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Shri Krishna 3 Oct Episode 154 : कर्मों को यज्ञ की भांति करो और योग के मार्ग पर चल में है खतरा

अनिरुद्ध जोशी
शनिवार, 3 अक्टूबर 2020 (23:26 IST)
निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 3 अक्टूबर के 154वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 154 ) में कुरुक्षेत्र में श्रीकृष्ण गीता के दूसरे अध्याय सांख्य योग में कर्म योग विषयांतर्गत स्थि‍तप्रज्ञ और भक्ति की बात कर रहे हैं। इसी क्रम में आगे वे कहते हैं कि कर्मों को यज्ञ की भांति करो।
 
रामानंद सागर के श्री कृष्णा में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें...वेबदुनिया श्री कृष्णा
 
संपूर्ण गीता हिन्दी अनुवाद सहित पढ़ने के लिए आगे क्लिक करें... श्रीमद्‍भगवद्‍गीता
 
अर्जुन कहता है कि हे केशव जैसा की तुम कह रहे हो कि ज्ञान योग कर्म योग से श्रेष्‍ठ है तो फिर तुम मुझे कर्म करने और युद्ध करने का उपदेश क्यों दे रहे हो? मुझे संहार करने की प्रेरणा क्यूं दे रहे हो?
 
तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि पार्थ मैंने ये तो नहीं कहा कि ज्ञान योग कर्म योग से श्रेष्ठ है, मेरे कहने का अर्थ ये नहीं था, तुम्हें धोखा हुआ है। हे पार्थ! जैसे साधारण दृष्टि से देखने पर एक नगर में दो आने वाले रास्ते हो, एक पूर्व से आ रहा हो और दूसरा दक्षिण से आ रहा हो परंतु जिस तरह वो दोनों रास्ते अलग-अलग दिशाओं से आते हुए वो एक ही नगर में पहुंचते हैं उसी तरह ज्ञान योग और कर्म योग दो अलग-अलग साधन है परंतु उनका लक्ष्य एक ही है और दोनों मार्गों से साधक ब्रह्म को ही पाता है। इसलिए दोनों लोग उत्तम है परंतु ज्ञान पर आधारित सांख्य योग की साधना कठिन है इसके मुकाबले कर्म योग की साधना सरल है। हे अर्जुन मैंने पूर्व काल में भी दो प्रकार की निष्ठा कही थी। ज्ञानियों के लिए अथवा संन्यासियों के लिए। 
 
फिर माता पार्वती कहती है कि प्रभु ये बता रहे हैं कि संन्यास योग हो या कर्म योग हो, दोनों ही परिस्थितियों में प्राणी कर्म से छूट नहीं सकता। फिर कोई योगी निष्कर्मता की अवस्था को कैसे पा सकता है? तब शिवजी कहते हैं कि देवी जब प्राणी निष्काम कर्म से अपने सभी कर्मों को मुझको समर्पित कर देता है तो ऐसे कर्मों से कोई फल उत्पन्न नहीं होता। इस प्रकार वह प्राणी अपने सारे कर्म ईश्वर को समर्पित करके ईश्वर में लीन होकर स्वयं निष्काम हो जाता है। इस ब्रह्मलीन अवस्था का नाम निष्कर्मता है।
 
फिर श्रीकृष्ण कर्म करने की विवशता के बारे में बताकर कहते हैं कि कोई प्राणी कर्म इस प्रकार करे जैसे कोई यज्ञ किया जाता है। यज्ञ लोक कल्याण के लिए भी किया जाता है और भगवान की आराधना के लिए भी। इसलिए कर्म को यज्ञ समझकर करता जा तो तू कर्म बंधन से मुक्त हो जाएगा।
 
फिर श्रीकृष्ण शास्त्रों में बताए गए यज्ञों के बारे में बताते हैं और कहते हैं कि इन यज्ञों के द्वारा प्राणी मेरी ही आराधना करते हैं। फिर श्रीकृष्‍ण यज्ञ क्या है और उसके प्रकार क्या है उसके बारे में बताते हैं। जन कल्याण का कोई भी कर्म यज्ञ है और अपनी प्रिय वस्तु का बलिदान भी यज्ञ है। 
 
फिर श्रीकृष्ण अष्टांग योग और तंत्र योग के बारे में बताते हैं। इन दोनों की व्याख्‍या भगवान शिव माता पार्वती को बताते हैं। फिर श्रीकृष्ण प्राण और अपान वायु के बारे में अर्जुन को बताते हैं तो इसकी व्याख्या शिवजी करते हैं और कहते हैं कि प्राणायाम भी एक यज्ञ ही है देवी। शिवजी इसके लाभ भी बताते हैं। 
 
श्रीकृष्‍ण कहते हैं कि हे अर्जुन इस प्रकार की साधना करने से पूर्व किसी सिद्ध गुरु से इसकी पूर्ण शिक्षा प्राप्त करना आवश्‍यक है। उसके लिए प्राणी को चाहिए कि बहुत विनम्र होकर गुरु से बार-बार प्रार्थना करें तो गुरु प्रसन्न होकर इन सबका ज्ञान प्रदान करेंगे। गुरु के बिना इन सब मार्ग पर चलने में बहुत खतरा हो सकता है। फिर अर्जुन के पूछने पर श्रीकृष्‍ण कहते हैं कि द्रव्य यज्ञ से सबसे अच्‍छा ज्ञान यज्ञ होता है। फिर श्रीकृष्‍ण ज्ञान यज्ञ के बारे में बताते हैं और कहते हैं कि भक्ति का उद्गम भी ज्ञान है। जब प्राणी भक्ति के आकाश में पहुंचता है तो वहीं प्रभु उस प्राणी का हाथ पकड़कर अपने श्रीचरणों में ले जाते हैं।
 
हे अर्जुन ये समझ लो की ज्ञान की अंतिम सीढ़ी पर चढ़कर ही प्राणी को श्रद्धा के पंख प्राप्त होते हैं। इसलिए हे अर्जुन ज्ञान यज्ञ ही सर्वश्रेष्ठ है। ज्ञान के द्वारा तू सबसे पहले सारी सृष्‍टि को अपने ही अंदर देखेगा और फिर वह सबकुछ तुझे मुझ परमात्मा के अंदर ही दिखाई देगा। जब तू इस ज्ञान को प्राप्त कर लेगा तो फिर तू संसार का सबसे बड़ा दुराचारि भी हो तो इस ज्ञानरूपी नैया में बैठकर संसाररूपी सागर को पार करके परमात्मा के पास पहुंच जाएगा।
 
हे अर्जुन मैं तुम्हें जिस योग की शिक्षा प्रदान कर रहा हूं। सबसे पहले मैंने यही योग कल्प के आदि में सूर्य को बताया था। सूर्य ने इस योग को अपने पुत्र मनु से कहा। मनु ने अपने पुत्र इक्ष्वाकु से कहा। हे अर्जुन इस प्रकार परंपरा से प्राप्त इस योग को राजर्षियों ने जाना। परंतु बहुत समय से ये योग इस लोक से लुप्त हो गया है। आज यही पुरातन योग मैंने तुझ से कहा है। क्योंकि तुम मेरे भक्त हो और मेरे सखा भी। इसलिए मैं तुम्हें यह गुप्त ज्ञान प्रदान कर रहा हूं।

 
यह सुनकर अर्जुन कहता है कि हे केशव! तुम तो कह रहे हो कि तुमने ये योग सूर्य से कहा था परंतु तुम्हारा जन्म तो इसी काल में हुआ है और सूर्य का जन्म तो पुराना है। फिर तुमने ये योग सूर्य से कैसे कहा? यह सुनकर श्रीकृष्‍ण कहते हैं कि हे अर्जुन इस मृत्यु लोक में तुम्हारे और मेरे अनेक जन्म हो चुके हैं और आगे भी होते रहेंगे। मैं भी अनेक बार इस मृत्यु लोक पर अवतरित होता रहता हूं। परंतु तुम अज्ञान के कारण इस रहस्य को जानते नहीं हो और मैं दिव्यत्व के कारण जानता हूं। परंतु हे अर्जुन मेरा जन्म साधारण प्राणियों की भांति नहीं होता। मैं अविनाशी हूं और अजन्मा भी हूं। मैं समस्त भू प्राणियों का ईश्‍वर हूं। इसलिए मेरा जन्म प्राकृत मनुष्‍यों के सदृश्‍य नहीं है। मैं प्रकृति को आधीन करके अपनी योगमाया के द्वारा प्रकट होता हूं। 
 
यह सुनकर अर्जुन कहता है कि हे मधुसुदन तुम सर्वेश्वर हो, समस्त चराचर के स्वामी हो, त्रिलोकपति हो तो फिर तुम्हें मृत्यु लोक में जन्म लेने की क्या आवश्‍यकता है। यह सुनकर श्रीकृष्‍ण कहते हैं कि मुझे आवश्यकता नहीं परंतु जब जब मृत्यु लोक के प्राणियों को मेरी आवश्यकता पड़ती है तब तब मैं मैं भूलोक पर अवतरित होता हूं। 
 
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्‌ ॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्‌ ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥
भावार्थ : हे भारत! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने रूप को रचता हूं अर्थात साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूं॥ साधु पुरुषों का उद्धार करने के लिए, पाप कर्म करने वालों का विनाश करने के लिए और धर्म की अच्छी तरह से स्थापना करने के लिए मैं युग-युग में प्रकट हुआ करता हूँ॥ अध्याय-4 श्लोक-7-8॥ 
 
श्रीकृष्‍ण कहते हैं कि मेरा अवतार धारण करने के तीन कारण होते हैं। पहला आततायियों द्वारा पीड़ित साधु पुरुषों का उद्धार करना, दूसरा दुष्टों का नाश करना और तीसरा धर्म की पुन: स्थापना करना। इन्हीं कार्यों के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूं। मेरे जन्म और मेरे कर्म दोनों दिव्य है। जो प्राणी इस तत्व को जान जाता है। वो प्राणी जब अपने शरीर का त्याग करता है तो उसे पुनर्जन्म लेना नहीं पड़ता। वो सीधा मुझे ही प्राप्त होता है।
 
यह सुनकर अर्जुन कहता है- हे केशव! मेरे मन में यह जानने की तीव्र जिज्ञासा है कि इस कृष्णावतार से पहले तुमने कब कब और क्यों अवतार धारण किया। अपना शिष्य तथा अपना साखा समझकर मेरी जिज्ञासा का उत्तर दो।
 
तब श्रीकृष्‍ण कहते हैं कि हे अर्जुन इस कल्प के आदि में सर्वप्रथम मैंने मत्स्य रूप में अवतार धारण किया था। उस समय मैंने सप्तऋषियों की नाव को प्रलय के जल में डूबने नहीं दिया। क्योंकि वो ऋषि पुरातन संस्कृति और पहली सृष्‍टि के बीजों को लेकर नए कल्प में उनका विकास करने वाले थे। तत्पश्चात समुद्र मंथन के समय जब मंदराचल पर्वत स्थिर नहीं रह सकता था तो मैंने कूर्म रूप धरकर उसे अपनी पीठ पर धारण किया ताकि देवता और दैत्य मिलकर सागर में से अमृत प्राप्त कर सके। फिर जब दैत्य अमृत का घढ़ा देवताओं से जबरदस्ती छीन कर ले गए तो देवआओं की सहायता के लिए ही मैंने ही मोहिनी रूप धारण किया था। उसी समय मैंने राहु दैत्य का भी वध किया था। 
 
हे पार्थ! अधर्मी हिरण्याक्ष का वध करने के लिए ही मैंने ही वराह अवतार लिया था। मैंने ही अपने परम भक्त बालक प्रहलाद की रक्षा करने के लिए नृसिंह अवतार धारण किया था। हे पार्थ! मैंने ही वामन अवतार धारण करके असुरराज बली से तीन पग धरती मांगी थी। और जब रावण में पृथ्‍वी लोक पर हाहाकर मचा दिया था तब मैंने ही त्रैता युग में राम अवतार धारण किया था। हे पार्थ! मेरे इस दिव्य और अलौकिक स्वरूप को ज्ञानी लोग जानते हैं और मेरे बताए योग का आचरण करके मोक्ष प्राप्त करते हैं। जय श्रीकृष्णा।
 
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