश्री, मैंने तो उन्हें युद्ध की चुनौती भी दे दी है अतः अब उन्हें बिना युद्ध के अश्व लौटना हमारा और उनका दोनों का अपमान होगा। अब तो जो हो गया है उसे बदला नहीं जा सकता इसलिए आप मुझे युद्ध की आज्ञा दें। पुत्र की बात सुनकर वीरमणि ने उसे सेना सुसज्जित करने की आज्ञा दे दी। राजा वीरमणि अपने भाई वीरसिंह और अपने दोनों पुत्र रुक्मांगद और शुभांगद के साथ विशाल सेना ले कर युद्ध क्षेत्र में आ गए। 
 
इधर जब शत्रुघ्न को सूचना मिली कि उनके यज्ञ का घोड़ा बंदी बना लिया गया है तो वो बहुत क्रोधित हुए एवं अपनी पूरी सेना के साथ युद्ध के लिए युद्ध क्षेत्र में आ गए। उन्होंने पूछा की उनकी सेना से कौन अश्व को छुड़ाएगा तो भरत पुत्र पुष्कल ने कहा कि तातश्री, आप चिंता न करें। आपके आशीर्वाद और श्रीराम के प्रताप से मैं आज ही इन सभी योद्धाओं को मार कर अश्व को मुक्त करता हूं। वे दोनों इस प्रकार बात कर रहे थे कि पवनसुत हनुमान ने कहा कि राजा वीरमणि के राज्य पर आक्रमण करना स्वयं परमपिता ब्रम्हा के लिए भी कठिन है क्योंकि यह नगरी महाकाल द्वारा रक्षित है। अतः उचित यही होगा कि पहले हमें बातचीत द्वारा राजा वीरमणि को समझाना चाहिए और अगर हम न समझा पाए तो हमें श्रीराम को सूचित करना चाहिए। राजा वीरमणि श्रीराम का बहुत आदर करते हैं इसलिए वे उनकी बात नहीं टाल पाएंगे। हनुमान की बात सुन कर श्री शत्रुघ्न बोले, हमारे रहते अगर श्रीराम को युद्ध भूमि में आना पड़े, यह हमारे लिए अत्यंत लज्जा की बात है, अब जो भी हो हमें युद्ध तो करना ही पड़ेगा। यह कहकर वे सेना सहित युद्धभूमि में पहुच गए। 
 
भयानक युद्ध छिड़ गया। भरत पुत्र पुष्कल सीधा जाकर राजा वीरमणि से भिड गया। दोनों अतुलनीय वीर थे। वे दोनों तरह-तरह के शस्त्रों का प्रयोग करते हुए युद्ध करने लगे। हनुमान राजा वीरमणि के भाई महापराक्रमी वीरसिंह से युद्ध करने लगे। रुक्मांगद और शुभांगद ने शत्रुघ्न पर धावा बोल दिया। पुष्कल और वीरमणि में बड़ा घमासान युद्ध हुआ। अंत में पुष्कल ने वीरमणि पर आठ नाराच बाणों से वार किया। इस वार को राजा वीरमणि सह नहीं पाए और मुर्छित होकर अपने रथ पर गिर पड़े।  वीरसिंह ने हनुमान पर कई अस्त्रों का प्रयोग किया पर उन्हें कोई हानि न पहुंचा सके। हनुमान ने एक विकट पेड़ से वीरसिंह पर वार किया इससे वीरसिंह रक्तवमन करते हुए मूर्छित हो गए।

उधर श्रीशत्रुघ्न और राजा वीरमणि के पुत्रों में असाधारण युद्ध चल रहा था। अंत में कोई चारा न देख कर शत्रुघ्न ने दोनों भाइयों को नागपाश में बांध लिया। अपनी विजय देख कर शत्रुघ्न की सेना के सभी वीर सिंहनाद करने लगे। उधर राजा वीरमणि की मूर्छा दूर हुई तो उन्होंने देखा कि उनकी सेना हार के कगार पर है। यह देख कर उन्होंने भगवान रूद्र महादेव शंकर का स्मरण किया। 


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महादेव ने अपने भक्त को मुसीबत में जान कर वीरभद्र के नेतृत्व में नंदी, भृंगी सहित सारे गणों को युद्ध क्षेत्र में भेज दिया। महाकाल के सारे अनुचर उनकी जयजयकार करते हुए अयोध्या की सेना पर टूट पड़े। शत्रुघ्न, हनुमान और सारे लोगों को लगा कि जैसे प्रलय आ गया हो। जब उन्होंने भयानक मुख वाले रुद्रावतार वीरभद्र, नंदी, भृंगी सहित महादेव की सेना देखी तो सारे सैनिक भय से कांप उठे. शत्रुघ्न ने हनुमान से कहा कि जिस वीरभद्र ने बात ही बात में दक्ष प्रजापति का मस्तक काट डाला था और जो तेज और समता में स्वयं महाकाल के समान है उसे युद्ध में कैसे हराया जा सकता है? 
 
 यह सुनकर पुष्कल ने कहा की हे तातश्री, आप दुखी मत हों. अब तो जो भी हो, हमें युद्ध तो करना ही होगा। यह  कहते हुए पुष्कल वीरभद्र से, हनुमान नंदी से और शत्रुघ्न भृंगी से जा भिड़े। पुष्कल ने अपने सारे दिव्यास्त्रों का प्रयोग वीरभद्र पर कर दिया लेकिन वीरभद्र ने खेल-खेल में उसे काट दिया। 
 
उन्होंने पुष्कल से कहा की हे बालक, अभी तुम्हारी आयु मृत्यु को प्राप्त होने की नहीं हुई है इसलिए युद्ध क्षेत्र से हट जाओ। उसी समय पुष्कल ने वीरभद्र पर शक्ति से प्रहार किया जो सीधे उनके मर्मस्थान पर जाकर लगा। इसके बाद वीरभद्र ने क्रोध से थर्राते हुए एक त्रिशूल से पुष्कल का मस्तक काट लिया और भयानक सिंहनाद किया। उधर भृंगी आदि गणों ने शत्रुघ्न पर भयानक आक्रमण कर दिया। 
 
 
अंत में भृंगी ने महादेव के दिए पाश में शत्रुघ्न को बांध दिया। हनुमान अपनी पूरी शक्ति से नंदी से युद्ध कर रहे थे। उन दोनों ने ऐसा युद्ध किया जैसा पहले किसी ने नहीं किया था। दोनों श्रीराम के भक्त थे और महादेव के तेज से उत्पन्न हुए थे। काफी देर लड़ने के बाद कोई और उपाय न देख कर नंदी ने शिवास्त्र का प्रयोग कर हनुमान को पराभूत कर दिया। अयोध्या के सेना की हार देख कर राजा वीरमणि की सेना में जबरदस्त उत्साह आ गया और वे बाक़ी बचे सैनिकों पर टूट पड़े। यह देख कर हनुमान ने शत्रुघ्न से कहा कि मैंने आपसे पहले ही कहा था कि ये नगरी महाकाल द्वारा रक्षित है लेकिन आपने मेरी बात नहीं मानी। अब इस संकट से बचाव का एक ही उपाय है कि हम सब श्रीराम को याद करें। ऐसा सुनते ही सारे सैनिक शत्रुघ्न, पुष्कल एवं हनुमान सहित श्रीराम को याद करने लगे। 
 
 
अपने भक्तों की पुकार सुन कर श्रीराम तत्काल ही लक्ष्मण और भरत के साथ वहां आ गए। अपने प्रभु को आया देख सभी हर्षित हो गए एवं सबको ये विश्वास हो गया कि अब हमारी विजय निश्चित है। श्रीराम के आने पर जैसे पूरी सेना में प्राण का संचार हो गया।. श्रीराम ने सबसे पहले शत्रुघ्न को मुक्त कराया और उधर लक्ष्मण ने हनुमान को मुक्त करा दिया। जब श्रीराम, लक्ष्मण और भरत ने देखा कि पुष्कल मृत्यु को प्राप्त हो चुके हैं तो उन्हें बड़ा दुःख हुआ। भरत तो शोक में मूर्छित हो गए। श्रीराम ने क्रोध में आकर वीरभद्र से कहा कि तुमने जिस प्रकार पुष्कल का वध किया है उसी प्रकार अब अपने जीवन का भी अंत समझो। ऐसा कहते हुए श्रीराम ने सारी सेना के साथ शिवगणों पर धावा बोल दिया। जल्द ही उन्हें यह पता चल गया कि शिवगणों पर साधारण अस्त्र बेकार है इसलिए उन्होंने महर्षि विश्वामित्र द्वारा प्रदान किये दिव्यास्त्रों से वीरभद्र और नंदी सहित सारी सेना को विदीर्ण कर दिया। श्रीराम के प्रताप से पार न पाते हुए सारे गणों ने एक स्वर में महादेव का आव्हान करना शुरू कर दिया. जब महादेव ने देखा कि उनकी सेना बड़े कष्ट में है तो वे स्वयं युद्ध क्षेत्र में प्रकट हुए। 
 
इस अद्भुत दृश्य को देखने के लिए परमपिता ब्रह्मा सहित सारे देवता आकाश में स्थित हो गए। जब महाकाल ने युद्ध क्षेत्र में प्रवेश किया तो उनके तेज से श्रीराम की सारी सेना मूर्छित हो गई। जब श्रीराम ने देखा कि स्वयं महादेव रणक्षेत्र में आए हैं तो उन्होंने शस्त्र का त्याग कर भगवान रूद्र को दंडवत प्रणाम किया एवं उनकी स्तुति की। उन्होंने महाकाल की स्तुति करते हुए कहा कि हे सारे ब्रह्मांड के स्वामी ! आपके ही प्रताप से मैंने महापराक्रमी रावण का वध किया, आप स्वयं ज्योतिर्लिंग में रामेश्वरम में पधारे। हमारा जो भी बल है वो भी आपके आशीर्वाद के फलस्वरूप हीं है। यह जो अश्वमेघ यज्ञ मैंने किया है वह भी आपकी ही इच्छा से ही हो रहा है इसलिए हमपर कृपा करें और इस युद्ध का अंत करें। 
 
यह सुन कर भगवान रूद्र बोले की हे राम, आप स्वयं विष्णु के रूप है मेरी आपसे युद्ध करने की कोई इच्छा नहीं है फिर भी चूंकि मैंने अपने भक्त वीरमणि को उसकी रक्षा का वरदान दिया है इसलिए मैं इस युद्ध से पीछे नहीं हट सकता अतः संकोच छोड़ कर आप युद्ध करें।

श्रीराम ने इसे महाकाल की आज्ञा मान कर युद्ध करना शुरू किया। दोनों में महान युद्ध छिड़ गया जिसे देखने देवता लोग आकाश में स्थित हो गए। श्रीराम ने अपने सारे दिव्यास्त्रों का प्रयोग महाकाल पर कर दिया पर उन्हें संतुष्ट नहीं कर सके। अंत में उन्होंने पाशुपतास्त्र का संधान किया और भगवान शिव से बोले की हे प्रभु, आपने ही मुझे ये वरदान दिया है कि आपके द्वारा प्रदत्त इस अस्त्र से त्रिलोक में कोई पराजित हुए बिना नहीं रह सकता, इसलिए हे महादेव आपकी ही आज्ञा और इच्छा से मैं इसका प्रयोग आप पर ही करता हूं। यह कहते हुए श्रीराम ने वो महान दिव्यास्त्र भगवान शिव पर चला दिया। वह अस्त्र सीधा महादेव के हृदयस्थल में समा गया और भगवान रूद्र इससे संतुष्ट हो गए।

उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक श्रीराम से कहा कि आपने युद्ध में मुझे संतुष्ट किया है इसलिए जो इच्छा हो वर मांग लें। इसपर श्रीराम ने कहा कि हे भगवान ! यहां इस युद्ध क्षेत्र में भ्राता भरत के पुत्र पुष्कल के साथ असंख्य योद्धा वीरगति को प्राप्त हो गए है, उन्हें कृपया जीवन दान दीजिए। महादेव ने मुस्कुराते हुए तथास्तु कहा और पुष्कल समेत दोनों ओर के सारे योद्धाओं को जीवित कर दिया। इसके बाद उनकी आज्ञा से राजा वीरमणि ने यज्ञ का घोड़ा श्रीराम को लौटा दिया और अपना राज्य रुक्मांगद को सौंप कर वे भी शत्रुघ्न के साथ आगे चल दिए। 
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