Shri Krishna 2 Oct Episode 153 : श्रीकृष्ण बताते हैं कि किस तरह स्थितप्रज्ञ रहकर अनासक्ति योग में रहा जा सकता है

अनिरुद्ध जोशी
शुक्रवार, 2 अक्टूबर 2020 (22:47 IST)
निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 2 अक्टूबर के 153वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 153 ) में कुरुक्षेत्र में श्रीकृष्ण गीता के दूसरे अध्याय सांख्य योग में कर्म योग विषयांतर्गत समत्वबुद्धि कर्म योग और स्थि‍तप्रज्ञ की बात करते हैं। इसके बाद रामानंद सागरजी आकर निष्काम कर्म योग के बारे में बताए जाते हैं।
 
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बाद में रामानंद सागरजी आकर कहते हैं- कर्मयोग में सबसे महत्वपूर्ण बात जो श्रीकृष्ण ने कही है वह है निष्‍काम कर्म का तरीका। इसका अर्थ यह है कि कर्म फल की इच्छा को त्यागकर इसलिए कर्म करो की इस समय वही तुम्हारा धर्म है, तुम्हारा कर्तव्य है। कोटि कोटि प्राणी में से कोई विरला ही निकलता है जो निष्काम कर्म को करता है।...समय-समय पर हर देश में ऐसे लोग पैदा होते रहे हैं जो धर्म के नियमों का पालन करके दूसरे लोगों के लिए धर्म का मार्ग सुगम बना देते हैं। और समय-समय पर मानव मूल्यों के आदर्श और मानव मूल्यों के धर्म की स्थापना करते रहते हैं। धर्म वह सिद्धांत है जो देश और काल में हर युग में एक जैसा रहता है। 
 
निष्काम कर्म योग के सिद्धांत की अमरता का यही प्रमाण है कि यदि त्रैता में भरत जैसा निरासक्त कर्मयोगी हो सकता है तो हमारे आज के जमाने में भी बड़े-बड़े निष्काम कर्मयोगी हुए हैं। महात्मा गांधी, लोकमान्य तिलक, सुभाषचंद्र बोस, अरविंदो घोष, मदर टेरासा निष्काम कर्मयोग के जीवंत उदाहरण है ये लोग। ये तो नेता लोग थे परंतु उनसे भी अधिक ज्वलंत उदाहण हैं हमारे स्वतंत्रता युद्ध के उन सैंकड़ों क्रांतिकारी सेनानियों का जिन्होंने फल की आशा किए बिना अपनी मातृभूमि के लिए अपने प्राण फांसी के तख्तों पर निछावर कर दिए। किस-किस का नाम गिनाएं भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव, अश्फाक उल्लाह और क्रांतिकारी कवि रामप्रसाद बिस्मिल। ये सब वो महान क्रांतिकारी थे जिन्होंने देश की आजादी पर मरना अपना धर्म समझा और हंसते-हंसते फांसी पर चढ़ गए।
 
फिर सभी क्रांतिकारियों के फांसी के दृष्य को बताया जाता है। फिर रामानंद सागर कहते हैं कि श्रीकृष्‍ण कहते हैं कि तू जो कुछ करे वह मुझे अर्पित कर दे। यहीं से गीता में श्रीकृष्‍ण ने भक्ति मार्ग के बीज बो दिए हैं। अब हम भक्ति मार्ग की ओर अग्रसर हो रहे हैं। 

अर्जुन कहता है- हे मधुसुदन तुम तो कहते हो कि कामनाओं का त्याग करके स्थितप्रज्ञ बन जाओ। परंतु स्थितप्रज्ञ बनने के लिए सबसे आवश्यक क्या है? यह सुनकर श्रीकृष्‍ण कहते हैं- स्थिरबुद्धि। तब अर्जुन कहता है- स्थिरबुद्धि! परंतु मनुष्‍य अपनी बुद्धि को स्थिर कैसे रख सकता है? इस पर कृष्‍ण कहते हैं- आशा और निराशा दोनों से मुक्त होकर ही बुद्धि को स्थिर किया जा सकता है। बुद्धि स्थिर होगी तो इंद्रियों के विषयों का बल टूट जाएगा।
 
यह सुनकर अर्जुन कहता है- यदि इंद्रियों को ही काटकर फेंक दिया जाए तो फिर क्या उसके विषय रहेंगे? यह सुनकर श्रीकृष्‍ण कहते हैं- नहीं पार्थ, एक मनुष्य की आंखें चली जाए तब भी वह ऐसे दृष्यों की कल्पना कर सकता है जो उसे विषयों के मोह में फंसाए चले जाए। पार्थ एक अंधा मनुष्य भी परमात्मा का साक्षात्कार कर सकता है और एक नारी की कल्पना भी कर सकता है। सो किसी इंद्री के होने या नहीं होने से मन की वासना और आसक्ति पर फर्क नहीं पड़ता।...फिर श्रीकृष्‍ण कछुए का उदाहरण देकर इंद्रियों को समेटने की बात करते हैं। 
 
श्रीकृष्‍ण कहते हैं कि हे अर्जुन जो भोग विलास का भक्त होता है वह परमात्मा का भक्त कैसे हो सकता है। ऐसे मनुष्‍य जो बाहर से भक्ति के प्रदर्शन करते हैं परंतु विषयों में लीन रहकर वे केवल भक्त का ढोंग करते हैं। वो योगी नहीं ढोंगी होते हैं, मिथ्याचारि होते हैं। पार्थ स्थितप्रज्ञ को भोग और उपभोगों में रस और आसक्ति नहीं रहती है।.. ऐसे महापुरुषों को सदा विश्‍वास रहता है कि ईश्‍वर उनके साथ है इसलिए वे सदा किसी भी स्थिति में भी विचलित नहीं होते।
 
यह सुनकर अर्जुन कहता है कि ये कहना आसान है मधुसुदन। साधारण मनुष्‍य के लिए इस स्थिति तक पहुंचना आसान नहीं। इसके लिए किसी दैवीय सहायता की आवश्‍यकता होती है। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि तुमने ठीक कहा अर्जुन इसके लिए भगवतकृपा की आवश्‍यकता होती है। इसलिए मनुष्‍य को अपने पुरुषार्थ के साथ साथ परमात्मा की भक्ति करने से मन सात्विक हो जाता है और मन की विषयों के प्रति आसक्ति पूर्णत: समाप्त हो जाती है।...आसक्ति ना नाश नहीं हुआ तो मनुष्‍य का सर्वनाश हो जाता है। 
 
शिवजी कहते हैं कि वाह कितनी महत्वपूर्ण बात कही है प्रभु ने की काम के कारण मनुष्य का सर्वनाश हो जाता है। यह सुनकर माता पार्वती कहती है कि परंतु भगवन काम तो शक्ति स्रोत है फिर वह सर्वनाश का कारण कैसे बनेगा? फिर शिवजी कहते हैं कि काम की शक्ति यदि प्राणी के नियंत्रण में ना रहे तो वही शक्ति प्राणी का सर्वनाश कर सकती है। काम के आधीन मनुष्‍य हो जाता है तो यही काम वासना में बदल जाता है और यही काम मनुष्य को पशु बना देता है। 
 
तब अर्जुन कहता है कि हे केशव स्थितिप्रज्ञ का स्वभाव कोई उदाहरण देकर समझाओ। तब श्रीकृष्ण बहती नदी और विशाल और गहरे समुद्र का उदाहरण देते हैं। 

माता पार्वती पूछती है कि प्रभु भगवान श्रीकृष्‍ण के अनुसार स्थितिप्रज्ञ मनुष्य आसक्ति से मुक्त होते हैं। परंतु जब कोई मनुष्य संसार में रहकर संसार को भोग रहा हो तो देखने वाले तो उसे भोगी ही समझेंगे? तब शिवजी कहते हैं कि स्थितप्रज्ञ मनु्ष्य को इसकी चिंता कहां होती है कि कोई संसारी उसे क्या समझता है। वह संसार के भोग निरासक्त भाव से भोगता है। तब माता पार्वती पूछती है कि फिर कोई मनुष्य यह कैसे जान सकता है कि कोई मनुष्य आसक्ति का मारा हुआ है या निरासक्त, वह भोगी है या योगी? यह सुनकर शिवजी कहते हैं कि जैसे चंद्रमा का असली रूप रात के अंधेरे में प्रकाशित होता है वैसे ही असली योगी रात के अंधेरे में प्रकट होता है। क्योंकि जिस समय सारा संसार सोता है उस समय योगी अपने हृदय में मेरी भक्ति का दीप जलाकर मेरी भक्ति की साधना करता है।
 
कृष्ण कहते हैं- पार्थ सामान्य मनुष्‍य रात्रि का अंधकार होने पर सो जाता है तथा सूर्योदय होने पर जाग जाता है परंतु योगी की दृष्‍टि में देह का सोना जागना महत्वपूर्ण नहीं है। कर्मयोगी ज्ञान के प्रकाश को ही दिन तथा अज्ञान के प्रकाश को ही रात मानता है। पार्थ विषयों के बारे में अज्ञान रात्रि के अंधकार के समान है। इस तरह श्रीकृष्ण ज्ञानी और योगी के स्वभाव को बताते हैं और बताते हैं कि भोगी सोए और योगी जागता रहता है। जय श्रीकृष्णा।
 
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