लोकरंजन और लोककल्याण का महोत्सव है कुंभ

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पीयूष द्विवेदी 
22 अप्रैल से मध्य प्रदेश के उज्जैन में आरंभ, आस्था के महोत्सव यानी कुंभ मेले को लेकर देशभर के श्रद्धालुओं के बीच उत्साह और उल्लास का वातावरण एकदम प्रत्यक्ष है। इस सिंहस्थ कुंभ मेले के प्रति लोगों में कितनी आस्था है, इसे इसी से समझा जा सकता है कि इसमें तकरीबन 5 करोड़ श्रद्धालुजनों के पहुंचने का अनुमान व्यक्त किया गया।





इसके मद्देनजर मध्य प्रदेश सरकार द्वारा पिछले वर्ष से ही व्यवस्थाएं की जा रही हैं। दरअसल इस कुंभ मेले में सिर्फ देश से ही नहीं वरन विदेशों से भी भारी संख्या में सैलानी आते हैं। इसके देखत हुए मध्य प्रदेश सरकार द्वारा सुरक्षा व्यवस्था से लेकर घाटों आदि को सम्यक प्रकार से व्यवस्थित रूप देने का कार्य किया जा रहा है। 
 
उल्लेखनीय होगा कि यह अभी केवल एक अर्धकुंभ है, जिसका आयोजन प्रत्येक छः वर्ष में किया जाता है। इससे इतर प्रत्येक बारह वर्ष में, एक विशेष ग्रह स्थिति आने पर, महाकुंभ का आयोजन होता है। सांस्कृतिक तौर पर देखें तो भारतीय संस्कृति के समंवयकारी स्वरुप का एक विराट दर्शन हमें इस कुंभ मेले में होता है, जहां साधू-संतों से लेकर आमजन और नेता तथा विदेशी पर्यटकों तक का एक विशाल हुजूम उमड़ता है और ऊंच-नीच, जाति-धर्म, अमीरी-गरीबी के भेदभाव से मुक्त होकर महाकुंभ के स्नान का अक्षय पुण्य या विशेष संतोष प्राप्त करता है।

हालांकि, वर्तमान समय में कुंभ मेले में बड़े साधु-संतों को मिलने वाली विशेष व्यवस्थाओं आदि के जरिए कुंभ की इस समानता की अवधारणा का क्षरण अवश्य है, जो कि अपनी परंपराओं को विकृत रूप दे देने की हमारी प्रवृत्ति का ही एक उदाहरण है।
 
बहरहाल, कुंभ के विषय में अगर पौराणिक मान्यताओं पर गौर करें, तो प्रसंग है कि समुद्र-मंथन से उत्पन्न अमृत के घड़े (कुंभ) को असुरों से बचाने के लिए देवताओं ने बारह दिन तक समूचे ब्रह्मांड में छुपाया था, इस दौरान उन्होंने इसे धरती के जिन चार स्थानों पर रखा, वो ही चारो कुंभ के आयोजन स्थल बन गए। इलाहाबाद और हरिद्वार में गंगा का तट तथा नासिक की गोदावरी और उज्जैन की क्षिप्रा के तट, ये कुंभायोजन के चार स्थल हैं। 

इन चारों स्थानों पर कुंभ के आयोजन के लिए ज्योतिष की विभिन्न अवधारणाएं हैं, जिनके अनुसार जब जीवनवर्द्धक ग्रहों का स्वामी बृहस्पति किसी जीवनसंहारक ग्रह की राशि में प्रवेश करता है, तो इस संयोग को शुभ तिथी के रूप में माना जाता है और इसी क्रम में एक समय ऐसा भी आता है, जब बृहस्पति का प्रवेश मान्यतानुसार जीवन संहारक ग्रहों के प्रधान शनि की राशि कुंभ में होता है और इसका प्रभाव बिंदु हरिद्वार बनता है।



 इस स्थिति में कुंभायोजन हरिद्वार में होता है। ठीक इसी प्रकार बृहस्पति का शुक्र में और सूर्य-चंद्र का शनि की मकर राशि में प्रवेश इलाहाबाद के लिए कुंभायोजन का योग बनाता है और यही वो समय भी होता है जब सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण होते हैं, जिसे शुभ मानते हुए मकर संक्रांति के रूप में मनाया भी जाता है। कुछ इसी प्रकार जब बृहस्पति का प्रवेश सूर्य की सिंह राशि में होता है, तो ये संयोग नासिक की गोदावरी के लिए कुंभायोजन का सुयोग उत्पन्न करता है। बृहस्पति की सिहंस्थ स्थिति में ही अगर सूर्य मेष राशि और चंद्रमा तुला राशि में पहुंच जाए, तो ये उज्जैन के लिए कुंभ के आयोजन का संकेत होता है।
 
वर्तमान में यही ग्रह स्थिति बनी है, जिस कारण उज्जैन में कुंभयोजन हो रहा है। वैसे, सामान्य जनों की समझ के लिए ये ज्योतिषीय अवधारणाएं निस्संदेह बड़ी ही जटिल प्रतीत होती हैं, पर पुरातन काल से इन्ही के आधार पर कुंभ का आयोजन होते आ रहा है। यूं तो इन चारो ही स्थानों का कुंभ स्नान फलदायी आस्था से पुष्ट है, पर इलाहाबाद के संगम तट का कुंभ स्नान इनमें भी श्रेष्ठ माना जा सकता है। क्योंकि, यह गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती के संगम का वो अद्भुत स्थल है, जिसके प्रति लोगों के मन में अनायास ही अनंत श्रद्धा का भंडार है, उसपर यदि कुंभ का शुभ योग बने तो कहना ही क्या! वैसे, ज्योतिष-विज्ञान की उपर्युक्त मान्यताओं से अलग श्रद्धालु जनों की अपनी एक सीधी और सरल मान्यता भी है कि सकारात्मक शक्तियों द्वारा नकारात्मक शक्तियों के दुष्प्रभाव को रोकने का एकजुट प्रयास ही कुंभ की पृष्ठभूमि है।
 
अब चूंकि, अधिकांश भारतीय पर्वों में लोकरंजन ही नहीं लोककल्याण का भाव भी निहित होता है और इस कुंभ के संबंध में भी श्रद्धालुओं का यही मत है,  कि कुंभ के स्नान से मानव के दोष तो मिटते ही हैं, संसार की विपत्तियों का भी नाश होता है। लेकिन श्रद्धालुओं के इस आस्थापूर्ण मत से इतर यदि तार्किक दृष्टि से विचार करें तो भी यही स्पष्ट होता है कि कुंभ पर्वों का उद्देश्य केवल आस्थापूर्ति और लोकरंजन ही नहीं है, बल्कि इसमें लोककल्याण का भाव भी निहित है। विचार करें तो पालक-पोषक होने के कारण और कुछ पौराणिक आस्थाओं के कारण भी, भारत में पुरातन काल से ही नदियों को मां का स्थान प्राप्त रहा है। ऐसे में, बहुत से विद्वानों का ऐसा मानना है कि प्राचीनकाल से निरंतर आयोजित हो रहे इन कुंभ पर्वों का एक प्रमुख उद्देश्य नदी-संरक्षण भी है। 

अगर हम स्वयं भी आस्था व अध्यात्म के दायरे से थोड़ा बाहर आकर तार्किकता से कुंभ के उद्देश्य पर विचार करें, तो विद्वानों का ये कथन काफी हद तक उचित व व्यवहारिक ही प्रतीत होता है। चूंकि, इस बात की पूरी संभावना है कि हमारे पूर्वज ऋषि-मुनियों द्वारा नदियों के प्रति मातृगत आस्था का प्रतिस्थापन व उनमें स्नान को धर्म से जोड़ने का विधान, उनकी सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए ही किया गया होगा तथा इसी क्रम में नदियों में स्नान को और महत्वपूर्ण रूप देने के लिए कुंभ जैसे स्नान पर्व की परिकल्पना भी की गई होगी। कहीं न कहीं उनका यह मानना रहा होगा कि लोग यदि नदियों के प्रति श्रद्धालु होंगे तो उनकी देख-रेख, साफ-सफाई और संरक्षण करेंगे तथा कुंभ जैसे स्नान पर्वों के समय एकजुट होकर नदियों के लिए कार्य करेंगे ताकि उनमें स्नान आदि कर सकें। किंतु उन्हें तब संभवतः इस बात का आभास न रहा हो कि भविष्य निरपवाद रूप से ऐसे पाखंडी जनों का है, जिनके वचन और कर्म में विराट अंतर होगा और जिनकी श्रद्धा का आधार आचरण नहीं, केवल बातें होंगी। 
 
आज यही हो रहा है कि नदियों के प्रति लोगों में श्रद्धा तो है और देश का बहुसंख्य समाज उन्हें मां भी मानता है लेकिन, इसके बावजूद नदियों की दशा बद से बदतर होती जा रही है। क्योंकि, एक तरफ लोग उन्हें मां कहते हैं और दूसरी तरफ उनमें अपशिष्ट विसर्जन में भी नहीं हिचकते। हमारे पूर्वज यह कल्पना थोड़े किए होंगे कि भविष्य में ऐसे पूत होंगे जिन्हें अपनी मां को गंदा करने में भी लज्जा या संकोच का अनुभव नहीं होगा। अब जो भी हो, लेकिन  इतना तो स्पष्ट है कि कुंभ  केवल लोकरंजन का महोत्सव ही नहीं, लोककल्याण का साधन भी है। आवश्यकता है तो इसके महत्व को समझने की।
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