अगर इस समस्या को खत्म करना है तो हमें स्कूल व्यवस्था में शिक्षकों को वह सम्मान देना होगा जिसके वे अधिकारी हैं और पाठ्यक्रम को बच्चों के अनुकूल बनाना होगा न कि प्रतिस्पर्धात्मक परीक्षाओं के अनुकूल।
पिछले दो दशकों में तयशुदा नीतियां बनाकर शिक्षकों का सम्मान और गिराया गया है। उन्हें पैरा टीचर (अर्द्ध शिक्षक) बनाकर 1990 के पहले वाली स्थिति भी खत्म कर दी गई।
निजी स्कूलों में तो स्थिति और भी बुरी है। क्योंकि अमीर घरों के बच्चे जानते हैं कि उनकी भारी-भरकम फीस की वजह से ही शिक्षकों को तनख्वाह मिल रही है। यानी वे अपने लिए शिक्षक खरीद रहे हैं।
इस तरह शिक्षकों की इज्जत और खत्म हुई है। शारीरिक दंड को प्रतिबंधित करने के लिए चाहे कितने कानून बना लें कुछ फर्क नहीं पड़ेगा, हालात और बिगड़ते जा रहे हैं।
टीचर्स और स्टूडेंट्स, मैनेजमेंट और पेरेंट्स सभी में धैर्य की जरूरत है। अधीरता की वजह से ही शिक्षक स्थिति पर काबू नहीं कर पाते हैं और इसी अधीरता की वजह से ही विद्यार्थी यह निर्णय स्वयं ले लेते हैं कि उनके शिक्षक को कुछ नहीं आता।
परिणामस्वरूप शिक्षक उनके लिए मजाक का विषय बन जाते हैं इसका परिणाक भी शारीरिक दंड के रूप में सामने आता है। मैनेजमेंट कम रुपयों में शिक्षक को पूरा निचोड़ लेना चाहता है और अभिभावक अपने बच्चों के सामने उनके शिक्षक का अपमान करने लगे हैं ऐसी स्थितियां भी शिक्षक द्वारा दिए जाने वाले शारीरिक दंड का कारण बनती है।