Shri Krishna 23 June Episode 52 : जब सांदीपनि ऋषि को पता चला श्रीकृष्ण भगवान हैं और प्रभु ने दिया गुरुमाता को वचन

अनिरुद्ध जोशी
मंगलवार, 23 जून 2020 (22:05 IST)
निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 23 जून के 52वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 52 ) में बद्रीनाथ पहुंचकर सांदीपनि ऋषि कहते हैं कि यह स्थान बड़े महात्माओं का तप स्थल भी है। यह सबसे पवित्र स्थान है। वहां बद्रीनाथ की मूर्ति के दर्शन करके वह कहते हैं कि यह कई आध्यात्मिक शक्तियों का एक महान केंद्र हैं। यहां सभी महान आत्माएं तपस्यारत हैं जिन्हें हम इस सूक्ष्म शरीर से भी देख नहीं सकते हैं। उन सभी महान आत्माओं को प्रणाम करो। फिर तीनों प्रणाम करते हैं तो आकाश में नारदमुनि बद्रीविशाल की स्तुतिगान करने लगते हैं। श्रीकृष्ण को मूर्ति में नारायण के दर्शन होते हैं।
 
रामानंद सागर के श्री कृष्णा में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें...वेबदुनिया श्री कृष्णा
 
बद्रीनाथजी के दर्शन करने के बाद वापस उज्जैन की ओर जाते हुए सांदीपनि ऋषि जानबूझकर श्रीकृष्ण और बलराम को मथुरा के आकाश में ले गए। उनकी इच्छा थी कि इसी बहाने महर्षि गर्ग के दर्शन भी कर लेंगे। बलराम कहते हैं अरे! ये तो अपना गोकुलग्राम है। गुरुदेव कहते हैं हां। मैंने सोचा भ्रमण को निकले हैं तो महामुनि गर्ग को भी प्रणाम करते चलते हैं। फिर तीनों गर्ग ऋषि के समक्ष उपस्थित हो जाते हैं। 
 
गर्ग ऋषि उन्हें देखकर अति प्रसन्न होकर उन्हें प्रणाम करते हैं। फिर वे श्रीकृष्ण को देखकर कहते हैं, हे! जगत के पालनहार!...ऐसा कहते ही सांदीपनि ऋषि चौंक जाते हैं। फिर गर्गमुनि बलराम की ओर देखकर कहते हैं, हे! भगवान अनंत।... यह सुनकर सांदीपनि ऋषि बलराम की ओर चौंककर देखने लगते हैं। आगे गर्ग मुनि कहते हैं, इस भक्त का नमन स्वीकार करें। दोनों 
गर्ग मुनि को आशीर्वाद देते हैं तो यह देखकर सांदीपनि ऋषि अचंभित और आश्चर्य से देखने लगते हैं।
 
फिर गर्ग मुनि कहते हैं आपकी इस अकारण दया से मैं धन्य हो गया प्रभु। फिर वह सांदीपनि ऋषि की ओर देखकर कहते हैं महामुनि! मैं आपकी क्या सेवा करूं? यह सुनकर सांदीपनि ऋषि कहते हैं, हे पूज्यवर ऐसा कहकर आप मुझे लज्जित न करें। आप तो मेरे ईष्ट देव भगवान भोलेनाथ के परम शिष्य हैं। इसलिए आपकी सेवा का कर्तव्य तो मेरा है। मैं तो यहां आपका धन्यवाद करने आया था कि आपने ऐसी दो परम विभुतियों को भेजा, जिन्होंने समस्त 64 विद्याओं को केवल 64 दिनों में सीख लिया। इस धरती पर आज तक किसी आचार्य को ऐसी प्रखर बुद्धिवाले शिष्यों को पाने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ होगा। परंतु यहां आकर मुझे यह ज्ञान हुआ कि इतने दिनों तक मैं तो इन्हें अज्ञान के चक्षू से ही देखता रहा। इतने दिनों तक मैं तो इन्हें भ्रमवश दिव्य आत्मा ही समझता रहा। परंतु यहां आकर जो दृश्य मैंने देखा तो पता चला कि ये कोई दिव्य आत्मा नहीं।....तभी गर्ग मुनि कहते हैं, स्वयं परमशक्तिमान भगवान हैं। 
 
यह सुनकर सांदीपनि ऋषि आश्चर्य से दोनों को देखने लगते हैं। फिर गर्ग मुनि कहते हैं यही है वे त्रिलोक के स्वामी भगवान श्रीकृष्ण। यह सुनकर सांदीपनि ऋषि की प्रसन्नता और आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहता है। फिर गर्ग मुनि कहते हैं और ये तीनों लोकों को अपने फन पर धारण करने वाले हैं स्वयं भगवान अनंत हैं। यह सुनकर सांदीपनि ऋषि दोनों के समक्ष हाथ जोड़कर खड़े हो जाते हैं। गर्गमुनि कहते हैं आप इन्हें पहचान नहीं सके।
 
यह सुनकर सांदीपनि ऋषि कहते हैं कि यह मेरी मंदबुद्धि का ही प्रमाण है कि मैं स्वयं विद्यापति को ही अहंकारवश विद्या सिखाता रहा। तब गर्ग मुनि कहते हैं नहीं, इसका कारण आपकी मंदबुद्धि नहीं बल्कि इसका कारण स्वयं इन्हीं की माया है। आप समझते हैं कि आज आप यहां अपनी इच्छा से आए हैं। नहीं महामुनि, यह भी इनकी असीम कृपा ही है जो आपके मन में यहां आने का संकल्प उन्होंने डाल दिया।
 
फिर सांदीपनि ऋषि भावुक होकर प्रभु से कहते हैं कि इतने दिनों तक अनजाने में मुझसे कोई भूल हो गई हो तो मुझे मूर्ख समझकर क्षमा कर देना प्रभु। यह सुनकर भगवान कृष्‍ण उन्हें अपने विष्णु रूप का दर्शन कराते हैं। यह देखकर गर्ग मुनि और सांदीपनि ऋषि कृतघ्न होकर दर्शन करते हैं। फिर प्रभु कहते हैं तुम्हारी निष्ठा और भगवान शिव में जो तुम्हारी श्रद्धा है उसके प्रभाव से तुम हमारी माया से मुक्त हो जाओगे। परंतु अभी उसमें थोड़ा समय लगेगा क्योंकि तुम्हारे मन में अभी आकांक्षा शेष है। हमारी माया के प्रभाव से तुम्हें आज का ये दृश्य याद नहीं रहेगा ताकि तुम एक गुरु की मर्यादा का पालन कर सको।
 
फिर तीनों अपने सूक्ष्म शरीर से पुन: स्थलू शरीर में लौट आते हैं। फिर सांदीपनि ऋषि कहते हैं आज की शिक्षा भी पूर्ण हो गई और उसके साथ ही मेरी विद्या का सारा भंडार ही खाली हो गया। आज मैं तुम्हें जीवनपथ पर आगे बढ़ने की अनुमति देता हूं। फिर सांदीपनि ऋषि दोनों को आशीर्वाद देते हैं।
 
फिर कुटिया के बाहर खड़ा सुदामा कहता है गुरुदेव ने तुम्हें देश-देशांतर की यात्रा कराई? बलराम कहते हैं हां बहुत दूर तक गए थे। फिर श्रीकृष्ण कहते हैं हमने तुम्हारी मां के दर्शन भी किए। यह सुनकर सुदामा कहता है तुम झूठ बोलते हो। तुमने तो मेरी मां को देखा ही नहीं फिर कैसे पहचान लिया? तब श्रीकृष्ण कहते हैं तुमसे उनकी बातें जो सुनी है। उनकी नाक के बाईं ओर एक काला तिल है। सुदामा कहता है हां। फिर कृष्ण कहते हैं उनकी नाक दोनों ओर से छिदी हुई है। सुदामा कहता है हां। फिर श्रीकृष्ण कई तरह की पहचान बताते हैं तब सुदामा कहते हैं हां वही है मेरी मां। क्या कर रही थी? तब कृष्ण कहते हैं दही बिलोकर माखन निकाल रही थी और मैं तेरे लिए उनका माखन भी चुरा लाया हूं। यह सुनकर सुदामा अति प्रसन्न हो जाता है।
 
फिर श्रीकृष्‍ण अपने चमत्कार से एक कटोरे में माखन रखकर उसे दे देते हैं। सुदामा उस कटोरे को देखकर कहता है अरे यही मां का कटोरा है। बड़े सालों से संभालकर रखा है। फिर सुदामा श्रीकृष्ण के कंधे पर हाथ रखकर कहता है वाह मित्र, तुमने तो कमाल ही कर दिया। आज कितने समय बाद मां के हाथों का माखन खाने को मिलेगा। यह सुनकर कृष्ण कहते हैं अरे सुदामा सारा माखन अकेले ही खाओगे? यह सुनकर सुदामा कहता है नहीं नहीं, इसके तीन हिस्से करते हैं।
 
फिर सुदामा माखन का कटोरा श्रीकृष्ण को पकड़ाकर कुटिया में तीन पत्तल लेने चला जाता है। अंदर वह तीन पत्तल निकालकर धोता है तो रोने लगता है। फिर वह बाहर आकर श्रीकृष्‍ण को पत्तल देता है तो श्रीकृष्ण उसकी आंखों में आंसू देखकर पूछते हैं तुम रो क्यों रहे हो? तब सुदामा कहता है मैं सोचता हूं कि मुझे तुम जैसा मित्र कहां मिलेगा? यह सुनकर कृष्ण कहते हैं अरे! जब तक मैं हूं तब तक किसी और मित्र की क्या आवश्यकता है? तब सुदामा कहता है तुम्हारी शिक्षा समाप्त हो गई है। तुम चले जाओगे तो फिर मैं अकेला रह जाऊंगा। यह सुनकर कृष्ण कहते हैं देख तुम्हें जब भी आवश्यकता होगी न, मैं उसी समय दौड़ा चला आऊंगा। कभी आवश्‍यकता होने पर झिझकना नहीं। मेरे पास आ जाना या मुझे अपने पास बुला लेना। वचन दे ऐसा करेगा ना, बोल मुझे भुलेगा तो नहीं? सुदामा रोते हुए कहता है तुम्हारे जैसे मित्र को भूलना असंभव है मित्र। यह सुनकर श्रीकृष्ण उसे गले लगा लेते हैं।
 
उधर, कुटिया में गुरुमाता सांदीपनि से पूछती है क्या सोच रहे हैं आप। सांदी‍पनि ऋषि कहते हैं कि कृष्ण के बारे में सोच रहा हूं। जाने क्यूं ऐसा आभास हो रहा है कि आज यात्रा में मैंने उसका और ही कोई रूप देखा है। गुरुमाता पूछती हैं कैसा रूप? तब सांदीपनि कहते हैं जैसे उसकी भुजाएं बढ़ गई हो। चार भुजाएं, आठ भुजाएं। कुछ समझ में नहीं आता। स्मृति पटल पर धुंधलासा चित्र उभरता है। परंतु स्पष्ट कुछ नहीं दिखाई दे रहा। यह सुनकर गुरुमाता भी कहती हैं ये तो मुझे भी लगता है कि वह कोई सामान्य पुरुष नहीं है। हो सकता है कि वह कोई दिव्य आत्मा हो। तब सांदीपनि ऋषि कहते हैं पुराणों में भी ऐसी कई कथाएं मिलती हैं कि किसी देवता को किसी श्राप के कारण मनुष्‍य योनि में जन्म लेना पड़ता है। मुझे तो ये कृष्ण कुछ ऐसा ही लगता है।
 
तभी गुरु की कुटिया में कृष्ण बलरामजी के साथ आ जाते हैं। दोनों उनको अंदर बुलाते हैं। दोनों गुरु के चरणों में प्रणाम करते हैं। फिर श्रीकृष्‍ण हाथ जोड़कर कहते हैं, गुरुदेव गुरु अपने शिष्यों को विद्या का जो दान देता है शिष्य उस ऋण को कई जन्मों तक चुका नहीं पाता है। फिर भी लोक मर्यादा के अनुसार जाते हुए गुरु दक्षिणा देना शिष्य का धर्म है। इसलिए हम आपसे प्रार्थना करने आए हैं कि आप जो भी उचित समझे उसके अनुसार आप हमें गुरु दक्षिणा देने का आदेश करें। हम वचन देते हैं कि हम उस आदेश का अवश्य पालन करेंगे।
 
यह सुनकर सांदीपनि ऋषि कहते हैं कि जो गुरु किसी दक्षिणा के लालच में विद्या प्रदान करता है वास्तव में वह गुरु कहलाने का अधिकारी नहीं। वह तो एक निम्नकोटि का व्यापारी है। ऐसे गुरु की शिक्षा में ब्रह्मज्ञान का तेज कैसे हो सकता है? फिर भी मैं तुम्हें आचार्य ऋण के भार से मुक्त करने के लिए मैं तुमसे गुरु दक्षिणा के रूप में एक वचन मांगता हूं कि जो विद्या मैंने तुम्हें सिखाई है उसका जनकल्याण के लिए सदुपयोग करोगे।
 
फिर कृष्ण गुरुमाता से कहते हैं आपने हमें जो प्यार दिया उस उपकार को उतारा नहीं जा सकता लेकिन फिर भी यदि आपके मन में कोई इच्छा हो जिसे हम पूरा कर सकें तो हम इसे अपना अहोभाग्य समझेंगे। यह सुनकर गुरुमाता आंखों में आंसूभरकर बोलती हैं मेरी इच्छा तुम पूरी नहीं कर सकोगे। इसलिए मत पूछो मुझसे।
 
यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं नहीं माता, ऐसी कोई इच्‍छा नहीं जिसे हम पूरा नहीं कर सकें। हम वचन देते हैं कि यदि हमें अपने प्राण भी देने पड़ जाएं तो भी हम आपकी इच्छा अवश्य पूरी करेंगे। इसलिए कहिये क्या इच्छा है आपकी? यह सुनकर गुरुमाता रोने लगती है। तब श्रीकृष्ण कहते हैं नि:संकोच कहें माता क्या इच्छा है आपकी?
 
गुरुमाता रोते हुए कहती हैं, क्यों पूछते हो मुझसे, मेरी इच्‍छा कोई पूरी नहीं कर सकता। इसलिए मत पूछो मुझसे। मत पूछो मुझसे, मत पूछो। यह सुनकर कृष्ण कहते हैं मेरे वचन पर भरोसा रखें माता। मैं आपकी इच्छा अवश्य पूरी करूंगा।
 
इस पर गुरुमाता रोते हुए कहती हैं, तो सुनो! हमारा एक ही पुत्र था पुर्नदत्त। जो जवानी में मर गया। तुम मेरे पुत्र को वापस लाकर दे सकते हो? यह सुनकर श्रीकृष्ण गुरुमाता की ओर गौर से देखने लगते हैं। माता रोते हुए कहती हैं बोलो? श्रीकृष्ण चुप रह जाते हैं तब गुरुमाता कहती हैं मैं जानती थी कि तुम मेरी इच्‍छा पूरी नहीं कर सकोगे। इसलिए झूठा वचन क्यों देते हो? जाओ, जाओ मैं तुम्हें वचन से मुक्त करती हूं।
 
यह सुनकर श्रीकृष्ण पूछते हैं, उसकी मृत्यु कैसे हुई थी? तब गुरुमाता कहती हैं उसे समुद्र खा गया। कृष्ण कहते हैं समुद्र? तब सांदीपनि ऋषि कहते हैं हां, हम प्रभाष क्षेत्र में पर्व स्नान के लिए गए थे। अचानक समुद्र की एक लहर उसे खींचकर अंदर ले गई। फिर वह वापस नहीं लौटा। बस तभी से हम दोनों पुत्र दुख की ज्वाला में चुपचाप यूं ही जल रहे हैं। मेरा तो कुल ही नष्ट हो गया है।...गुरुमाता रोती रहती हैं।
 
यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि परंतु इसका आपने निश्चय कैसे कर लिया की पुर्नदत्त की मृत्यु हो गई है? तब गुरुमाता कहती हैं जिसे समुद्र खाएगा फिर क्या वह जीवित रहेगा? तब श्रीकृष्ण कहते हैं, हो सकता है कभी कभी ऐसा होता है कि समुद्र में डूबकर भी प्राणी मरता नहीं है। बेहोशी की अवस्था में लहरों में बहता हुआ वह किसी दूसरे किनारे पर पहुंच जाता है। यह सुनकर सांदीपनि ऋषि के चेहरे पर आशा की किरण जाग जाती है। फिर कृष्ण कहते हैं हो सकता है कि इसी प्रकार आपका पुत्र भी किसी दूसरे देश में पहुंच गया हो। आप अभी निराश ना हो माता। मुझे विश्वास है कि आपका पुत्र मिल जाएगा।
 
तब गुरुमाता कहती हैं इस प्रकार सांत्वना देने वाले बहुत मिले परंतु अभी तक ऐसा कोई नहीं मिला जो मेरे पुत्र को वापस ला सकें। तब सांदीपनि ऋषि गुरुमाता से कहते हैं अपने दुख का बोझ इन बालकों पर क्यों डाल रही हो। अच्‍छा किया जो आपने इन्हें वचन से मुक्त कर दिया। 
 
यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं, नहीं गुरुदेव मेरा वचन कभी झूठा नहीं होता। मैंने वचन दिया है कि प्राण देकर भी मैं अपना वचन पूरा करूंगा तो आज मैं प्रतिज्ञा करता हूं कि आपका पुत्र तीनों लोकों में जहां भी होगा मैं उसे ढूंढकर आपके पास ले आऊंगा और तभी मैं अपने आपको आचार्य ऋण और गुरु दक्षिणा के उत्तरदायित्व से मुक्त समझूंगा। जब तक मैं आपके पुत्र को वापस न ले आऊं तब तक मैं अपने घर नहीं जाऊंगा। मुझे आशीर्वाद दीजिये की मेरा ये प्रण पुरा हो जाए। फिर श्रीकृष्ण और बलराम दोनों से आशीर्वाद लेकर वहां से चले जाते हैं। जय श्रीकृष्णा। 
 
रामानंद सागर के श्री कृष्णा में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें...वेबदुनिया श्री कृष्णा
 

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