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श्रीकृष्ण को दो बार तराजू में तौला परंतु दोनों बार खजाना हो गया खाली

अनिरुद्ध जोशी
सोमवार, 17 अगस्त 2020 (16:39 IST)
भगवान श्रीकृष्‍ण का दो बार तुला दान किया गया था। पहले बार में राधा के कारण नंदराजजी की लाज बची थी तो दूसरी बार में रुक्मिणी के कारण सत्यभामा की लाज बची थी। दोनों ही बार वे सिर्फ प्रेम के दान से ही हार जाते हैं।

 
पहली कथा : कालिया नाग के दमन के बाद गोकुल में नंदबाबा ने अपने पुत्री श्रीकृष्ण और रोहिणी के पुत्र बलराम दोनों के तुला दान का आयोजन रखा। इस आयोजन में सभी ग्वाल और यादव बिरादरी के लोग आए थे। उस दौरान राधा और उनके पिता वृषभानु भी मौजूद थे। 
 
नंदबाबा के आसपास बलराम और श्रीकृष्ण एक साथ बैठे होते हैं। सभी समाज और बिरादरी के लोग एकत्रित होकर एक जगह बैठे रहते हैं। श्रीकृष्ण के पीछे राधा बैठी मुस्कुरा रही होती है। सामने यशोदा मैया और रोहिणी मैया बैठी रहती हैं और दूसरी ओर वृषभानुजी अपनी पत्नी के साथ बैठे रहते हैं। एक ओर पुरोहितजन यज्ञ और तुलादान की तैयारी कर रहे होते हैं।
 
तभी एक ऋषि कहते हैं नंदरायजी अब श्रीकृष्ण को बुलाइये। भगवान श्रीकृष्ण को तराजू के एक पलड़े में बैठा दिया जाता है। दूसरे में हीरे जवाहरात रख दिए जाते हैं लेकिन श्रीकृष्ण के वजन से पलड़ा उनका ही भारी रहता है। नंदबाबा ये देखकर हैरान रह जाते हैं। तब वे कहते हैं कि एक थैला और लाओ। तब मोतियों की एक थाल रख दी जाती है लेकिन फिर भी पलड़ा बराबर नहीं होता है। तब नंदरायजी मैया यशोदा की ओर देखने लगते हैं। फिर वे कहते हैं एक थैला और लाओ। राधा और श्रीकृष्ण मुस्कुराते रहते हैं।
 
मोतियों से भरे उस दूसरे थैले से भी कुछ नहीं होता है तो यशोदा मैया, रोहिणी और नंदबाबा आश्चर्य से हैरान परेशान हो जाते हैं। पुरोहित भी ये देखकर हैरान रहते हैं कि कान्हा में इतना वजन कैसे? तब नंदबाबा कहते हैं और थैले लाओ। और लाए जाते हैं उनसे भी कांटा हिलता तक नहीं है। सभी थाल समाप्त हो जाते हैं तब यशोदा मैया उठकर एक एक करके अपने सारे गहने निकालकर रख देती हैं। उनके आसपास दाऊ और राधा भी खड़े हो जाते हैं। फिर धीरे से दाऊ राधा के पास जाकर उन्हें प्रणाम करते हैं। राधा समझ जाती है। फिर राधा उन्हें अपने बालों में लगी वेणी के फूल तोड़कर दे देती हैं। दाऊ वे फूल लेकर तराजू के दूसरे पलड़े पर रख देते हैं। पलड़ा एकदम से झुककर नीचे जमीन से लग जाता है और श्रीकृष्ण ऊपर हो जाते हैं। सभी प्रसन्न होकर मुस्कुराने लगते हैं।
 
तब नंदबाबा पूछते हैं ये क्या था, कैसा चमत्कार है ये? यह सुनकर यशोदा मैया राधा की ओर देखने लगती हैं। नंदबाबा फिर से पूछते हैं, दाऊ भैया ये क्या था? तब दाऊ भैया कहते हैं कि ये एक दिव्य प्रेम का उपहार था। दिव्य प्रेम का उपहार? तुम दोनों के कौतुक हमारी समझ में नहीं आते। यह कहकर नंदबाबा श्रीकृष्ण को तराजू से नीचे उतार लेते हैं।
 
 
दूसरी कथा : सत्यभामा के अहंकार को तोड़ने के लिए ये लीला श्रीकृष्‍ण ने की थी। सत्यभामा के पुण्यक व्रत के पुरोहित के रूप में नारदजी सत्यभामा से दान में उनकी सबसे प्रिय वस्तु मांग लेते हैं। तब सत्यभामा गलती से श्रीकृष्ण को ही दान कर देती है। द्वारिकाधीश श्रीकृष्ण नारदमुनी के दास बन जाते हैं। बहुत मिन्नतें करने के बाद नारदजी कहते हैं कि वैसे तो दान में दी हुए वस्तु वापस नहीं लौटाई जाती परंतु इसके बदले में तुम्हें कुछ देना होगा। 
 
यह सुनकर सत्यभामा प्रसन्न होकर कहती है- सच? तब नारदजी कहते हैं- हां देवी अपने पति के लिए आपके हृदय में इतनी गहरी भावना देखकर मेरा हृदय भी पिघल गया। सो मैंने इन्हें मुक्त करने का निश्चय कर लिया है तो आप इनका कुछ तो मोल चुका दो। यह सुनकर सत्यभामा कहती है- कुछ क्या मुनिवर इनके बदले में मैं आपको इतना दूंगी...इतना दूंगी कि जितना आज तक आपको किसी ने कुछ ना दिया होगा। यह सुनकर श्रीकृष्ण सत्यभामा को देखते हैं कि हां अभी भी अहंकार बाकी है।
 
सत्यभामा कहती है कि ऐसी अमूल्य मणियां हैं, ऐसे ऐसे रत्न हैं और इतना सोना है कि आप समेटते-समेटते थक जाएंगे परंतु सोना खत्म नहीं होगा। यह सुनकर नारदमुनि कहते हैं- नारायण नारायण। मैं इतने धन का क्या करूंगा देवी। शास्त्र कहता है कि ब्राह्मण को लोभी नहीं होना चाहिए। मैं तो उतना ही लूंगा जितना शास्त्र में मर्यादा है। तब सत्यभामा कहती हैं- शास्त्र में कितनी मर्यादा है?
 
यह सुनकर नारदमुनि कहते हैं कि शास्त्र कहता है कि इस परिस्थिति में इनके (श्रीकृष्ण के) तोल के बराबर कोई भी पदार्थ दे दीजिये बस, प्रायश्चित स्वीकार हो जाएगा। यह सुनकर सत्यभामा कहती है- कोई भी पदार्थ अर्थात? तब नारदमुनि कहते हैं- नारायण नारायण। अर्थात कुछ भी देवी कुछ भी। फल हो, फूल हो, चावल हो और चाहे पत्ते ही हो देवी जो कुछ भी आप श्रद्धा से इनके तोल के बराबर देंगी वो मैं स्वीकार कर लूंगा।
 
यह सुनकर सत्यभामा गर्वित होकर प्रसन्न हो जाती है और कहती है- धन्यवाद देवर्षि जब सत्यभामा इनका तुलादान करेंगी तो फूल पत्तों से नहीं सोने-चांदी से करेगी, माणिक-मोतियों से करेगी। यह सुनकर नारदमुनी हंसते हुए कहते हैं- नारायण नारायण, जैसी आपकी इच्छा देवी। तुलादान का प्रबंध कीजिये।... यह सुनकर हाथ जोड़कर सत्यभामा कहती है- जी। तब श्रीकृष्ण नारदमुनी की ओर देखकर मुस्कुराते हैं। फिर सभी लोगों और कई ब्राह्मणों के समक्ष विधिवत रूप से तुला के एक पलड़े में श्रीकृष्ण को बैठाया जाता है और दूसरे में सत्यभामा थाल में सजे सोने, चांदी और माणिक को रखती हैं। कई थाल रखने के बाद भी जब वह यह देखती है कि श्रीकृष्ण का पलड़ा तो हिला भी नहीं तब वह और थालें रखवाती हैं।
 
अंत में सत्यभामा का सारा खजाना खाली हो जाता है परंतु श्रीकृष्ण बैठे के बैठे ही रहते हैं। फिर सत्यभामा निराश होकर अपने शरीर के गहने भी तराजू पर चढ़ा देती है परंतु कुछ भी नहीं होता है। फिर रुक्मिणी निराश खड़ी सत्यभामा के पास जाती है तो सत्यभामा कहती है- दीदी। मेरे पास जो कुछ था मैं सबकुछ इन्हें अर्पण कर चुकी हूं। तब रुक्मिणी कहती है- सत्यभामा अभी सबकुछ कहां अर्पण किया है तुमने। फिर रुक्मिणी अंगुठी की ओर संकेत करके कहती है ये देखो। ये मुद्रिका अभी भी तुम्हारे पास है। फिर रुक्मिणी मुद्रिका निकालकर कहती हैं- आभूषण तो देह के बाहरी आडंबर होते हैं पगली। इनके सहारे तुम श्रीकृष्ण को तोलने चली थी? परंतु देख लिया ना इनका कौतुक। इन्हें अपनी आत्मा के अनुराग से तोलो सत्यभामा। एक पत्नी की भावना से तोलो...हां। ये सोने के आभूषण तुम्हारे अहंकार के प्रतीक थे। अच्‍छा किया जो उन्हें अर्पण कर दिया। अब एक भक्त की भांति इन्हें पुकारों। भक्ति और प्रेम से ये हार जाएंगे, धन और अहंकार की शक्ति से नहीं। श्रीकृष्ण सत्यभामा की ओर देखकर मुस्कुरा रहे होते हैं।
 
फिर रुक्मिणी वह अंगुठी सत्यभामा को देकर कहती है- लो ये अंतिम मुद्रिका पूरी श्रद्धा के साथ चढ़ा दो। और इसके साथ अपनी आत्मा भी चढ़ा दो इस तुला पर। निश्चय ही जीत तुम्हारी होगी सत्यभामा। धन का अहंकार छोड़ो, ये तो तुलसी के पत्ते से भी रीझ जाएंगे। फिर रुक्मिरी तुलसी का एक पत्ता लेकर अंगुठी में लगाकर सत्यभामा को दे देती हैं।
 
सत्यभामा उसे लेकर देखती है और अपने माथे से लगाकर पूर्ण श्रद्धा और भक्तिभाव से तुला पर रख देती है और तभी चमत्कार होता है। प्रभु का पलड़ा ऊपर उठ जाता है। सभी खड़े होकर फूल बरसाने लगते हैं और सत्यभाभा यह देखकर प्रसन्न और अचंभित हो जाती है और श्रीकृष्ण को आंसू भरकर भक्तिभाव से देखने लगती है। श्रीकृष्ण भी प्रसन्न होकर सत्यभामा को देखकर गद्गद हो जाते हैं।

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